आज से करीब 25 साल पहले एक ऐसा दौर था जब बिहार मर्डर, डकैती और अपहरण जैसी वारदातों के लिए देशभर में कुख्यात था. हर दिन वहां अपराध से जुड़ी कोई न कोई खबर सुर्खियों में रहती. बिहार से बाहर पढ़ाई के लिए न केवल बच्चे बहुत तेजी से पलायन कर रहे थे बल्कि पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर बनने वालों से लेकर संभ्रात लोग तक बिहार जाने से कतराते थे कि पता नहीं कब उनका या फिर उनके परिवार के किसी सदस्य का अपहरण हो जाए. जरा-सी बात पर पता नहीं कौन गोली मार दे. ऐसे में किसी ने शायद सोचा भी नहीं होगा कि वो दुबला पतला-सा 5.8 इंच लंबा आईपीएस अधिकारी अमित लोढ़ा अपराधियों को धूल चटा देगा.
1997 बैच के आईपीएस अमित लोढ़ा बताते हैं, ‘हालांकि, बिहार के अपने कुछ दोस्तों से वहां के बारे में किस्से सुन रखे थे लेकिन यह पता नहीं था कि हालात इतने खराब होंगे.’ लोढ़ा के ही शब्दों में, ‘यह जगह मेरी जन्मभूमि राजस्थान से सैकड़ों किलोमीटर दूर थी, लेकिन किसी भी अन्य युवा अधिकारी की तरह मैं जोश से लबरेज था और वहां जाते समय बस यही सोच रहा था कि मैं अपनी कर्मभूमि में क्या-क्या कर सकता हूं.’
25 साल की उम्र में बिहार पहुंचे लोढ़ा की पोस्टिंग बिहार के हर उस जिले में की गई जहां अपराध चरम पर था या जो अपराधियों के गढ़ माने जाते थे. चाहे वो नालंदा हो या बेगूसराय या फिर बात करें शेखपुरा, मुजफ्फरपुर और गया की. 2006 में शेखपुरा के गब्बर सिंह कहे जाने वाले अशोक महतो और उसके साथी पिंटू महतो को जेल पहुंचाकर तो उन्होंने वो कर दिखाया जिसकी हिम्मत बड़े-बड़े पुलिसवाले नहीं कर पाए थे.
मैचलेस, ईमानदार और पब्लिक ऑफिसर
बिहार के लिए वो कठिन दौर था. पुलिस लाचार थी. अपराधी बेहद शातिर लेकिन उस दौरान लोढ़ा के बॉस रहे बिहार पुलिस के पूर्व डीजी एस.के. भारद्वाज कहते हैं, ‘उसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती. वह मैचलेस है. वह ईमानदार अधिकारी होने के साथ-साथ पब्लिक ऑफिसर है.’
अमित ने अपने 25 साल के करियर को दो किताबों की शक्ल में सामने रखा है. इसमें से एक किताब बिहार डायरीज पर बॉलीवुड के जाने-माने निर्देशक नीरज पांडेय की नजर पड़ी तो उन्होंने इस पर वेबसीरिज बनाने का फैसला किया और जो आज नेटफ्लिक्स पर रिलीज होने वाली है. खाकी—द बिहार चैप्टर में आईपीएस लोढ़ा की भूमिका करण टैकर निभा रहे हैं. बिहार की सच्ची घटनाओं पर केंद्रित कहानियों को स्क्रीन प्ले की शक्ल देने वाले उमाशंकर सिंह भी सहरसा (बिहार) के है.
उमा शंकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘किताब बिलकुल डायरी की शक्ल में लिखी गई है. लेकिन इसके इंसीडेंट इतने जबरदस्त थे कि इस पर कहानी बुनने और सजाने में बहुत मजा आया.’ उमा बताते हैं कि एक समय बिहार में चोरी, डकैती और अपहरण जैसे घटनाएं अक्सर नेशनल मीडिया में छाई रहती थीं. उस दौर की घटनाओं के बारे में थोड़ा रिसर्च किया और कहानी लिखने में काफी क्रिएटिव लिबर्टी भी ली है. फिर भी रीयल इंसीडेंट को काफी करीब से दिखाने वाली इस वेबसीरिज के बारे में उन्हें उम्मीद है कि यह दर्शकों को काफी पसंद आएगी.
बिहार डायरीज के पर्दे पर आने की तैयारी के साथ ही अमित लोढ़ा की जांबाजी के किस्से एक बार फिर सुर्खियों में है. कैसे उन्होंने बिना समय गंवाए दुर्दांत से दुर्दांत अपराधियों से मोर्चा लिया. अशोक महतो और उसके साथी पिंटू महतो की गिरफ्तारी उनके करियर की बड़ी सफलताओं में शुमार है. 2000-2006 के बीच शेखपुरा के गब्बर सिंह कहे जाने वाले अशोक महतो गैंग ने पूरे इलाके में कोहराम मचा रखा था.
लोढ़ा बताते हैं, ‘भूमिहार और कोइरी जातियों के बीच जंग जैसी स्थिति बनी हुई थी. 2005 में यहां गैंगवार में दो रातों में 15 से भी ज्यादा लोग मारे गए थे.’ क्षेत्र में आतंक के पर्याय बन चुके अशोक महतो और पिंटो पर 40 से अधिक लोगों की हत्या का आरोप था, जिसमें एक पूर्व सांसद राजो सिंह, एक खंड विकास अधिकारी और तीन पुलिस वाले की शामिल थे.
नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री पद संभालने के कुछ ही समय ही अमित लोढ़ा को शेखपुरा भेजा गया. वह बताते हैं, ‘अशोक महतो गैंग पर काबू पाने की जिम्मेदारी के साथ मुझे मई 2006 में नालंदा से शेखपुरा भेजा गया. और 13 अगस्त को यानी तीन महीने के अंदर ही यह खूंखार अपराधी मेरी गिरफ्त में था.’ उन्होंने अशोक महतो के साथ पिंटू महतो को भी जेल की सलाखों के पहुंचाया, जो 2002 में नालंदा जेल ब्रेक कांड के कारण भी सुर्खियों में रहा था.
लोढ़ा अपनी इस सफलता का श्रेय महकमे के अधिकारियों के साथ-साथ अपने जूनियर साथियों से हर कदम पर मिले सहयोग को भी देते हैं. साथ ही बताते हैं कि कैसे अपराधियों की तरह ही सोचने के तरीके ने उनकी मदद की. खासकर अशोक महतो का जिक्र करते हुए लोढ़ा कहते हैं, ‘ये केस हाथ में लेने के बाद मैंने सबसे पहले यही सोचा था किर आखिर अशोक महतो क्या सोचता होगा, उसका अगला कदम क्या हो सकता है.’ लोढ़ा के मुताबिक, पिंटू महतो तो जेल से रिहा हो चुका है लेकिन अशोक महतो अभी भागलपुर की एक जेल में बंद है.
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भविष्यवाणी सही साबित हुई लेकिन….
अपनी जिंदगी से जुड़ा एक रोचक किस्सा सुनाते हुए अमित लोढ़ा बताते हैं कि जब वह छोटे ही थे तो किसी ज्योतिषी ने उनकी मां को बताया था कि उनका बेटा अपराध की दुनिया में बड़ा नाम करेगा. इसके बाद तो उनकी मां को यही डर सताने लगा था कि कहीं उनका बेटा अपराधी ही न बन जाए. बहरहाल, यह भविष्य काफी हद तक सही साबित हुई, और उन्होंने बतौर आईपीएस अफसर बड़े-बड़े अपराधियों की नकेल कसकर तो नाम कमाया ही, अब उनकी जिंदगी पर आधारित वेबसीरिज भी जल्द ही लोगों के सामने होगी.
बहरहाल, सैकड़ों खूंखार अपराधियों से जुड़े मामले सुलझा लेने वाले अमित लोढ़ा की जिंदगी किताब पढ़कर जितनी फिल्मी लगती है, उससे कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण रही है. वह बताते हैं कि अपराधियों को पकड़ने की मुहिम के दौरान दो बार न सिर्फ उनकी जान पर बन आई बल्कि परिवार को लेकर धमकियां भी झेलनी पड़ीं. लेकिन अपराधों पर काबू पाने के अपने जुनून के आगे उन्होंने इस सबकी कभी परवाह नहीं की.
84 बैच के आईपीएस रहे भारद्वाज कहते हैं वह एक ‘कंपलीट ऑफिसर’ है. दिप्रिंट से करीब 15 मिनट की बातचीत में भारद्वाज ने तारीफ करते हुए कहा कि उन्हें लोढ़ा पर गर्व है. वह बताते हैं, ‘जब अमित एसपी नालंदा बना तो मैं आईजी ऑपरेशनंस था. फिर बेगूसराय और फिर गया..हर जगह मैं उसका बॉस रह. कई बार उसके तुरंत निर्णय लेने की वजह से नाराज भी हुआ लेकिन उसकी ‘ऑनेस्टी’ के आप कायल होते जाते हैं.’
1997 बैच के अधिकारी लोढ़ा करीब 16 सालों तक बतौर आईपीएस बिहार के विभिन्न जिलों में तैनात रहने के बाद डेपुटेशन पर बीएसएफ पहुंचे. उन्होंने वहां पर 2013 से 2020 के बीच अपनी सेवाएं दी. बीएसएफ में डीआईजी पद पर रहा यह जांबाज अधिकारी फिलहाल स्टेट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में आईजी के पद पर तैनात है.
अमित लोढ़ा ने अपनी जिंदगी और कैरियर में तमाम उतार-चढ़ाव देखे और विवादों के घेरे में भी आए. अपनी किताब पर फिल्म बनने को लेकर कॉपीराइट मामले और भ्रष्टाचार को लेकर अपने ही महकमे के साथियों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर इन दिनों उनके खिलाफ आर्थिक अपराध शाखा की जांच चल रही है. दरअसल, पिछले दिनों शराब माफिया से जुड़े एक मामले में उनकी तरफ से की गई जांच में एक अन्य आईपीएस आदित्य कुमार को भ्रष्टाचार में लिप्त बताया गया था. इसे लेकर ऐसी खबरें भी सुर्खियों में आईं कि जब आदित्य कुमार गया में एसपी थे तब लोढ़ा वहां आईजी थे. इस दौरान दोनों अफसरों में बनती नहीं थी. इस जांच की इसी तनातनी का नतीजा बताया गया. हालांकि, इस मामले में आदित्य कुमार फिलहाल फरार चल रह हैं.
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दिलेरी ने पहचान के साथ-साथ सम्मान भी दिलाया
लोढ़ा की हमेशा यही कोशिश रही है कि वो एक ऐसे अफसर बने जिस तक पहुंचना सबके लिए आसान हो. 2000 तक जिले का एसपी होते हुए भी लोढ़ा के पास मोबाइल फोन नहीं था. लेकिन वो लैंडलाइन पर आने वाला हर फोन खुद ही उठाते थे, भले ही रात के तीन क्यों न बजे हों. अमित को करीब से जानने वाले बताते हैं कि उनकी आदत रही है कि क्राइम स्पॉट पर भी खुद ही सबसे पहले पहुंचते थे. इसका फायदा उन्हें केस को समझने से लेकर सुलझाने तक में होता रहा है.
अपनी कार्यशैली से जुड़े एक वाकये का जिक्र करते हुए अमित बताते हैं कि उनकी नालंदा पोस्टिंग के दौरान 2000 में जिले में अपहरण की घटनाएं काफी ज्यादा हो रही थीं. उसी दौरान एक बार एक रिक्शेवाले का अपहरण हुआ और एक विदेश से आए बिहारी डॉक्टर का भी. पुलिस महकमा दबाव में था. अमित बताते हैं, ‘मैं यह सोच ही रहा था कि रिक्शेवाले का कोई क्यों अपहरण करेगा..इसकी जांच कैसे करें. तभी मुझे एक मुखबिर का फोन आया कि एक जगह कुछ लोग रुके हैं उनकी गतिविधियां सही नहीं लग रही हैं.’
रात के 3 बजे फोन पर यह सूचना मिलते ही अमित आनन-फानन में अपनी टीम के साथ उस जगह पहुंच गए और कुछ देर मुठभेड़ के बाद बदमाशों पर काबू पाने में सफल रहे. जब वो अंदर रिक्शेवाले को ढूंढने के लिए घुसे तो अंधेरी कोठरी में सूट बूट टाई वाला एक आदमी मिला जो पुलिस वाले को देखते ही उनसे लिपटकर फूट फूटकर रोने लगा. वो डॉक्टर साहब थे. हालांकि, उसी दिन रिक्शेवाले का भी पता चल गया लेकिन डॉक्टर साहब को छुड़ाने की खबर अखबारों की सुर्खियां बनी.
यह जोशीला नौजवान खूंखार अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए कदम-कदम पर जोखिम लेने से कतई नहीं घबराता था और जिस केस में हाथ डालता केस सॉल्व किए बिना दम न लेता. 2008 में उन्हें ऐसी ही एक बड़ी सफलता तब मिली जब रामपुर पुलिस स्टेशन क्षेत्र में नौ नक्सलियों को गिरफ्तार कर जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाया. उन्हें इसके लिए पुलिस मेडल फॉर गैलेंट्री अवार्ड से भी सम्मानित किया गया.
किसी के लिए ‘रोल मॉडल’ तो किसी के ‘कूल कमांडर’
हमेशा सतर्क और चौकन्ने रहने वाले आईपीएस अमित लोढा कई अधीनस्थ अधिकारियों और सबऑर्डिनेस्ट्स के लिए रोल मॉडल हैं. जैसलमेर बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स में पोस्टेड सिक्योरिटी गार्ड हों या फिर अधिकारी वह लोढ़ा को फिर वापस अपने बॉस के तौर पर देखना चाहते है. उनके साथ काम कर चुके एक अधिकारी राघवेंद्र कुमार मिश्रा, जो फिलहाल दिल्ली पुलिस में हाउसिंग को-ऑरपरेशन में पोस्टेड हैं, बताते हैं, अमित लोढ़ा एक ‘कूल कमांडर’ हैं. वह ‘फुल ऑफ पॉजिटिविटी’ हैं, जो जब अपने अधीनस्थों से कहते ‘मुझे तुमपर पूरा भरोसा है हमारा सीना चौड़ा हो जाता था.’
मिश्रा बताते है कि अपने 22 वर्षो के करियर में जिनता कुछ उन्होंने 2016 से लेकर सितंबर 2020 तक अमित लोढा के साथ काम करके सीखा, उतना शायद और कभी नहीं सीखा. उनके साथ रहकर ही पता चला कि कमांडर को कभी पैनिक नहीं होना चाहिए. बल्कि उसका काम अपने नीचे वालों में विश्वास भरना और उनकी छोटी-मोटी जरूरतों का ध्यान रखना होता है.
बीएसएफ में उनके साथी रहे राघवेंद्र बताते हैं, जब डीआईजी अमित बीएसएफ में अपनी सेवाएं देने के बाद पटना लौट रहे थे तो हर अधिकारी और जवान की आंखें नम थी, वो उन्हें बहुत मिस करने वाले थे. आखिरकार, उनसे पहले किसी अधिकारी ने जैसलमेर बॉर्डर—जहां पारा अमूमन 50 डिग्री सेल्सियल के पार पहुंच जाता है—में तैनात जवानों के बारे में इतना नहीं सोचना था. वो अमित ही थे जिन्होंने बॉर्डर पर तैनात जवानों के लिए बेहतरीन गॉगल्स के बारे में सोचा.
जैसलमेर में अमित लोढ़ा की पोस्टिंग के दौरान बीएसएफ के डीजी रहे के.के. शर्मा बताते हैं, ‘अमित ने बीएसएफ में मेरे साथ काम किया है. वह एक आउटस्टैंडिंग और बैलेंस्ड अफसर है. उनकी ऑपरेशनल परफॉर्मेंस हमारे लिए किसी असेट से कम नहीं थी.’ शर्मा ने बताया कि उन्होंने सीमा सुरक्षा के लिए प्रौद्योगिकी की मदद से नए तरीके खोजने की पहल की. साथ ही बल के लिए फाइनेंशियल लिटरेसी प्रोग्राम जैसी कल्याणकारी स्कीम पर भी अमल किया.
शर्मा के मुताबिक, वह आईआईटी से पढ़े हुए हैं तो अपनी स्किल का इस्तेमाल गृह मंत्रालय के लिए भारत के वीर जैसी एप बनाने के लिए भी किया ताकि लोग शहीदों के परिवारों को सीधे डोनेट कर सकें. वह लोगों के बीच जागरूकता के लिए लगातार यात्राएं भी करते रहे हैं. खुद अमित को भी अपनी ‘भारत के वीर’ पहल पर गर्व है. उन्होंने फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के साथ मिलकर इसके लिए 350 करोड़ रुपये जुटाए थे.
डिप्रेशन, वर्दी से प्यार, नया जज्बा
हालांकि, अमित हमेशा से न तो कूल थे और न पॉजिटिव. उनकी लाइफ में एक दौर ऐसा भी था जब उनके मन में सुसाइड करने की भावना भी आई थी. सेंट जेवियर स्कूल, जयपुर में पढ़ाई के दौरान अमित इंट्रोवर्ट, शर्मीले, चुपचुप और अकेले-अकेले रहने वाले हुआ करते थे. हालांकि, बचपन से ही स्क्वैश खेलना हमेशा उन्हें आगे बढ़ने में मदद करता था.
पढ़ाई में बढ़िया थे. उनकी मैथ्स और फिजिक्स अच्छी थी जिस वजह से आईआईटी पास कर गए. देश के नंबर एक माने जाने वाले आईआईटी दिल्ली में एडमिशन मिला. लेकिन इंजीनियरिंग बिलकुल समझ नहीं आ रही थी..उसमें रुचि नहीं थी. चूंकि पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था तो नंबर भी नहीं आ रहे थे. स्कूल में हमेशा टॉप करने वाला छात्र अब कॉम्पलैक्स में जी रहा था.
अमित उन दिनों को याद करते हुए थोड़ा शर्मा जाते हैं. वह कहते हैं, ‘उस दौरान मुझे सभी अच्छे लगते थे सिवाये खुद के. मैं डिप्रेशन में था. दब्बू होता जा रहा था..मुझे लगता कि मैं सबसे ज्यादा बदसूरत हूं. पर्सनालिटी भी अच्छी नहीं थी.’ ये वो समय था जब उनके दोस्त तो बन जाते लेकिन कोई उन्हें अपनी किसी पार्टी का हिस्सा नहीं बनाना चाहता था. अमित बताते हैं, ‘कोई मुझे अपने साथ कहीं ले नहीं जाना चाहता था.’
अच्छे स्क्वैश खिलाड़ी रहे अमित के मुताबिक, ‘आईआईटी में होने वाले हर टूर्नामेंट में फेल्योर का सामना करना पड़ रहा था. इस वजह से कई बार तो मन में सुसाइड करने तक की बात आई.’ आईआईटी जैसे-तैसे पास करने के बाद जब घर पहुंचे तो उन्होंने कमरे से निकलना तक बंद कर दिया. न सोकर उठने का समय था न सोने का. परिवार वाले भी समझा-समझाकर हार गए. अमित बताते हैं, ‘लेकिन समय बदला और कुछ दोस्तों ने जोश दिलाया. मां भी रोज-रोज कुछ न कुछ करने को प्रेरित करती रहती.’ वह बताते हैं आखिरकार उन्होंने यूपीएससी की तैयारी की और सेलेक्ट भी हो गए. अमित का कहना है, ‘बतौर आईपीएस मसूरी में ट्रेनिंग ने मेरे अंदर एक नया जज्बा भर दिया. फिर मैंने कभी पलटकर पीछे नहीं देखा.’ वर्दी से उन्हें इस कदर प्यार हुआ कि फिर बिहार में अपराधियों पर कहर बनकर ही टूटे.
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