जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ 9 नवंबर को भारत के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए, उसके पहले और उसके ठीक बाद तीन बातें हुईं जिनका आपस में कोई संबंध नहीं था. पहली यह कि कानून मंत्री किरण रिजिजू ने न्यायपालिका को चेतावनी दी कि वह ‘लक्ष्मण रेखा’ पार करने की कोशिश न करे.
नये मुख्य न्यायाधीश ने पदभार संभाला, उससे पांच दिन पहले एक मीडिया सम्मेलन में रिजिजू ने कहा कि ‘अपारदर्शी’ और ‘जवाबदेही से मुक्त’ कॉलेजियम सिस्टम में ‘काफी राजनीति चलती है’. मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम चार जज सदस्य होते हैं और यह कॉलेजियम ही न्यायपालिका के उच्च पदों पर नियुक्ति करती है. सख्त बातें करते हुए मंत्री महोदय ने कहा कि सरकार हमेशा चुप नहीं बैठी रहेगी. यह लहजा रस्सियों के बल चढ़ाई करना, बर्फ वाला स्कूटर चलाना और पहाड़ों में साइकिल पर घूमना पसंद करने वाले मिलनसार फिटनेस गुरु के उनके व्यक्तित्व से कतई मेल नहीं खा रहा था.
दूसरी बात यह हुई कि मुंबई के आर.के. पठान नाम के एक व्यक्ति ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के यहां शिकायत दर्ज की कि जस्टिस चंद्रचूड़ जब सुप्रीम कोर्ट के जज थे तब उन्होंने एक ऐसे मामले में फैसला सुनाया था जिसमें उनके पुत्र अभिनव चंद्रचूड़ ने मुंबई हाइकोर्ट में वकालत की थी. पठान का आरोप था कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने वह फैसला सुनाकर अपने बेटे के क्लायंट की मदद की थी.
वकीलों के कई संगठनों ने न्यायाधीश का बचाव किया है. बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने जस्टिस चंद्रचूड़ के समर्थन में बयान जारी किया कि वह शिकायत ‘न्यायपालिका के कामकाज में दखल देने की एक शर्मनाक और दुर्भावनापूर्ण कोशिश है’. बयान में कहा गया है कि ‘चंद लोग उस शिकायत को वायरल कर रहे हैं’, जिनमें मुंबई के दो-तीन वकील भी शामिल हैं, और यह ‘जानबूझ कर’ तब किया गया है जब जस्टिस चंद्रचूड़ मुख्य न्यायाधीश का पदभार संभाल रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उस विवादास्पद पत्र के आधार पर दायर एक याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें मांग की गई थी कि जस्टिस चंद्रचूड़ को मुख्य न्यायाधीश का पदभार न संभालने दिया जाए.
तीसरी बात यह हुई कि दिल्ली हाइकोर्ट ने उस जनहित याचिका (पीआईएल) को खारिज कर दिया जिसमें जस्टिस चंद्रचूड़ को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किए जाने पर रोक लगाने की मांग की गई थी और यह जांच कराने की भी मांग की गई थी कि उनका ‘देशद्रोहियों और नक्सलवादी ईसाई आतंकवादियों के साथ कोई संबंध’ तो नहीं है. इसे इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट किया.
हाईकोर्ट ने इस याचिका को ‘प्रचार पाने की कोशिश’ बताकर खारिज कर दिया.
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मुख्य न्यायाधीशों के साथ विवाद क्यों
उपरोक्त तीनों बातें सतही तौर पर आपस में जुड़ी हुई दिखती हैं. कानून की डिग्री रखने वाले मगर कानूनी मामलों का कोई अनुभव न रखने वाले एक मंत्री 15 महीने पहले इस मंत्रालय का जिम्मा संभालते हैं और अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं.
वे मंत्रियों की उस आला जमात में शामिल होते हैं, जो कई मामलों पर सार्वजनिक तौर पर काफी सख्त बातें करते हैं, चाहे वह वित्तीय मामला हो या राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश संबंधों या शहरी विकास तक का. दूसरी बात उस व्यक्ति से संबंधित है जिसे बार काउंसिल के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने एक न्यायाधीश (अब सेवानिवृत्त) के खिलाफ झूठा मुकदमा दायर करने के लिए तीन माह की कैद के सजा दी थी.
और तीसरी बात तो बिल्कुल नादानी वाली है. तो हां यहां किस तरह की बातें कर रहे हैं? दरअसल, भारत के कई मुख्य न्यायाधीशों को राजनीतिक और गैर-राजनीतिक हलक़ों से इस तरह के दबाव झेलने पड़े हैं. याद कीजिए, अप्रैल 2021 में जस्टिस एन.वी. रमना जब मुख्य न्यायाधीश बने थे उस दौरान क्या कुछ हुआ था. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाइ.एस. जगन मोहन रेड्डी ने उनके खिलाफ गंभीर आरोप लगाते हुए 6 अक्टूबर 2020 को एक पत्र तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे को लिखा था. उसमें रेड्डी ने जस्टिस रमना पर आरोप लगाया था वे तेलुगू देशम नेता चंद्रबाबू नायडू को लाभ पहुंचाने के लिए न्याय प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं. रेड्डी जज की बेटियों के जमीन सौदों के बारे में प्रदेश के एंटी करप्शन ब्यूरो द्वारा की जा रही जांच का हवाला दे रहे थे. रेड्डी ने 6 अक्तूबर को जिस दिन वे मुख्य न्यायाधीश को पत्र भेजा उसी दिन नयी दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात भी की, जिसका मकसद यह बताया गया कि वे अपने प्रदेश के लिए एक सिंचाई योजना पर चर्चा करने के लिए उनसे मिले. रेकॉर्ड के लिए बता दें कि आंध्र हाईकोर्ट ने प्रदेश के एंटी करप्शन ब्यूरो के मामले को ‘अंधेरे में तीर चलाना’ बताकर खारिज कर दिया था.
बोबडे के पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई पर जब सुप्रीम कोर्ट की एक कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था तब उन्होंने (पीटीआई के मुताबिक) कहा था कि ‘इसके पीछे कोई बड़ी, बहुत बड़ी ताकत हो सकती है. दो कार्यालय हैं, एक प्रधानमंत्री कार्यालय और एक मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय. वे (इस विवाद के पीछे जो लोग हैं) मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को ठप करना चाहते हैं.’
गोगोई के पूर्ववर्ती जस्टिस दीपक मिश्रा मुख्य न्यायाधीश के पद की शपथ लेने से बहुत पहले ही विवादों में घिर गए थे. बताया जाता है कि मार्च 2017 में, अरुणाचल प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री कलिखो पुल की विधवा दांगविमसाई पहले तत्कालीन उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी से मिलीं और उन्हें एक पत्र के साथ अपने पति के कथित आत्महत्या नोट दिया जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर और उनके उत्तराधिकारी बनने वाले जस्टिस मिश्र पर विस्फोटक आरोप लगाए गए थे.
उपराष्ट्रपति के कार्यालय ने अंसारी और दांगविमसाई की मुलाकात की खबर का खंडन किया लेकिन तब तक वह कथित नोट काफी प्रसारित हो चुका था. कलिखो पुल ने जस्टिस खेहर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच के उस फैसले के एक महीने बाद खुदकुशी कर ली थी जिसमें अरुणाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार को फिर से बहाल करने का निर्देश दिया गया था. इस फैसले ने कांग्रेस से बगावत करने वाले पुल को आगे बढ़ाकर अपनी सरकार बनाने की भाजपाई कोशिश को विफल कर दिया था.
ऐसा चलन क्यों
ऊपर दिए गए उदाहरण देश के मुख्य न्यायाधीश को या इस पद पर आसीन होने वाले न्यायाधीश को ऐसे आरोप लगाकर बदनाम करने के एक चलन को उजागर करते हैं जिन आरोपों को कभी साबित नहीं किया जा सका. लेकिन इन कोशिशों ने देश के शीर्ष जजों को विवादों में जरूर घसीटा. 2016 में, जस्टिस खेहर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच ने संविधान के उस संशोधन को रद्द कर दिया था जिसके तहत कॉलेजियम सिस्टम को खत्म करके राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रस्ताव किया गया था जिससे राजनीतिक कार्यपालिका को न्यायिक नियुक्तियों में ज्यादा भूमिका निभाने का मौका मिलता. मोदी सरकार इस झटके को कभी पचा नहीं पाई.
कॉलेजियम का नेतृत्व करने वाले हरेक मुख्य न्यायाधीश को नियुक्तियों की अपनी सिफ़ारिशों के लिए कार्यपालिका से संघर्ष करना पड़ा है. उन्हें यह बात भी परेशान करती रही है कि जस्टिस खेहर के बाद अधिकतर मुख्य न्यायाधीशों, और उनके संभावित उत्तराधिकारियों को सावधान रहना पड़ा है कि राजनीतिक या गैर-राजनीतिक हलक़ों से उनकी छवि को दागदार बनाने की कोशिश न की जाए. जनता की धारणाएं उनके फैसलों को प्रभावित नहीं करतीं लेकिन वे राजनीतिक कार्यपालिका को निर्वाचित सरकार के वर्चस्व की मांग करने का साहस जरूर मुहैया कराती है.
नये मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ को अभी-अभी अग्निपरीक्षा देनी पड़ी है क्योंकि कुछ लोग उन पर बेमानी आरोप लगा कर उन्हें निशाना बना रहे हैं. लेकिन अभी एक बड़ी चुनौती उनका इंतजार कर रही है क्योंकि देश के कानून मंत्री सरकार के इस इरादे का संकेत दे रहे हैं कि वह न्यायिक नियुक्तियों में अपनी चलाने की ज्यादा कोशिश करेगी.
(एक क्षेपक : सुप्रीम कोर्ट के चार जजों के प्रेस कॉन्फ्रेंस के कुछ सप्ताह बाद मेरी मुलाक़ात भाजपा के एक पदाधिकारी से हुई. इन जजों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि ‘देखो जी, आप मीडिया वाले तो कभी लिखोगे नहीं. क्या आपको पता है कि भारत की न्यायपालिका कितने लोगों की मुट्ठी में है? सिर्फ 60 लोगों और उनके परिवारों के हाथ में. आप उन्हें गिन सकते हैं.’ ऐसा लगता है, राजनीति में वंशवाद के मुकाबले न्यायपालिका में वंशवाद से वे ज्यादा चिंतित थे.)
(अनुवाद- अशोक कुमार)
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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