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Wednesday, 27 March, 2024
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क्यों फौज जमीन पर कब्जा जमाने से ज्यादा राजनीतिक मकसद पूरा करने का जरिया है

पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल एम.एम. नरवणे कहते हैं कि किसी भी युद्ध का अंतिम लक्ष्य जमीन पर अपना नियंत्रण कायम करना ही होता है, लेकिन सबसे अहम है राजनीति.

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सबसे पहले, अभी-अभी रिटायर हुए सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे के प्रति ढेर सारा आभार कि उन्होंने यह बहस शुरू की कि भारत यूक्रेन युद्ध से क्या-क्या सीख सकता है और उसे क्या-क्या सीखना चाहिए. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में उन्होंने जो प्रमुख लेख लिखा है उसमें उनकी बुद्धिमानी, साफ़गोई और यथार्थपरकता झलकती है.

सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि उन्होंने रणनीति पर काम करने वाले पूरे समुदाय को विचार करने के लिए कई मुद्दे सुझाए हैं. इसलिए उनका यह लेख आदर्श वैचारिक लेख है. इसकी खास वजह यह है कि यह एक ऐसे जाने-माने व्यक्ति का लेख है जो न केवल अपने क्षेत्र का शीर्ष विशेषज्ञ है बल्कि आज के समय के साथ यथासंभव जुड़ा हुआ है. एक असैनिक होते हुए उनसे बहस में जुड़ने की धृष्टता के एहसास से मैं गंभीर हो रहा हूं. लेकिन यह बहसप्रेमी भारतीय कम-से-कम उनसे उम्र में कुछ साल बड़ा तो है ही. बेशक, हम समय की ही बात कर रहे हैं.

जनरल नरवणे ने चार जरूरी सबक गिनाए हैं—

– समय के साथ युद्ध के मैदान का स्वरूप भी बदलता रहा है. अगर आप प्रथम विश्व युद्ध से शुरू करें तो टैंक का आविष्कार खंदकों की लड़ाई से पैदा होने वाले गतिरोध को तोड़ने के लिए किया गया था. इससे पहले, मशीनगन का आविष्कार घुड़सवार सेना को नाकाम करने और सैनिकों को खंदकों में भेजने के लिए किया गया था.

– 20वीं सदी में टैंक और टैंकरोधी हथियारों के बीच कांटे की टक्कर देखी गई. यूक्रेन में यह लड़ाई एक अलग ही स्तर पर पहुंच गई.

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– किसी-न-किसी तरह के ड्रोन पहली बार 1990 के दशक के अंत में नज़र आए और सैन्य वैज्ञानिकों और उद्योग जगत को उन्हें युद्ध का हथियार बनाने में ज्यादा समय नहीं लगा. अब यूक्रेन युद्ध ने दिखा दिया है कि वे कितने विनाशकारी हो सकते हैं.

– खास तौर से यूक्रेन युद्ध के नजरिए से देखें तो अत्याधुनिक युद्ध बड़े बख्तरबंद औजारों, बड़े युद्धपोतों, मानव चालित लड़ाकू/लक्ष्यभेदी विमानों के भविष्य पर बड़े सवाल खड़े कर रहा है.

हम इन चारों मुद्दों पर विस्तार से चर्चा कर सकते हैं, खासकर इसलिए कि जनरल नरवणे भी कह रहे हैं कि तकनीकी बदलाव प्रायः पहले आता है और इसके बाद सैन्य नेतृत्व समय के मुताबिक उनका उपयोग करता है. लेकिन क्या हमेशा ऐसा होता है? जवाब है— हमेशा ऐसा नहीं होता. प्रथम विश्व युद्ध का इतिहास जनरलों, खासकर ब्रिटिश जनरलों की दुखद कहानियों से भरा पड़ा है, जो उस समय मशीनगनों की गोलियों की बौछार के बीच घुड़सवार सेना को झोंक रहे थे. और ऐसे युद्ध में बेशक उपनिवेशों, खासकर भारत के सैनिकों का ही सबसे ज्यादा नुकसान होता था.

लापरवाह, आलसी, अहंकारी, और शायद परिवर्तन के प्रति असंवेदनशील सैन्य नेतृत्व (मुख्यतः ब्रिटिश) की ऐसी भयंकर भूलों के कारण ही क्रीमियाई युद्ध (1853-56) से लेकर बोअर युद्ध (1899-1902) तक कई सैन्य आपदाएं आईं व दो विश्व युद्ध हुए. इन सबने ही नॉर्मन डिक्सन को अपनी क्लासिक किताब ‘ऑन द साइकोलॉजी ऑफ मिलिटरी इनकंपिटेंस’ लिखने को प्रेरित किया.


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चूंकि डिक्सन ने कुछ खुले दिमाग वाले अंग्रेजों के बारे में लिखा, इसलिए उन पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया गया. उनकी किताब आज भारत समेत तमाम देशों की सैन्य अकादमियों में पाठ्यपुस्तक की तरह पढ़ाई जाती है. मैंने भी इस किताब की कई प्रतियां देहरादून में खरीदी थी, और उन सभी युवा पत्रकारों को भेंट करता रहा हूं, जो सैन्य क्षेत्र को कवर करना चाहते हैं. उन्हें मैं बेशक केवल यही नहीं देता. मैं चाहता हूं कि वे ‘दोनों’ पक्ष को समझें. ईमानदार बहसों से ही महान राष्ट्र और सर्व विजयी सेना का निर्माण होता है. इसलिए इसे मूल सबक मानना चाहिए. मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि सेनाएं कभी-कभी परंपराओं से इतनी चिपकी और बौद्धिक रूप से इतनी एकांगी होती हैं कि वे परिवर्तन के मामले में सुस्त हो जाती हैं, हमेशा तेजी नहीं दिखातीं.

दूसरे मुद्दे, टैंकों के बारे में बात करें. ‘दप्रिंट’ के डिफेंस एडिटर स्नेहेश एलेक्स फिलिप ने गहरे शोध के बाद यह लेख लिखा है कि यूक्रेन युद्ध टैंकों से लड़ी जाने वाली लड़ाई को लेकर क्या सबक सिखाती है.

इससे हम यह सबक भी सीख सकते हैं कि सोवियत युग का यह रूसी सिद्धांत कितने खतरनाक रूप से पुरातन पड़ चुका है, जिसमें बड़ी संख्या में बख्तरबंद वाहनों और विशाल फौज के साथ यूरोप के मैदानों को रौंदा जाता था. खुले खुफिया स्रोत वीडियो और तस्वीरों के साथ पुष्टि करते हैं कि रूस के अपने करीब 1500 टैंक नष्ट हुए हैं और इससे दोगुनी संख्या में दूसरे बख्तरबंद वाहन नष्ट हुए हैं.

यह तब है जब टैंक-बनाम-टैंक कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ. यूक्रेन ने नज़र में न आने की पूरी सावधानी बरती है. वे प्रायः नेपथ्य में रहकर लक्ष्यों की पहचान के लिए ड्रोन और उपग्रह संचार सेवा का उपयोग करते रहे हैं और दूर तक मार करने वाले टैंकों या टैंक-रोधी मिसाइलों से या अमेरिकी जेवलिनों अथवा ब्रिटिश ‘एनलॉज़’ से लैस छोटे छापामार दस्तों से हमले करते रहे हैं. दुनिया रूस के जिन बख्तरबंदों से सात दशकों तक खौफ खाती रही वे पुरातन साबित हुए हैं.

अब जरूरत है नॉर्मन डिक्सन की किताब के नये संस्करण की, जो रूसी जनरलों की नाकामी का विश्लेषण करे कि वे दीवारों पर लिखी इबारत को क्यों नहीं समझ पाए. उन्हें एक साल से पहले ही तब चेतावनी मिल गई थी जब अज़रबैजान ने उन्हीं तुर्क ड्रोनों का इस्तेमाल करके आर्मेनिया के बख्तरबंदों, तोपों, और रडारों को 72 घंटे के भीतर तहस-नहस कर डाला और अपने सैनिकों को ज्यादा संख्या में मोर्चे पर भेजे बिना जंग जीत ली थी. यह सब रूस से ज्यादा दूरी पर भी नहीं हुआ था.

दोनों सोवियत संघ के हिस्से थे और एक ही स्रोत से हासिल साजो-समान, प्रशिक्षण और सिद्धांत का इस्तेमाल कर रहे थे. आर्मेनिया को एक तरह से रूस का संरक्षण हासिल था और आज भी है. अज़रबैजान तेज था, उसने बदलाव को भांप लिया और वह लड़ाई को जमीन से आसमान में ले गया, जो लगभग पूरी तरह मानव रहित ड्रोनों और घुमंतू जंगी सामान पर आधारित थी.

रूसी जनरलों के पास इस पर मंथन करने के लिए एक साल से ज्यादा समय था. क्या उन्होंने कोई सबक लिया, या बदले? लेकिन उन्होंने वही किया जो सौ साल पहले ब्रिटिश जनरलों ने किया था. छोटी-सी बात यह है कि सेनाएं बदलती हैं लेकिन इसमें ज्यादा समय लेती हैं. बहुत कुछ गंवा देने के बाद. यानी रूसी सेना मुख्यालय तो यही गाना गाए—सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया…

अब चौथी बात. 40 साल से ज्यादा हो गए जब नई, कम लागत वाली उपयोगी मिसाइलों ने फाकलैंड्स युद्ध में विशाल युद्धपोत की कमजोरी को उजागर कर दिया था. ब्लैक सी में अग्रणी रूसी युद्धपोत ‘मोस्क्वा’ को डुबोए जाने की घटना बताती है कि उसके बाद से मिसाइलों की उपयोगिता और बढ़ी है.

और अब रूस के सबसे सुरक्षित नौसैनिक अड्डे सेवस्तोपोल पर समुद्री ड्रोन के हमले से साफ है कि अगर आपके पास विशाल समुद्री क्षेत्र या जमीनी इलाके को मिसाइलों के हमलों से सुरक्षा प्रदान करने का इंतजाम नहीं है, तो किसी प्रकार के पोत, मूल परिसंपत्तियां बोझ ही साबित हो सकती हैं, वे लागत के मुक़ाबले ज्यादा लाभ देने वाले तो नहीं ही साबित हो सकते हैं.

यही बात पायलट द्वारा उड़ाए जाने वाले विमानों पर लागू होती है. कोई शक हो तो रूसियों से पूछिए कि उनकी शक्तिशाली वाउसेना यूक्रेन के आसमान में अब घुसने की हिम्मत क्यों नहीं कर पा रही है. क्योंकि आपके पास इलेक्ट्रॉनिक यंत्र इतने शक्तिशाली नहीं हैं कि मिसाइलों को भागा सकें, या आपके पास सुरक्षित दूरी से मार करने वाले बराबरी के हथियार नहीं हैं. इस मामले में ज्यादा जानकारी के लिए स्नेहेश एलेक्स फिलिप की सीरीज़ पढ़िए. दोनों पक्षों की मिसाइलों के अनुभवों के बारे में उनकी सीरीज़ की तीसरी कड़ी अगले सप्ताह के शुरू में प्रकाशित की जाएगी. समुद्र और हवा से वही सबक मिल रहे हैं जो जमीन पर लड़ाई से मिल रहे हैं. अपनी तमाम बहुप्रचारित अकादमियों और युद्ध इतिहास के बावजूद रूस परिवर्तन को अपनाने में विफल रहा है.

जनरल नरवणे ने निष्कर्ष में अपनी मूल बात कही है. वह यह कि आप चाहे जो चाल चलें, जो सिद्धांत अपनाएं, या जो हथियार इस्तेमाल करें, किसी भी युद्ध का अंतिम लक्ष्य सीमा क्षेत्र पर अपना नियंत्रण कायम करना ही होता है. उन्होंने लिखा है, ‘अगर युद्ध का लक्ष्य राजनीतिक मकसद पूरा करना है तो वह जमीन पर कब्जे में ही परिवर्तित होता है.’ अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए वे नैन्सी पेलोसी को ताइवान का दौरा करने से रोक पाने में चीन की असहायता का उदाहरण देते हैं. काश कि चीन का जमीन पर नियंत्रण होता. हम यहां संक्षेप में तीन बातें रखने की हिम्मत कर रहे हैं—

– अगर माओ और उनकी पीएलए के पास अच्छी नौसैनिक और हवाई परिसंपत्तियां होतीं तो क्या च्यांग काइ-शेक ताइवान से पलायन कर पाता?

– जब तक चीन इतनी शक्तिशाली नौसेना नहीं बना लेता कि अमेरिका को सावधान कर सके, ताइवान और उसके मित्रों से आसमान छीनने लायक वायुसेना नहीं बना लेता तब तक क्या वह उस द्वीप को जीत पाएगा?

और अंत में, क्या च्यांग और कुओमिन्तांग अमेरिकी मदद के बिना ताइवान पलायन कर पाते? क्या पेलोसी अमेरिका और उसके मित्रों के संरक्षण के बिना वहां कदम रख पातीं? क्या चीन अमेरिका की तीसरी सबसे ताकतवर हस्ती को ले जा रहे विमान को मार गिरने की हिम्मत कर सकता था? उसके केवल सैन्य नतीजे ने ही उसे यह करने से नहीं रोका.

हमारा निष्कर्ष यह है कि आज की दुनिया में, या चीनी क्रांति के दौरान भी देशों और गठबंधनों के बीच राजनीति ही अहम होती है. फौज अपना राजनीतिक मकसद जताने का एक जरिया है, और जरूरी नहीं कि वह मकसद हमेशा जमीन पर कब्जा करना ही हो.

(संपादनः इंद्रजीत)
(अनुवादः अशोक)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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