नई दिल्ली: 1943 का साल था. यूक्रेन की ओका और ऑरलिक नदियों के बीच स्थित ओरेल पर कब्जे के लिए जंग छिड़ी हुई थी. करीब 25 मील लंबे मोर्चे पर हर तरफ घिरे अंधेरे को चीरते हुए 3,000 गन बैरल प्रति मील की गति से कई गोले आकर गिरे. गर्मियों के मौसम में कुर्स्क में यह जबर्दस्त बमबारी सोवियत संघ के जवाबी हमले की शुरुआत थी. अल अलामीन और वर्दुन जैसी बड़ी लड़ाइयों की तुलना में यहां पांच से दस गुना ज्यादा गोलाबारी हुई.
तोपखाने की सफलता देख मेजर-जनरल पीटर पेट्रोविच सबेनिकॉफ की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और खासे उत्साहित होकर बोले, ‘जब ये तोपें गूंजती हैं जर्मनों में भगदड़ मच जाती है.’
इतिहासकार ए.वी. ग्रिनेव लिखते हैं कि अंतहीन बमबारी का सामना करते हुए कुछ जर्मन सैनिक ‘सचमुच पागल हो गए थे’. जर्मनी के रक्षात्मक रणनीतिकारों में सबसे शानदार माने जाने वाले जनरल गोथर्ड हेनरिकी ने इस पर गहरा अफसोस जताते हुए कहा, ‘रूसी तोपखाने बहुत अच्छे हैं. बहुत सटीक वार करते हैं और दुर्भाग्य से उन्हें बहुत आसानी से एक से दूसरी जगह पहुंचाया जा सकता है.’
जंग में इसी तरह की ऐतिहासिक सफलताओं से उत्साहित रही रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की सेना ने यूक्रेन की अग्रिम रक्षा पंक्ति तोड़कर आगे बढ़ने के लिए मिसाइल ट्रूप और तोपखानों पर ही सबसे ज्यादा भरोसा जताया.
जंग की शुरुआत पूरी जोरदारी से आर्टिलरी फायर यानी हॉवित्जर, रॉकेट और मिसाइलें दागे जाने से हुई, जिसका उद्देश्य यूक्रेनी फॉरवर्ड पोजिशन को तहस-नहस करना और रूसी टैंकों और सैनिकों के आने से पहले उनके कमांड सेंटर्स को ध्वस्त कर देना था. एक अनुमान के मुताबिक जंग के पहले 10 दिनों में ही यूक्रेन को निशाना बनाकर 1,100 मिसाइलें दागी गईं.
इस माह की शुरू में अनुमान लगाया गया कि यूक्रेन की तरफ से 4,000 से 7,000 राउंड की तुलना में रूस प्रतिदिन 20,000 आर्टिलरी राउंड फायर कर रहा है, जिसके बारे में पत्रकार कोर्टनी क्यूब का कहना है कि 1950 से 1953 तक चले कोरियाई युद्ध के बाद इस दर से गोलाबारी फिर कभी नहीं देखी गई थी.
यह भी पढ़ेंः ‘AAP का होगा कांग्रेस जैसा हाल’; PM को ‘नीच’ कहे जाने पर संबित पात्रा का पलटवार, कहा- यह देश का अपमान
‘गॉड’ भी नाकाम
हालांकि, रूसी की तरफ से भारी बमबारी यूक्रेन का डिफेंस सिस्टम बर्बाद करने में नाकाम रही है. तोपखाने का 21वीं सदी वाला वर्जन मानी जाने वाली सामरिक मिसाइलों की इस कदर पूरी निर्ममता के साथ बौछार कर दिए जाने के बावजूद यूक्रेनी सैनिकों का हौसला और मनोबल तोड़ा नहीं जा सका है. यहां तक कि जब-जब कमांड एंड कंट्रोल सेंटर या रसद सुविधाओं को निशाना बनाया गया, वे उतनी ही तेजी से फिर सक्रिय हो गए.
इसके विपरीत, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के मानकों के अनुरूप 155 मिमी और 105 मिमी हथियार प्रणाली—जिसमें खासकर एम142 हाई-मोबिलिटी आर्टिलरी रॉकेट सिस्टम (हाइमार्स) शामिल हैं और जो 50 मील की दूरी तक जीपीएस-निर्देशित लक्ष्य भेदता है—ने बड़े पैमाने पर रूसी गोलाबारूद को तबाह करने के अलावा कमांड पोस्ट और प्रमुख पुल भी उड़ा दिए हैं. नई वार मशीन ने यूक्रेन को काउंटर-बैटरी फायर झेले बिना सफलता के हमले में सक्षम बनाया है. माना जाता है कि एक भी हाइमार्स को हिट नहीं किया जा सका है.
पूर्व सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन के बारे में चर्चित है कि वे आर्टिलरी को ‘गॉड ऑफ वार’ कहते थे. ऐसे में एक तरह से देखें तो यूक्रेन में जंग का एक पुराना भगवान नाकाम हो गया है, और एक नए भगवान का जन्म हुआ है…और यह है लंबी दूरी की सटीक-निशाने वाली आर्टिलरी, जो दुश्मन की सेना को बचने का जरा भी मौका नहीं देती है.
इससे बड़ी बात यह है कि नाटो ने यूक्रेन को एयर डिफेंस सिस्टम की आपूर्ति की है जो रूस की तरफ से आने वाली मिसाइलों को मार गिराने में सक्षम है. यही वजह है कि मास्को का पसंदीदा हथियार लगातार नाकाम होता जा रहा है. अक्टूबर के शुरू में यूक्रेन को जर्मनी की तरफ से एक एडवांस्ड आईआरआईएस-टी सिस्टम मिल चुका है और तीन अन्य की आपूर्ति अगले साल तक होनी है. यूक्रेन का कहना है कि पहले सिस्टम ने अपनी तैनाती के बाद से अपने सामने आने वाले हर प्रक्षेपास्त्र को मार गिराया है.
वहीं, इस माह के शुरू में यूक्रेन के रक्षा मंत्री ओलेक्सी रेजनिकोव ने नॉर्वे की एयरोस्पेस कंपनी कोंग्सबर्ग द्वारा दिग्गज अमेरिकी रक्षा कंपनी रेथियॉन के सहयोग से विकसित दो एनएएसएएमएस (नेशनल एडवांस्ड सरफेस-टू-एयर मिसाइल सिस्टम) की आपूर्ति की पुष्टि की है. अमेरिका ऐसे कुल सात सिस्टम मुहैया कराएगा. उधर, इटली ने भी मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली एस्पाइड 2000 दी है. इस सीरिज के पहले भाग में दिप्रिंट ने अपने विश्लेषण के आधार पर बताया था कि रूसी वायु सेना की कार्रवाई बड़े पैमाने पर नाकाम होने की एक बड़ी वजह यह भी है कि यूक्रेन ऐसे तमाम रक्षा उपकरणों को एक काउंटर-मिसाइल सिस्टम की तरह इस्तेमाल कर रहा है.
हालांकि, कभी-कभी रूसी रणनीति काम करती दिखती है, जैसा द कीव इंडिपेंडेंट के एक पत्रकार इलिया पोनोमारेंको ने अगस्त में लिखा था, ‘रूस की भारी आर्टिलरी— जो यूक्रेन के खिलाफ क्रेमलिन का सबसे घातक हथियार है— अभी भी एक शानदार ताकत है जो किसी तरह की भी दया नहीं दिखाती है.’
हालांकि, रूस को जिस प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है, उसने मिलिट्री थिंकर्स को एक महत्वपूर्ण सबक सिखाया है—यद्यपि तोपें अभी भी युद्ध का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है लेकिन बड़े पैमाने पर उन हथियारों का मुकाबला नहीं कर सकतीं जिनकी रेंज काफी बेहतर है और जो सटीक-निशाने वाली तकनीक से लैस हैं. यूक्रेन युद्ध पीड़ितों में कुछ ऐसे भी हैं जो उसके पसंदीदा हथियार के शिकार बने हैं.
यह भी पढ़ें: 1962 में सेना की हार की कई वजहें थीं, लेकिन बड़ी भूमिका मानसिक पराजय की थी
आधुनिकीकरण को लेकर क्या हैं रूस की दुविधाएं
पांच साल पहले, स्कॉलर लेस्टर ग्राउ और चार्ल्स बार्टल्स ने अमेरिकी सेना को लेकर रूसी सैन्य सिद्धांतों का पता लगाने के लिए एक अध्ययन किया. यह अध्ययन ऐसे समय किया गया जब रूसी सेना के गुप्त अभियान के बलबूते रूस ने 2014 में क्रीमिया को अपने कब्जे में कर लिया था. ग्राउ और बार्टल्स ने अपने अध्ययन में बताया, भले ही यह कुलीन विशेष बल ऐसे ऑपरेशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहें लेकिन रूसी सेना इस बात पर पुनर्विचार कर रही है कि वह नाटो बलों के खिलाफ पारंपरिक युद्ध कैसे लड़ेगी.
यही वजह है कि रूस ने सटीक-निशाने वाली मिसाइल प्रणालियों में भारी निवेश शुरू किया. रूसियों का मानना था कि नाटो भविष्य के किसी भी युद्ध में हवाई हमलों में श्रेष्ठता का फायदा उठाएगा और इसलिए इसके मुकाबले के लिए अत्यधिक सटीक 9के720 इस्कंदर मिसाइल डिजाइन की गई. इस्कंदर को उन्नत मिसाइल रोधी डिफेंस सिस्टम से बचने और जीपीएस सिग्नल जाम होने पर भी अपने पेलोड को सटीक ढंग से लक्ष्य तक पहुंचाने में सक्षम बनाया गया.
रूस ने पश्चिमी मिसाइल डिफेंस सिस्टम को भेदने के उद्देश्य से केएच-47एम2 किंजेल हाइपरसोनिक मिसाइल विकसित की हैं और यूक्रेन में सीमित संख्या में इसका इस्तेमाल भी किया है.
मॉस्को ने 2एस35 कोएलित्सिया 155 मिमी स्वचालित हॉवित्जर जैसे अधिक उन्नत तोपखाने में भी काफी निवेश किया, जो एक मिनट में 16 राउंड फायर करने में सक्षम है, जो पुरानी गनों की पूरी बैटरी के बराबर है. 9ए53 उरागन एम1 ट्यूब आर्टिलरी सिस्टम को भी नए बदलावों के साथ विकसित किया गया था, जिससे यह और अधिक तेज फायरिंग कर सके.
कई अन्य देशों की सेनाओं की तरह रूस ने भी मानव रहित एरियल व्हीकल (यूएवी) विकसित करने पर पैसा खर्च किया, जिसमें इसके आधुनिक आर्मटा टैंको टी-14 से जुड़े टार्गेट-एक्वीजिशन ड्रोन शामिल है. प्रत्येक अत्यधिक मोबाइल ब्रिगेड के पास एक यूएवी कंपनी का प्रस्ताव था, जो ग्रैनेट, ओरलान और एलरॉन जैसे ड्रोन से लैस हो.
आर्टिलरी टारगेट-स्पॉटिंग के लिए लगभग 40 किमी की रेंज वाले यूएवी डिजाइन करने पर खास जोर दिया गया. रूसी सेना ने एक ट्रैक्ड चेसिस का उपयोग कर कुर्गनेट्स रोबोटिक वीपन्स फैमिली जैसी अत्याधुनिक तकनीकों में भी निवेश किया, जिसे प्लेस्टेशन जैसी डिवाइस से नियंत्रित किया जा सकता है.
रूसी सैन्य योजनाकारों के लिए एक बड़ी दुविधा यह भी रही है कि भविष्य के किसी भी युद्ध में नाटो इलेक्ट्रॉनिक युद्ध में अपनी श्रेष्ठता का लाभ उठाएगा, जिससे उच्च तकनीक प्रणाली कमजोर हो जाएगी. हालांकि, सटीकता और सीमा महत्वपूर्ण है लेकिन तर्क दिया गया कि वे बड़े पैमाने पर गोलाबारी की जगह नहीं ले सकते.
सिस्टम जितने अधिक सॉफिस्टिकेटेड होते हैं, वह जैमिंग जैसे पश्चिमी इलेक्ट्रॉनिक प्रतिरोधकों के प्रति उतने ही संवेदनशील हो जाते हैं. इसकी तुलना में गोलाबारी में इस तरह की गणितीय गणना के आधार पर फायरिंग की जाती है जिसमें लक्ष्य भेदने की संभावना 70 से 90 फीसदी तक रहना सुनिश्चित किया जा सकता है.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज की तरफ से संकलित वैश्विक हथियारों के एक डेटाबेस मिलिट्री बैलेंस के मुताबिक 2022 में रूस के पास 4,894 से अधिक आर्टिलरी पीस थे, जिनमें से लगभग आधे स्वचालित थे.
अमेरिकी सेना का एक आकलन कहता है, ‘पश्चिमी सेनाएं जहां दुश्मन के ठिकानों के खिलाफ सटीक हमले शुरू करने के लिए आर्टिलरी का तेजी से इस्तेमाल करती है, रूसी सेना अब भी बड़े पैमाने पर गोलाबारी के साथ व्यापक क्षेत्र में बमबारी को अहमियत देती है और खासकर बीएम-30 स्मर्च जैसे घातक कई रॉकेट-लॉन्चर सिस्टम इस्तेमाल करती है.’
संभवतः, आर्थिक बाध्याताओं के कारण गुणवत्ता की तुलना में संख्याबल को अधिक तरजीह दी गई है. अधिकांशत: रूसी सेना ने क्रांतिकारी नई प्रणालियों को शामिल करने पर आने वाली लागतों को देखते हुए ही मौजूदा तकनीकों को अपग्रेड उन्नत करने पर ध्यान केंद्रित किया. पश्चिमी देशों के कुछ विचारकों को भी यह तर्क सही लगता है. रैंड कॉरपोरेशन के लिए 2014 के एक अध्ययन में सीनियर पॉलिसी रिसर्चर जॉन गॉर्डन और अन्य ने आगाह किया था भले ही नाटो तकनीकी तौर पर बेहतर हो लेकिन नाटो संख्यात्मक रूप से बेहतर आर्टिलरी के आगे मात खा सकता है.
यह भी पढ़ें: मोहन भागवत की जाति को भूलने की ‘मासूम’ सलाह जातीय वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश है
भारत के लिए कम नहीं चुनौतियां
रूस की तरह भारत भी पिछले कई सालों से आर्टिलरी को आधुनिक बनाने की दिशा में काम कर रहा है. 1999 में भारत ने फील्ड आर्टिलरी रेशनलाइजेशन प्रोग्राम (एफएआरपी) को अंतिम रूप दिया, जो भविष्य में संभावित युद्धों, खासकर पहाड़ों में, को ध्यान में रख इसकी आर्टिलरी का एक टेम्पलेट है.
एफएआरपी के तहत, सेना के पास 2025 से 2027 तक 155 मिमी की लगभग 3,000-3,600 तोपें होने की उम्मीद हैं लेकिन विभिन्न कैलिबर वाली हॉवित्जर होंगी जैसे, खींचकर ले जाए जाने वाली, माउंटेड, सेल्फ-प्रोपेल्ड (ट्रैक और व्हील वाले) आदि. इस लक्ष्य को सीधे तौर पर आयात, लाइसेंस प्राप्त निर्माण और स्वदेशी प्रणालियों के मिश्रण के जरिये हासिल किए जाने के आसार हैं.
हालांकि, सशस्त्र बलों के अपने खुद के अनुमान बताते हैं कि केवल 2040 तक ही सेना अपने उस लक्ष्य के करीब पहुंच पाएगी जो 1999 में तय किए गए थे.
देश में जिन सभी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया जा रहा है, उनमें केवल दो ही सफल रहे हैं— एक जो अमेरिका से प्रत्यक्ष आयात पर केंद्रित है और दूसरा रक्षा क्षेत्र की निजी कंपनी एलएंडटी और दक्षिण कोरियाई फर्म के संयुक्त निर्माण वाली परियोजना.
प्रत्यक्ष आयात एम777 का था, जिनमें 145 को खास तौर पर चीन के खिलाफ तैनाती के लिए खरीदा गया. अब तक, अल्ट्रा लाइटवेट होवित्जर की सात रेजीमेंट—जिसमें हर एक में 18 बंदूकें हैं—को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तैनात किया जा चुका है.
अन्य सफल परियोजना में के-9 वज्र ट्रैक्ड सेल्फ-प्रोपेल्ड होवित्जर शामिल है. सेना अब पहाड़ों में तैनाती के लिए ऐसी 200 हॉवित्जर तोपों का ऑर्डर देने की प्रक्रिया में है, हालांकि वे मूल रूप से रेगिस्तान में इस्तेमाल के लिए होती हैं.
सैन्य सूत्रों का कहना है कि स्वदेशी एडवांस्ड टोएड आर्टिलरी गन सिस्टम (एटीएजीएस) का निर्माण कार्य अभी प्रगति पर ही है और इसके सेना में शामिल होने में कम से कम तीन-चार साल लगेंगे, बशर्ते यह मौजूदा समयसीमा में ही तैयार हो जाए. जैसा कि नाम से ही जाहिर है, ये ऐसी तोपें हैं जिन्हें वाहनों द्वारा खींचकर ले जाया जा सकता है.
सेना ने सारंग की तीन रेजीमेंटों के आधुनिकीकरण में भी कामयाबी हासिल की है और रूसी 130एमएम एम46 तोपों को 155एमएम/45 कैलिबर में अपग्रेड किया गया है. सूत्रों ने कहा कि कुल मिलाकर इनमें से 300 को अपग्रेड किया जाना है.
देसी बोफोर्स के नाम से जानी जाने वाली स्वदेशी धनुष तोप ने भी आखिरकार सारी बाधाएं पार कर ली हैं. इसकी एक रेजीमेंट तैनात कर दी गई है, जबकि दूसरी को अगले साल बनाया जाना है.
सफलता की एक और मिसाल है, 75 किमी-रेंज निर्देशित पिनाका मल्टी-बैरल रॉकेट लॉन्चर है. इसे रूसी ‘स्मर्च’ के साथ जोड़ा जाएगा जिसकी रेंज लगभग 90 किमी है. रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) लगभग 125 किमी की बढ़ी सीमा के साथ लंबी दूरी के पिनाका पर काम कर रहा है. सेना के पास मौजूदा समय में पिनाका सिस्टम की चार रेजिमेंट हैं जो गाइडेड रॉकेट दागती हैं, छह और के लिए ऑर्डर भी दिया जा चुका है.
कॉर्प्स ऑफ आर्टिलरी के पूर्व महानिदेशक, लेफ्टिनेंट-जनरल (रिटायर्ड) पी.आर. शंकर ने सितंबर में दिप्रिंट के लिए अपने एक लेख में बताया था कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के शस्त्रागार के आकार और इसके हथियारों की मौजूदा रेंज के आगे भारत के लिए उनका मुकाबला करना मुश्किल ही है. यही नहीं एलएसी के भारतीय क्षेत्र की दुर्गम भौगोलिक स्थितियां मोबिलिटी बहुत मुश्किल बनाती हैं, जिससे वहां भारी हथियारों की तैनाती करना एक दुरूह कार्य है.
इससे पता चलता है कि मिसाइलें भविष्य के भारत के शस्त्रागार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं लेकिन उन्हें विकसित करने को लेकर चुनौतियां भी कम नहीं हैं. अमेरिकी सेना का एक आकलन बताता है कि चीनी वायु सेना 2,200 से अधिक पारंपरिक सशस्त्र बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइलों के साथ दुनिया की सबसे बड़ी ग्राउंड-बेस्ड मिसाइल फोर्स है. आकलन में यह भी कहा गया है कि इस स्टॉक का मतलब है दक्षिण चीन सागर में तैनात हर एक अमेरिकी सरफेस कॉम्बेट पोत पर हमले के लिए पर्याप्त एंटी-शिप मिसाइलें और शिप के मिसाइल डिफेंस से मुकाबले के लिए पर्याप्त गोलाबारूद होना.
इजरायल-निर्मित स्पाइडर के साथ मिलकर रूस-निर्मित एस-400 भारत मिसाइल डिफेंस क्षमता प्रदान करती हैं. स्वदेशी प्रणालियां भी विकसित की जा रही हैं.
उदाहरण के तौर पर, एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल पृथ्वी एयर डिफेंस (पीएडी) के बारे में बताया जाता है कि यह 50 किमी तक की ऊंचाई पर विमान और दुश्मन की मिसाइल दोनों को निशाना बनाने में सक्षम है. अधिक उन्नत एयर डिफेंस सिस्टम में 200 किमी तक की मारक क्षमता होने की सूचना है. हालांकि, भौतिक विज्ञानी थिओडोर पोस्टेल जैसे विशेषज्ञों ने मिसाइल-रोधक प्रणालियों की शब्दशा: इतनी सफलता दर पर संदेह जताया है.
पिछले साल सितंबर में तत्कालीन चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत ने कहा था कि भारत एक ऐसी रॉकेट फोर्स बनाना चाहता है जो देश की मिसाइलों को नियंत्रित करने और उनके रखरखाव में सक्षम हो. हालांकि, एक हेलीकॉप्टर हादसे में उनकी मृत्यु के बाद यह विचार सैन्य चर्चाओं से गायब हो गया लगता है.
भारत के पास केवल एक मध्यम दूरी की पारंपरिक मिसाइल ब्रह्मोस ही है और इनकी संख्या भी सीमित है. कुल मिलाकर, तीन सशस्त्र सेवाओं में लगभग 1,000 ऐसी मिसाइलें होंगी जो रूस के सहयोग से विकसित की गई हैं. जैसा कि यूक्रेन युद्ध से साफ दिखाई देता है, ये संख्या बहुत ही छोटी है. यह कहना मुश्किल है कि चीन के साथ युद्ध की किसी स्थिति में ये मिसाइलें कितने समय तक काम आएंगी.
युद्ध के बीच रूस का इंडस्ट्रियल बेस अपने शस्त्रागार फिर से भरने की चुनौती से जूझ रहा है. यूक्रेनी रक्षा मंत्रालय के मुख्य खुफिया निदेशालय के उपप्रमुख वादिम स्किबित्सकी का कहना है कि रूस अभी ईरान से बैलिस्टिक मिसाइल फतेह-110 और जोल्फगर खरीद रहा है. इस महीने की शुरुआत में स्किबित्सकी ने अनुमान लगाया था कि रूस के पास सिर्फ 120 इस्कंदर रह गई हैं. इसके शस्त्रागार में बची किंजेल की संख्या भी करीब 40 मानी जा रही है.
भारत की चिंताएं इसलिए भी ज्यादा हैं, क्योंकि चीन ही एकमात्र खतरा नहीं है बल्कि पाकिस्तान भी चीनी प्रणालियों का उपयोग करके भारत के खिलाफ अपनी मारक क्षमता बढ़ाने में जुटा है. भारतीय के-9 वज्र तोपों के मुकाबले के लिए इस्लामाबाद चीन निर्मित व्हीकल-माउंटेड एसएच-15 हॉवित्जर हासिल कर रहा है. एसएच-15 प्रणाली सब-किलोटन वाले परमाणु हथियारों के साथ-साथ प्रोजेक्टाइल को भी निशाना बना सकती हैं और 155 मिमी हॉवित्जर को ट्रक के पीछे ले जाने के लिए 6×6 पहिए वाले शानक्सी ट्रक चेसिस का उपयोग किया जाता है.
वज्र जहां एक ट्रैक्ड सेल्फ प्रोपेल्ड हॉवित्जर है, एसएच-15 एक माउंटेड गन सिस्टम है. भारतीय सेना माउंटेड गन सिस्टम एक्वायर करने पर विचार कर रही है, जिसे भारत पहले ही अर्मेनिया से खरीद चुका है.
चीन का नार्दन इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन (नॉरिंको) भी पाकिस्तान को एआर-1 300 एमएम मल्टी-बैरल रॉकेट लॉन्चर की आपूर्ति कर रहा है. अनुमान लगाया जा रहा है कि नई दिल्ली की बढ़त के मुकाबले इस्लामाबाद को मजबूत करने के इरादे के साथ बीजिंग उसे करीब 2,000 किमी-रेंज वाली ऑपरेशनल डीएफ-17 हाइपरसोनिक मिसाइल की आपूर्ति करने की संभावनाएं भी देख रहा है. चीन विभिन्न तरह के गोला-बारूद को अपग्रेड करने में भी पाकिस्तान को सहयोग भी दे रहा है, जिसमें विस्तारित-रेंज वाले तोपों के गोले और गाइडेड मिसाइलें शामिल हैं.
इन सारी दुविधाओं और चुनौतियों से उबरने के लिए भारतीय रणनीतिकारों को गंभीरता से मंथन करना होगा कि अपने संसाधनों का सर्वोत्तम इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है. साथ ही युद्ध लड़ने के ऐसे नए तरीकों की भी परिकल्पना करनी होगी जो भविष्य में ज्यादा कारगर साबित हों.
(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: कृष्ण मुरारी)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: ट्रंप के बाद अब कंगना को भी ट्विटर पर अनब्लॉक करना चाहिए, असहमति है सोशल मीडिया की जान