अब जबकि गुजरात में जारी चुनावी मुकाबला पिछले दो दशकों में सबसे फीका नजर आ रहा है, जिसकी शुरुआत 2002 में मोदी की पहली जीत के साथ हुई थी, तो आखिरकार यह हमारी राष्ट्रीय राजनीति की स्थिति के बारे में क्या बताता है? यह स्थिति, इस सबके बावजूद है कि एक नए उत्साहित खिलाड़ी के तौर पर आम आदमी पार्टी भी मैदान में ताल ठोंक रही है.
कुछ संभावनाएं तो स्पष्ट महसूस होंगी. जैसा कि लोगों, खासकर खुद को कमोबेश सबसे बुद्धिमान समझने वालों, को महसूस होता है कि उन्हें पता है कि नतीजा क्या होने वाला है. भाजपा आसानी से जीत जाएगी, विशेष तौर पर यह देखते हुए कि विपक्ष का वोट परंपरागत रूप से चुनौती देने वाली कांग्रेस और नई खिलाड़ी आप के बीच बंट जाएगा, तो फिर स्टोरी क्या है?
कांग्रेस के उदासीन रवैये को शायद इस तरह समझा जा सकता है कि पार्टी अपने तरकश के सारे तीर गुजरात में जाया नहीं करना चाहती, जहां उसे हालात खुद पर भारी पड़ते दिख रहे हैं. इसके बजाय वह अपने हथियारों को बड़ी लड़ाइयों के लिए बचाकर रखना चाहती है. और कभी किसी चुनाव को हल्के में नहीं लेने वाली भाजपा ने हमेशा की तरह प्रचार में पूरी ऊर्जा झोंक रखी है. फिर भी, हमें उस तरह की व्याकुलता नजर नहीं आ रही है जो 2017 में दिखी थी, जब एक समय कांग्रेस वास्तव में करीबी टक्कर दे रही थी. भाजपा की हरसंभव कोशिश यही है कि वह आम आदमी पार्टी के यहां मजबूती से अपने कदम जमाने से पहले ही उसको जड़ से उखाड़ फेंके.
भाजपा को अब पूरी तरह यह भरोसा होने लगा है कि पिछले एक दशक से जारी कांग्रेस का पतन अब उस मुकाम पर पहुंच चुका है, जिसके बाद उससे कोई खास खतरा रह नहीं जाता. वैसे यदि कांग्रेस सीन से गायब भी हो जाती है, जैसा दिल्ली, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हुआ, तो भी उसका निष्ठावान वोट आम तौर पर भाजपा के खाते में नहीं जाता है. वो हमेशा दूसरे ठिकाने तलाश लेता है. मसलन, ममता की टीएमसी, नवीन पटनायक की बीजेडी, या फिर अरविंद केजरीवाल की आप भी हो सकती है, जैसा दिल्ली और पंजाब में हुआ.
यदि आप गुजरात में 15 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर भी लेती है, तो क्या होने वाला है? अब तक, कांग्रेस लगभग तीन दशकों से गुजरात में भाजपा से लगातार हारती आ रही है, लेकिन उसका वोट शेयर स्थिर और अच्छा-खासा बड़ा—30 प्रतिशत से ऊपर—रहा है, यहां तक कि तब भी जब 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों कांग्रेस का सूपड़ा साफ करके मोदी ने राज्य की सभी सीटों पर जीत हासिल की. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 20 सीटों से भाजपा से पीछे रह गई थी, लेकिन उसका वोट शेयर 41.4 फीसदी रहा था.
राहुल गांधी की पदयात्रा का इस चुनाव क्षेत्र से न गुजरना और साथ ही पार्टी नेताओं का भी इस ओर से ध्यान भंग होना, कांग्रेस के वोट शेयर को जरूर चोट पहुंचा सकता है. इस सबके बीच भाजपा एक अजीब विरोधाभासी स्थिति में उलझी है. एक तरफ वह चाहती है कि आप को मिलने वाला कोई भी वोट सिर्फ कांग्रेस का ही होना चाहिए. वहीं, यह भी नहीं चाहती कि आप को इसका बहुत ज्यादा फायदा मिले. क्योंकि जहां एक ढहता प्रतिद्वंद्वी उसके लिए वरदान है, वहीं एक नए प्रतिद्वंद्वी का उभरना किसी बड़े खतरे से कम नहीं है.
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भाजपा के लोग भी इस बात को मानते हैं कि 2017 के चुनाव में राहुल गांधी की कांग्रेस ने कड़ी टक्कर दी थी और उसकी जीत की राह रोकने के एकदम करीब पहुंच गई थी. यह टच एंड गो वाली स्थिति नहीं थी, बल्कि मतदान की तारीखों से एक हफ्ते पहले तक लग रहा था कि कहीं मोदी की जीत का रथ थम न जाए. इन आशंकाओं का असर जीत के बाद मोदी की तरफ से अपनी पार्टी को दिए भावनात्मक संबोधन में भी दिखा, और हमने उस समय नेशनल इंट्रेस्ट के ही कॉलम में उनकी आंखों से छलके आंसुओं में छिपे राजनीतिक संदेश की व्याख्या करने की कोशिश की थी. आज उस तरह का तनाव नदारद है.
कांग्रेस का तात्कालिकता से कोई सरोकार न होना एक पेचीदा मसला है. आपको जो उत्तर मिलेगा, वो इस पर निर्भर करता है कि आप कांग्रेस में किससे बात कर रहे हैं. कुछ ऐसे अति-उत्साही मिल जाएंगे, जिनका दावा है कि हिमाचल और गुजरात दोनों में ज़बर्दस्त सरकार-विरोधी लहर है और कोई खास प्रयास किए बिना भी भाजपा की हार सुनिश्चित है, खासकर हिमाचल में.
वहीं, राहुल गांधी के सबसे करीबी भी हैं जिनका उनके बारे में तर्क होता है, देखिए, वह यथार्थवादी और समझदार हैं. उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि चुनावी मुकाबला यदि मोदी बनाम राहुल होता है तो भाजपा के लिए बेहतर रहता है. लिहाजा, राहुल ने फिलहाल खुद को रास्ते से हटा लिया है. यह एक सोची-समझी रणनीति है.
हालांकि, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि पार्टी ने अपनी लड़ाई की भावना या महत्वाकांक्षा ताक पर रख दी है. बल्कि ये भविष्य की लड़ाइयों के लिए खुद को मजबूत करने की एक बेहतर रणनीति का हिस्सा है.
पार्टी क्या सोचती है, इस पर गहरी समझ रखने वालों का तर्क होगा कि मोदी से लड़ने और हारने के बजाय राहुल 2024 के लिए स्पष्ट वैचारिक बायनरी के साथ एक बड़ी चुनौती देने की कवायद में लगे हैं. उदाहरण के तौर पर, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर श्रुति कपिला का यह कॉलम पढ़ें, जिनका तर्क है कि राहुल की सावरकर पर टिप्पणी इतिहास के बारे में नहीं है, वह 2024 चुनावों के लिए लाइन खींच रहे हैं.
राहुल खेमे की बात सुनने में भले अच्छी लगे, लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि राजनीति का चक्र बेहद क्रूर होता है. यह आपको घाव भरने देने के लिए कोई समय, कोई मध्यांतर नहीं देता. इसमें रणनीति बनाने के लिए कोई टाइमआउट नहीं होता. और जब आपके प्रतिद्वंद्वी मोदी और केजरीवाल की तरह ‘खांटी राजनीति’ करने वाले हों तो किसी ठहराव का मतलब यही माना जाएगा कि आपने हार मान ली है. अभी कोई 2024 की गर्मियों में बड़ी वापसी की उम्मीद के साथ फिलहाल गैप ईयर नहीं ले सकता.
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इस समय हो रहे दो राज्यों के चुनाव ऐसे हैं जहां लड़ाई हमेशा कांग्रेस और भाजपा के बीच होती रही हैं. इसमें से एक में अब आप ने खासकर कांग्रेस वोटों पर ही नजरें गड़ा रखी हैं. इसी से अगले 13 महीनों की दशा-दिशा भी तय होगी, जहां एक के बाद एक राज्य में कांग्रेस और भाजपा सीधे एक-दूसरे के खिलाफ उतरेंगी. अगला चुनाव कर्नाटक में होगा.
यद्यपि, तेलंगाना में तो कांग्रेस केसीआर को चुनौती देने की स्थिति में नहीं बची है, जहां भाजपा तेजी से उभरी है. लेकिन साल के अंत में तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में इसका भाजपा के साथ सीधा मुकाबला होगा. इनमें से पहले दो राज्यों में केवल कांग्रेस पार्टी का ही शासन है (झारखंड की तरह गठबंधन नहीं है). पार्टी के लिए यहां बहुत कुछ दांव पर लगा है.
दो दशकों की राजनीतिक सीख हमें यह बताती है कि मध्य क्षेत्र के इन तीन प्रमुख राज्यों के चुनावी नतीजे करीब छह माह बाद होने वाले आम चुनावों की दशा-दिशा बताने के लिए कोई वास्तविक संकेतक नहीं हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा ने 2003 में यहां मिली जीत को इंडिया शाइनिंग का संकेत माना और नए और बड़े जनादेश की उम्मीद के साथ समय से पहले लोकसभा चुनाव करा दिए. और उसमें मिली हार किसी से छिपी नहीं है. 2018 में कांग्रेस ने तीनों राज्यों में जीत हासिल की (शुरुआत में मध्य प्रदेश में भी बनाई थी) लेकिन फिर राष्ट्रीय चुनावों में उन्हीं राज्यों में उसका सफाया हो गया.
भाजपा जानती है कि वह यहां एक और झटका झेल सकती है क्योंकि आम चुनाव पूरी तरह मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा, जो कि उनके तीसरे कार्यकाल के लिए होगा. कांग्रेस के लिए, इनमें से किसी भी राज्य को गंवाने का मतलब होगा 2024 के लिए संभवत: सबसे खराब मोर्चेबंदी. वह अपने कार्यकर्ताओं के उत्साह कैसे भरेगी और कैसे उन्हें अपने प्रति निष्ठावान बनाए रख पाएगी? संसाधन कहां से आएंगे?
इस कॉलम में इतने सारे सवालों को उठाने का कारण यह भी है कि हमारी राजनीति में एक साथ कई बदलाव दिख रहे हैं. तात्कालिक जरूरतें हैं, रणनीतियां बदल रही हैं और नए सिरे से मोर्चेबंदी हो रही है. कर्नाटक में चुनावों के साथ 2023 की पहली छमाही में राष्ट्रीय राजनीति को एक नई गति मिलेगी.
फिलहाल, कांग्रेस के लिए गुजरात की तुलना में कर्नाटक कहीं बेहतर संभावनाएं जगाता है. वहां भाजपा सरकार लड़खड़ा चुकी है, अंदरुनी कलह से त्रस्त है और यह मोदी और अमित शाह का अपना राज्य भी नहीं है. मैं राहुल खेमे के इस विचार से कतई सहमत नहीं हूं कि वह अपनी सारी ऊर्जा आम चुनाव के लिए बचाकर रख रहे हैं. बल्कि यह संभावना अधिक है कि उनकी पार्टी ऐसा मान रही हो कि गुजरात जहां बेहद चुनौतीपूर्ण है, वहीं गुजरात के आकार के ही एक अन्य राज्य कर्नाटक में जीत के आसार ज्यादा प्रबल होंगे.
यह जीत—अगर हासिल होती है तो—ब्रांड राहुल को फिर से लॉन्च करने का एक अच्छा अवसर बन सकती है. आखिरकार, 2018 की सर्दियों के बाद से उन्होंने अपनी अलमारी में सजाने के लिए कोई नई ट्रॉफी हासिल नहीं की है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
(अनुवादः रावी द्विवेदी)
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