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Friday, 22 November, 2024
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क्या EPFO डेटा बताता है कि कितने नए रोजगार बढ़े? नहीं, विशेषज्ञों की राय में डेटा लिमिटेशन के कारण ऐसा संभव नहीं

विशेषज्ञों का कहना है कि वेतन सीमा, निचले स्तर के श्रमिकों का एक से दूसरी जगह बदलते रहना, छोटे प्रतिष्ठानों का जानबूझकर पंजीकरण से बचना, आदि वे कारण हैं जो ईपीएफ डेटा को त्रुटिपूर्ण संकेतक बनाते हैं.

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नई दिल्ली: देश में औपचारिक क्षेत्र में रोजगार बढ़ रहे हैं, यह दर्शाने के लिए सरकार अक्सर कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के हर माह जारी होने वाले डेटा का हवाला देती है, जिसका नवीनतम संस्करण गत शुक्रवार को जारी किया गया था. लेकिन अर्थशास्त्रियों की मानें तो ये डेटा त्रुटिपूर्ण है, कृत्रिम वृद्धि को दर्शाने वाला है और साथ ही औपचारिक क्षेत्र के केवल एक छोटे से हिस्से से संबद्ध है.

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआ) की तरफ से जारी आंकड़ों से पता चलता है कि वित्तीय वर्ष 2022-23 के पहले छह महीनों में ईपीएफ डेटाबेस में शुद्ध वृद्धि 87.13 लाख थी, और जिसके पूरे साल में 2021-22 में 122.3 लाख शुद्ध वृद्धि से ऊपर पहुंच जाने की पूरी उम्मीद है.

अप्रैल-सितंबर 2022 यानी इस वित्त वर्ष की पहली छमाही का आंकड़ा 2018-19 (61.12 लाख), 2019-20 (78.6 लाख) और 2020-21 (77.1 लाख) के पूरे साल के आंकड़ों से अधिक है.

पूर्व में, कई मंत्रियों ने यह दर्शाने के लिए ईपीएफ डेटा का ही हवाला दिया है कि औपचारिक क्षेत्र का रोजगार बढ़ रहा है. गत मंगलवार को ही केंद्रीय रेल, संचार, इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्री, अश्विनी वैष्णव ने ईपीएफओ डेटा का हवाला देते हुए कहा, ‘देश में अप्रैल, मई, जून, जुलाई और अगस्त में हर महीने औसतन 15-16 लाख जॉब उत्पन्न हुए.

यही नहीं, 31 जनवरी को संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण में भी कहा गया कि ‘नवीनतम ईपीएफओ डेटा का विश्लेषण बताता है कि जॉब मार्केट के फॉर्मलाइजेशन में खासी तेजी आई है, जिसकी वजह नए फॉर्मल जॉब बढ़ना और मौजूदा नौकरी को फॉर्मल ढांचे में लाना दोनों हैं.


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‘डेटा एक त्रुटिपूर्ण संकेतक’

हालांकि, अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ईपीएफ डेटा एक त्रुटिपूर्ण संकेतक है यानी इससे रोजगार की सही तस्वीर का पता लगाना मुमकिन नहीं है, क्योंकि यह डेटा को कैसे दर्ज किया जाता है, इसकी तमाम सीमाएं हैं.

इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के प्रोफेसर आर. नागराज ने दिप्रिंट को बताया, ‘ऐसा लगता है कि ईपीएफ डेटा अप-टू-डेट और पूरा है लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. सबसे पहली बात तो ईपीएफ वास्तविक पे-रोल डेटा नहीं होता. पे-रोल का मतलब है वो हर व्यक्ति जिसे पे-चेक मिलता है. ईपीएफ केवल उन कुल नौकरीशुदा लोगों के बारे में बताता है जो ईपीएफ पर पंजीकृत हैं. यह पंजीकरण 20 या अधिक कर्मियों वाले कारखानों/कंपनियों पर लागू होता है.’

नागराज ने आगे बताया कि एक अपर लिमिट भी होती है, जिसमें 15,000 रुपये मासिक वेतन पाने वाले कर्मचारियों को ईपीएफ रोल में पंजीकृत होने की आवश्यकता नहीं है. उन्होंने कहा, ‘इसलिए, यह संगठित क्षेत्र के रोजगार का एक छोटा वर्ग है, जो कुल रोजगार का 10 प्रतिशत से भी कम है.’

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के प्रबंध निदेशक और सीईओ महेश व्यास ने बताया कि ईपीएफ उद्यमियों और उन लोगों पर भी लागू नहीं होता है जो अपना खुद का व्यवसाय करते हैं.

व्यास ने कहा कि न्यूनतम-कर्मचारियों की सीमा एक और समस्या को जन्म देती है, जो संभवत: मासिक आंकड़ों में एक कृत्रिम वृद्धि को दर्शाती है.

उदाहरण स्वरूप, व्यास ने बताया, ‘जब किसी कंपनी में 20 से कम कर्मचारी हों तो यह जरूरी नहीं है कि वह ईपीएफओ के तहत कर्मचारियों का पंजीकरण कराए. अब यदि आपके पास एक कंपनी है जिसमें 19 लोगों को रोजगार मिला है और इसमें एक और कर्मचारी जुड़ जाए तो फिर उन सबका ही पंजीकरण करा दिया जाएगा. इससे अंतत: ऐसा लगेगा कि आज 20 लोगों को संगठित क्षेत्र के रोजगार से जोड़ा गया है, जबकि वास्तव में केवल एक कर्मचारी को ही रोजगार मिला होगा.’

इसके अलावा, ईपीएफओ अपने डेटाबेस को जिस तरह मेंटेन करता है, उसमें एक और मुद्दा सामने आता है कि वह उन लोगों के बारे में कैसा डेटा रखता है जो नौकरी बदलते हैं या कुछ महीनों के बाद फिर से नौकरी करने से पहले अपनी नौकरी छोड़ देते हैं.

उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यक्ति नौकरी छोड़ देता है और अगले छह महीने से कम समय में किसी नए कार्यस्थल में पहुंच जाता है, तो ईपीएफओ बीच के महीनों को उसे बेरोजगार के तौर पर पंजीकृत नहीं करता है. ईपीएफ में योगदान न करने के छह महीने बाद ही कोई व्यक्ति ईपीएफओ रोल से बाहर निकल सकता है.

‘कई लोग रिटायरमेंट के बाद भी पैसा नहीं निकालते’

डेटा पर समस्या बढ़ाने वाला एक और कारण रेखांकित करते हुए व्यास ने बताया कि बहुत से लोग रिटायरमेंट के बाद अपना पैसा नहीं निकालते हैं क्योंकि ईपीएफ आकर्षक रिटर्न प्रदान करता है. अब अगर इसे ईपीएफओ के नजरिये से देखें तो ये लोग अभी भी नौकरीपेशा हैं.

वास्तव में, ईपीएफओ रोल में डेटा कलेक्शन को लेकर किस कदर खामियां है, इस पर भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री ने कथित तौर पर जनवरी 2018 में पीएम नरेंद्र मोदी को एक प्रेजेंटेशन दिया था जिसमें बताया गया था कि रोल में जहां 100 साल से अधिक उम्र के लोगों का नाम है. वहीं 18 वर्ष से कम उम्र के सदस्यों को भी दिखाया गया है.

प्रेजेंटेशन में कहा गया कि ईपीएफ डेटा में 30-40 फीसदी ‘अशुद्धि’ है, जिसका मतलब है कि केवल वही कुछ डेटा उपयोगी है, जिसमें हर फील्ड को ठीक से भरा गया है.

एक ऐसी स्थिति भी है जहां छोटी कंपनियां और कारखाने जानबूझकर ईपीएफओ के साथ पंजीकरण से बचते हैं क्योंकि इसमें कर्मचारियों की ओर से उन्हें भी ईपीएफ अंशदान देना होता है.

नागराज ने कहा, ‘यद्यपि यह (पंजीकरण) अनिवार्य है, इसका व्यापक स्तर पर उल्लंघन होता है. निचले स्तर पर श्रमिकों के एक से दूसरी जगह काम बदलने की गति काफी ज्यादा होती. इसलिए, कोई नहीं जानता कि इसमें से कितना डेटा दर्ज किया जा रहा है.’

दिप्रिंट ने यह समझने के लिए एमओएसपीआई से संपर्क साधा कि वह ईपीएफ डेटा का उपयोग कैसे करता है, क्या वह अर्थशास्त्रियों की इस बात से सहमत है कि डेटा को लेकर कई तरह की बाध्यताएं हैं, और वह इन त्रुटियों को दूर करने के लिए क्या कर रहा है. लेकिन यह स्टोरी प्रकाशित होने तक उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. जवाब मिलने पर रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

(अनुवाद: रावी द्विवेदी)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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