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Thursday, 21 November, 2024
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खुद सुधरो या हमें जगह दो- क्यों नेपाल के युवा राजनेता पुराने राजनीतिक तंत्र को दे रहे हैं चुनौती

तोशिमा कर्की से लेकर बालेन शाह तक नेपाल के युवा नेताओं ने पुराने पड़ते राजनीतिक ढांचे के लिए बजा दी है चेतावनी की घंटी.

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काठमांडू में आसमान इस सप्ताह बिलकुल साफ नीला दिख रहा है, सड़कें काफी साफ-सुथरी हैं, कोविड के बाद पाटन और थमेल में सैलानियों की संख्या बढ़ रही है, और सुप्रीम कोर्ट ने डॉ. तोशिमा कर्की की उम्मीदवारी को रद्द करने के चुनाव आयोग फैसले को अभी-अभी खारिज करके उन्हें 20 नवंबर को होने वाले आम चुनाव में भाग लेने की इजाजत दे दी है.

अब, कोई सवाल कर सकता है कि इससे क्या हो गया? हमारा ध्यान तो अभी इस बात पर लगा है कि भाजपा हिमाचल प्रदेश और गुजरात में फिर से सत्ता में आएगी या नहीं. वैसे, इन दो राज्यों के साथ नेपाल के चुनावों के भी नतीजे 8 दिसंबर को ही आएंगे.

नेपाल के चुनाव क्यों महत्वपूर्ण हैं

नेपाल के आगामी चुनाव केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वह भारत के प्रमुख पड़ोसियों में है, इसलिए भी महत्वपूर्ण है वहां नयी पीढ़ी के नेता जनता का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं और पहले से काबिज नेताओं को साफ संदेश दे रहे हैं कि अब आपका समय हुआ खत्म.

तोशिमा कर्की इस युवा पीढ़ी की अग्रणी प्रतिनिधि हैं. उन्हें देखकर आप इस धोखे में मत पड़ जाइएगा कि वे कोई बेसहारा-सी लड़की हैं. वे ग्रेटर काठमांडो के ललितपुर में जनरल सर्जन हैं और नेपाल मेडिकल काउंसिल की सदस्य हैं. पिछले सप्ताहांत, उन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट में निवर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा को ‘आराम’ करने की सलाह दी और उन जैसे युवाओं को शासन संभालने का मौका दें.

कर्की जीतें या न जीतें, आज शहर में उनकी और उन जैसे युवाओं की खूब चर्चा हो रही है. खोजी पत्रकारिता पर आधारित अपने टीवी शो से चर्चित हुए पूर्व टीवी पत्रकार रबि लमिछने ने हाल में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी का गठन किया. कर्की इस पार्टी की सदस्य हैं और नेपाल की चितवन-2 सीट से बहुचर्चित चुनाव लड़ रही हैं.

नेपाली राजनीति के उभरते सितारे

लमिछने और कर्की की अपनी पार्टी है. यह पार्टी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ‘आप’ जैसी ही है, जो किसी सैद्धांतिक रुझान से परहेज करने के लिए जानी जाती है. लेकिन नेपाल की बीमारी से विरक्त हो चुके लोगों के असली सितारे हैं रैपर बालेन शाह, जो मात्र 32 साल के हैं और कर्नाटक यूनिवर्सिटी से निकले सिविल इंजीनियर हैं. अभी छह महीने भी नहीं हुए हैं जब वे काठमांडो के मेयर चुने गए. निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली की पार्टी के वामपंथी उम्मीदवार को हराया.

बालेन शाह | फोटो: ज्योति मल्होत्रा ​​| दिप्रिंट

शाह का मानना है कि उनकी एक इमेज बन चुकी है और उन्हें उसे बनाए रखना है. वे हमेशा काली पोशाक में रहते हैं और उससे मिलते-जुलते सनशेड पहनते हैं. मेयर के चुनाव में उनके प्रचार का जिम्मा संभालने वाली सोशल मीडिया टीम ‘रूटीन ऑफ नेपाल बंधा’ (प्रशांत किशोर की टीम ‘इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमिटी जैसी) के दफ्तर के बाहर फोटो शूट क्षेत्र की सीमेंट वाली फर्श और दीवार नकली घास से ढकी हुई काफी शानदार दिखती थी. यह टीम ही इस प्रत्याशी नेता के करिश्मे की रचना करती है.

काठमांडू के मेयर का काम में इस बात से बेशक मदद मिलती है कि उसका बजट 25 अरब रुपया (नेपाली) का है, जो कई संघीय कैबिनेट मंत्री के बजट से ज्यादा है. और शाह अपनी सत्ता का भरपूर उपयोग कर रहे हैं. वे कहते हैं कि उन्होंने शिक्षा के बजट में तिगुना वृद्धि का वादा किया है. हर वार्ड में क्लीनिक बनाने, सड़कों की सफाई, ट्रांसपोर्ट को सुधारने, सार्वजनिक पार्कों में अतिक्रमणों को हटाने, ऐतिहासिक विरासत वाले स्थलों को बेहतर बनाने जैसे कामों पर पैसे खर्च किए जाएंगे. बेशक यह सब सुनने में काफी बढ़िया लगता है.

बालेन शाह ने ऐसे लोगों को सामने लाया है जो खुद को ‘अ-राजनीतिक’, ‘विचारधारा मुक्त’, बांटने में गर्व महसूस करते हैं और ‘भ्रष्टाचार उन्मूलन’, ‘प्रगति’ और ‘व्यवस्था की सफाई’ जैसे लक्ष्यों के लिए काम करना पसंद करते हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि वे ‘सामाजिक न्याय’ के लिए, दलितों और आदिवासी समुदायों के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिए भी काम करना चाहते हैं या नहीं; मधेशियों (जिनकी आबादी नेपाल की आबादी की एक तिहाई है) की समस्याओं को दूर करने कोशिश करेंगे या नहीं जिन्हें काठमांडो घाटी के ब्राह्मणोनौर क्षत्रीयों (बहुन-छेत्रियों) के राजनीतिक वर्चस्व में रहना पड़ता है.


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सोच बदलो, वोट बदलो

स्थिति यह है कि हैशटैग ‘#NoNotAgain’ सोशल मीडिया पर जंगल की आग की तरह फ़ैल गया है. इसके फेसबुक पेज को तब वैधता मिल गई जब इस पर रोक लगाने की नेपाली चुनाव आयोग की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ बताते हुए खारिज कर दिया.

‘#NoNotAgain’ के फेसबुक पेज के नीचे यह नारा लिखा है– ‘सोच बदलाऊं, वोट बदलाऊं. पिछले हफ्ते के अंत में इस नारे ने काफी लहर पैदा की : ‘मुझे एक बार मूर्ख बनाया तो तुम शर्म करो, मुझे दो बार मूर्ख बनाया तो यह मेरे लिए शर्मनाक’. नये युग के ये नेता कहते हैं कि नेपाल उन उम्रदराज लोगों के लिए कुर्सी का खेल है जिन्हें सत्ता के लिए पार्टियां बदलने में कोई शर्म नहीं महसूस होती.

जाहिर है, इस बात में कुछ सच्चाई है. 1990 में तत्कालीन महाराजा बीरेंद्र ने जब पार्टी विहीन ‘पंचायत व्यवस्था’ की जगह बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू की थी उसके बाद पिछले 32 साल में नेपाल में 28 सरकारें बदल चुकी हैं और कोई भी पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई.

मौजूदा नेताओं की जमात इस माने में अपवाद है कि हरेक नेता पहले कभी आज के अपने विरोधी दल में था. अगर नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन (शेर बहादुर देऊबा और माओवादी नेता पुष्प कमाल दहल या प्रचंड के नेतृत्व में) या के.पी. ओली और मधेशी नेता उपेंद्र यादव के नेतृत्व वाली यूनाइटेड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट (यूएमएल) में से किसी को बहुमत नहीं मिलता तो मुमकिन है कि किसी गठजोड़ की कोई कमजोर कड़ी अलग हो जाए और कोई नया गठजोड़ सामने आए.

युवा मतदाताओं को रिझाना

युवा और पुराने नेता भी युवाओं के वोट खींचने की कोशिश में लगे हैं. सप्ताह के अंत में, ओली ने काठमांडू के एक डिस्को थेक में चमकदमक के साथ पार्टी की रैली की. दूसरी पुरानी पार्टियां निजी तौर पर उनका मखौल तो उड़ा रही हैं लेकिन वे भी युवाओं को रिझाने की जुगत में लगी हैं.

एक उपाय यह है कि चुनाव में युवाओं को टिकट दिया जाए, लेकिन जैसा कि सभी लोकतांत्रिक चुनावों में होता है, यह कहना जितना आसान है, अमल में लाना उतना ही मुश्किल है. पूर्व प्रधानमंत्री और माओवादी नेता बाबूराम भट्टरई और हिसिला यामि की बेटी मानुषी यामि भट्टरई इस भंवर से उबरने में सफल रही हैं. दिल्ली के जेएनयू से एमफिल कर चुकीं मानुषी काठमांडू की उस सीट से लड़ रही हैं जिस पर दशकों पहले उनके पिता लड़े थे. बताया जाता है कि मानुषी जीत सकती हैं. वे सरकारी बस से सफर करती हैं और सुबह 6.30 बजे से ही घर-घर जाकर प्रचार करने में लग जाती हैं. वे नेवारी और नेपाली, दोनों भाषाओं में प्रचार कर रही हैं.

मानुषी यामी भट्टराई | फोटो: ज्योति मल्होत्रा ​​| दिप्रिंट

गोरखा सीट से तीन बार जीत चुके उनके पिता ने प्रचंड के लिए वह सीट छोड़ दी है ताकि उनकी बेटी का रास्ता आसान हो. जाहिर है, उन पर वंशवादी राजनीति करने का आरोप लग रहा है लेकिन वे डटी हुई हैं. ये युवा उम्मीदवार बाजी मारें या नहीं, एक बात साफ है. उन्होंने राजनीतिक तंत्र को चुनौती दे दी है—सुधार जाओ या हमें जगह दो.

(ज्योति मल्होत्रा ​​दिप्रिंट की सीनियर कंसल्टिंग एडिटर हैं. वह @jomalhotra पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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