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Thursday, 21 November, 2024
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जी-20 की मेजबानी भारत को कैसे एक नई रणनीतिक जगह और 2024 चुनाव से पहले मोदी को नया मंच दे सकती है

भारत के आर्थिक व रणनीतिक हितों में संतुलन बनाकर, रूस और अमेरिका के साथ रिश्ता निभाते हुए और चीन को अपने ऊपर हावी न होने देकर मोदी कुशलता से आगे बढ़ते रहे हैं. अब जी-20 की अध्यक्षता के एक साल का बेशक वे भारत के फायदे के लिए उपयोग करेंगे.

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बाली में जी-20 का बड़ा शिखर सम्मेलन खत्म हो गया है लेकिन सम्मेलन से ज्यादा उसके साथ नेपथ्य में जो कुछ चला उसने सुर्खियां बटोरीं, मसलन ट्रूडू और शी के बीच हुई झड़प. इंडोनेशिया के जोकों विदोदो ने इस समूह की अध्यक्षता का भार (बैटन) भारत के नरेंद्र मोदी को सौंप दिया. भारत के लिए इसका अर्थ यह होगा कि पूरे साल उसे विदेश मामलों पर उतना ध्यान देना होगा जितना पहले नहीं दिया गया.

खासकर, इसलिए कि भारत दुनिया के उस हिस्से की मेजबानी करेगा जो कुल मिलकर दुनिया की जीडीपी में 80 फीसदी और विश्व व्यापार में 75 फीसदी हिस्सेदारी करता है. और यह मेजबानी एक ऐसे नेता के नेतृत्व में होगी जिसे शानदार प्रदर्शन आयोजित करना पसंद है. लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार यह कहने का साहस किया था कि मोदी एक अच्छे ‘इवेंट मैनेजर’ हैं, और फिर ऐसा कहने की कीमत भी चुकाई. उनका हरेक जन्मदिन तभी एक आयोजन बनता है जब मोदी उन्हें बधाई देने आते हैं और कैमरों को अपनी मनचाही फोटो मिल जाती है.

इसलिए, सालभर चलने वाला प्रभावशाली प्रदर्शन कोई साधारण ‘इवेंट’ नहीं होगा. यह मोदी के 2024 के चुनाव अभियान को शानदार रंगत देगा. दुनिया भर के सबसे अहम चेहरे भारत पधारेंगे, मौके की तहजीब के तहत उन्हें भारत के नेता की तारीफ करनी ही पड़ेगी. सालभर में करीब 100 बैठकें होंगी, और तब शिखर सम्मेलन होगा. ये बैठकें देश के अलग-अलग शहरों में की जाएंगी. जमकर झप्पियां ली जाएंगी, हंसी-मज़ाक चलेगा, और ‘विश्वगुरु’ को बेहद तड़क-भड़क के साथ पेश किया जाएगा.

इस सबको आम चुनाव के अभियान के साथ इस सफाई से जोड़ दिया जाएगा कि आप इसे घरेलू राजनीति को ध्यान में रखकर किया जा रहा एक और तमाशा कहकर खारिज कर देना चाहेंगे. लेकिन हम ऐसा करने से बचें और अपने सियासी चश्मे को कुछ समय के लिए उतार दें, इसकी वाजिब वजह भी होगी. तभी हम समझ पाएंगे कि भारत के लिए यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और रणनीतिक दृष्टि कितना अहम मौका है.


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सोवियत साम्राज्य के काफ़ूर होने के बाद करीब 2 साल तक अस्थिरता की वजह से जिस तरह वैश्विक शक्ति असंतुलन की स्थिति रही उसके तीन दशक बाद फिर से वैसी ही स्थिति बन गई है. इसके लिए ज्यादा ज़िम्मेवार तो व्लादिमीर पुतिन को माना जा सकता है लेकिन शी जिनपिंग भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं. सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया करीब एक चौथाई सदी तक एकध्रुवीय व्यवस्था में रही, जब तक कि उभरते चीन ने इसे चुनौती नहीं दी.

इस बदलाव को इस धारणा से मदद मिली कि अमेरिका कमजोर पड़ रहा है. पहले, बराक ओबामा ने ‘नेपथ्य से नेतृत्व’ का विचार दिया, इसके बाद डोनाल्ड ट्रंप ने वैश्वीकरण से कदम पीछे खींच लिये, और अंततः जो बाइडन ने अफगानिस्तान से अपमानजनक वापसी का फैसला कर लिया. अगर 2022 के शुरू होने तक दुनिया उसी स्थिति में रहती जिस स्थिति में पहले थी, तब जी-20 को उतनी ताकत न मिलती जितनी आज मिली है. इसलिए, कुछ नाटकीय बदलावों पर नज़र डालें—
– अमेरिका की ताकत कमजोर पड़ना तो दूर, अब फिर से बढ़ने लगी है. मुद्रास्फीति और दूसरी चुनौतियों के बावजूद उसकी अर्थव्यवस्था की सेहत बाकी विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले बेहतर है और सुधार पर है. अक्सर अनाड़ी जैसे दिखने वाले उसके नेता ने दोस्तों और दुश्मनों को हैरत में डालते हुए मध्यावधि चुनाव में बढ़िया प्रदर्शन किया है. और, क़बायली बगावत से लड़ाई में तालिबान से हारने के एक साल बाद वह असली मोर्चे पर, यूक्रेन में जीत दर्ज कर रहा है, जिसमें दुश्मन एक पूर्व ‘सुपर पावर’ है और जो नये उभरते ‘सुपर पावर’ चीन का सबसे मूल्यवान सहयोगी है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपनी फौज सीधे तैनात किए बिना जीत दर्ज कर रहा है. शायद यही उसकी जीत का कारण भी है. अमेरिका या किसी भी बड़ी शक्ति ने विदेश में जो लड़ाई लड़ी उनका इतिहास देख लीजिए. जब वह किसी दूसरे की लड़ाई लड़ने के लिए अपनी सेना भेजता है, उसे हार का सामना करना पड़ता है, चाहे यह वियतनाम हो, इराक़ हो या मध्य पूर्व का कोई देश हो या अफगानिस्तान में दूसरी बार हो. भारत तो श्रीलंका में हथियारबंद बागियों से हार गया.

लेकिन अमेरिका अफगानिस्तान में पहली बार इसलिए जीता था क्योंकि वहां देसी लोग लड़ रहे थे, जैसे आज यूक्रेन में लड़ रहे हैं. आप जीतते तब हैं जब वे लोग भी अपने देश के लिए लड़ते हैं जिनकी लड़ाई आप लड़ने गए हैं. भारत ने बांग्लादेश को 13 दिनों में इसी वजह से ही आज़ाद करा लिया था. जेलेंस्की के यूक्रेनियों ने बाइडन और अमेरिका पर लगे काबुल के कलंक को मिटा दिया है, भले ही वह पश्चिमी ताकतों से मिले हथियारों के बूते क्यों हो.

– रूस सामरिक, कूटनीतिक, राजनीतिक स्तरों पर युद्ध हार रहा है. मुझे भारत में पुतिन के लिए व्यापक समर्थन और सोवियत संघ के लिए बचे-खुचे आकर्षण पर, जो इस भ्रम को जन्म देता है कि रूस दरअसल पुराने सोवियत संघ का ही नया नाम है, तरस आता है जो इस धारणा को जन्म देता है कि इस युद्ध में रूस दरअसल सही भूमिका में है. लेकिन अफसोस की बात है कि अपने से बेहद छोटे आकार के कमजोर दुश्मन से 9 महीने तक लड़ने के बाद पूरे 800 किमी लंबे मोर्चे से पीछे हटना पड़ रहा है. आपका पक्ष हार रहा है.

मॉस्को की आंतरिक राजनीति जो भी हो, यह रूस और पुतिन को और कमजोर करेगा. भारत के लिए यह अच्छा होगा. क्योंकि रूस अगर चीन का दोस्त बन गया और पाकिस्तान को रिझाने लगा है, तो भारत भी अपने रणनीतिक विकल्प व्यापक कर रहा है. हथियारों के मामले में अलगाव कोई पांच साल पहले शुरू हो गया था, जिसे अब पलटा नहीं जा सकता, हालांकि यह अलगाव हथियारों के विशाल भंडार की निरंतरता के कारण धीमी गति से हो रहा है.

– हम भारतीयों में यह आदत है कि दूर किसी देश में भी लड़ाई चल रही हो जिससे हमारा कोई लेना-देना न हो और जिस पर हम कोई असर भी न डाल सकते हों, उसमें भी हार रहे पक्ष के साथ हम दार्शनिक या दिलचस्प रूप से नैतिक आधार पर खुद को जोड़ लेते हैं. पहला जो अफगानी जिहाद हुआ उसमें हम चाहते थे कि सोवियत पक्ष जीत जाए लेकिन वह हार गया. दूसरे जिहाद में हम अमेरिकी पक्ष का जोश बढ़ा रहे थे और वह हार गया. अब, मुखर जनमत, मीडिया, विदेश नीति के टीकाकारों, रणनीतिक मसलों के जानकारों में यह धारणा है कि रूस अपराजेय है. अंततः वह जीत जाएगा. और सच यह है कि हम फिर पराजित पक्ष के साथ खड़े दिखेंगे.

हमारे लिए तात्कालिक खतरा यह हम बुद्धू नज़र आएंगे. लेकिन चीन इसे अलग तरह से देखता है. पुतिन की भारी भूल ने चीन की उभरती ताकत को जबर्दस्त झटका दिया है. उसे सहयोगी और एनर्जी के स्थायी स्रोत के रूप में रूस की जरूरत थी. युद्ध में हार से कमजोर पड़ते रूस ने चीन के गुब्बारे में पिन चुभो दी है. सबसे पहले तो इसने ‘बीआरआई’ को भारी चोट पहुंचाई है. अब जिस तरह परमाणु हथियार के इस्तेमाल की लगातार धमकी दी जा रही है, वह भी एक शर्मनाक बात है. इसे इस तरह देखा जा सकता है. चीन के सभी तीनों रणनीतिक सहयोगी— उत्तरी कोरिया, पाकिस्तान और रूस—दुनिया में एकमात्र ऐसे देश हैं जो परमाणु हमले की धमकी देते रहना पसंद करते हैं. इसे हर कोई नापसंद करता है.

– करीब पांच साल पहले तक आम धारणा यह थी कि उभरता चीन 2030 तक तो कमजोर पड़ते अमेरिका से आगे निकल ही जाएगा. लेकिन यह अनुमान समय की कसौटी पर सही होता नहीं दिख रहा. आज चीन अपनी आर्थिक वृद्धि बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहा है. इसकी कामकाजी आबादी घट रही है, इसकी आर्थिक वृद्धि दर स्थिर हो गई है, इसके ऊपर कर्ज का बोझ इसकी कमर तोड़ने के कगार पर पहुंच रहा है, इसका विशाल टेक/फिनटेक सेक्टर संकट में है.

इसका संकट इसलिए भी बढ़ा है कि शी जिनपिंग ने अपनी पूर्ण सत्ता को मजबूत करने के लिए व्यवस्थित तरीके से इसकी सबसे बड़ी और सफल टेक-फिनटेक कंपनियों के पीछे पड़ गए, चाहे उनके सुपरस्टार संस्थापकों से ईर्ष्या के कारण ऐसा न किया हो. उन्होंने सरकारी उपक्रमों (एसओई), जिन्हें भारतीय सार्वजनिक उपक्रमों जैसा माना जा सकता है, पर फिर से ज़ोर देना शुरू कर दिया है. ये पीछे ले जाने वाले कदम हैं. जो विशेषज्ञ पहले कह रहे थे कि इस दशक के अंत तक चीन की जीडीपी अमेरिका की जीडीपी से बड़ी हो जाएगी, वे अब मुंह छिपा रहे हैं या बहाने ढूंढ़ रहे हैं क्योंकि नए अनुमान यही बताते हैं कि यह 2060 तक तो नहीं होने जा रहा, यानी कभी नहीं.

यह बाकी देशों को अपने सप्लाई कड़ी में विविधता लाने और चीन से कड़ी तोड़ने को विवश कर रहा है. इस मामले में शी ने बाइडन को चेतावनी बाली में दिए अपने उपदेश में दे दी, जैसा कि चीनी विदेश मंत्रालय की विज्ञप्ति से पता चलता है. लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनकी कोई सुनने वाला नहीं है. उनके अहंकार ने चीन की कहानी को बदमजा कर दिया है, भले ही उतना नहीं जितना कि पुतिन ने रूस को तबाह करके किया है. वैसे, उन्हें ज्यादा बड़ी सकल राष्ट्रीय शक्ति से निपटना था. यह अतिशयोक्ति ही होगी कि चीन कमजोर हो रहा है. लेकिन उसकी ताकत बढ़ भी नहीं रही है, और यह वैश्विक शक्ति संतुलन में परिवर्तन के लिए काफी है.

सो, भारत जब एक साल के लिए जी-20 का अध्यक्ष है तब इन परिवर्तनों के कारण मोदी को रणनीति के मैदान में बहुत कुछ करने का अवसर मिल सकता है. अब तक वे इसे कुशलता से चलाते रहे हैं— भारत के आर्थिक व रणनीतिक हितों में संतुलन बनाकर, रूस और अमेरिका के साथ रिश्ता निभाते हुए और चीन को अपने ऊपर हावी न होने देकर आगे बढ़ते रहे हैं. आप भरोसा कर सकते हैं कि यह जो एक साल का अवसर मिला है उसका वे भारत के फायदे के लिए उपयोग करेंगे, और चुनावी वर्ष में बेशक अपने फायदे के लिए भी उपयोग करेंगे. कोई राजनीतिक नेता ऐसा करे तो आप शिकायत नहीं कर सकते.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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