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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतरूस के साथ जयशंकर की 'संतुलन बैठाने की कला' काफी स्मार्ट है, लेकिन जल्द की टूट सकता है अमेरिका का धैर्य

रूस के साथ जयशंकर की ‘संतुलन बैठाने की कला’ काफी स्मार्ट है, लेकिन जल्द की टूट सकता है अमेरिका का धैर्य

भारत जानता है कि जब असली संकट की बात आती है, तो यही पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं उसे इससे उबारती हैं - रूस नहीं. लेकिन इसे रूसी कच्चे तेल की भी सख्त जरूरत है.

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सिर्फ बुजदिल लोग ही अपनी विदेश नीति के विकल्पों में जानबूझकर विविधता लाने की भारत की रणनीति को मान्यता देने से इनकार करेंगे. पिछले दिनों विदेश मंत्री एस.जयशंकर रूस में थे. वहीं नौसेना प्रमुख आर. हरि कुमार ने हाल ही में सभी क्वाड देशों – ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका – की नौसेनाओं के अपने समकक्षों से मुलाकात की है, विदेश सचिव विनय क्वात्रा अमेरिका की यात्रा पर हैं, जबकि भारत और फ्रांस पश्चिमी हिंद महासागर में स्थित री-यूनियन द्वीप के आसपास संयुक्त अभ्यास कर रहे हैं.

इसमें दिलचस्प बात यह है कि जयशंकर और रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के बीच मॉस्को में और क्वात्रा तथा अमेरिकी उप विदेश मंत्री वेंडी शेरमेन के बीच वाशिंगटन डीसी में हुई बातचीत – 21 वीं सदी के लिए एक नए युग की त्रिपक्षीय बातचीत का एकदम सटीक उदाहरण.

जयशंकर-लावरोव की बैठक पर अमेरिकी प्रवक्ता नेड प्राइस ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘रूस सुरक्षा संबंधी सहायता के लिए एक विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता नहीं है. रूस किसी भी क्षेत्र में विश्वसनीय होने से बहुत दूर है.’ साथ ही, उन्होंने अपने बयान में विवेकपूर्ण ढंग यह भी जोड़ा कि चूंकि रूसी से ऊर्जा उत्पादों की खरीद प्रतिबंधों से मुक्त है, अतः भारत रूस पर लागू अमेरिकी प्रतिबंधों का उल्लंघन नहीं कर रहा है.

निश्चित रूप से जयशंकर एक नाजुक और संतुलित काम कर रहे हैं. भारत रूसियों का बहुत अधिक विरोध नहीं कर सकता क्योंकि उसे अपनी बदहाल अर्थव्यवस्था के पहियों की चिकनाई के रूप में रूस से रियायती कच्चे तेल की आवश्यकता है.

जयशंकर ही इस बात को सबसे बेहतर समझ सकते हैं कि अगर भारत द्वारा रूसी कच्चे तेल की खरीद का कोई अंत जल्द सामने नहीं आया, तो अमेरिका का धैर्य टूटना शुरू हो जाएगा. खासकर अगर यूक्रेन के राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की ‘यूक्रेनी थकान’ के बारे में अमेरिका की चेतावनियों की अनदेखी करते रहे.


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‘तीखे दर्द’ को रोकना ही होगा

सच तो यह है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने दुनिया को एक काफी अरुचिकर युद्ध में फंसा दिया है. लेकिन, जैसा कि उनके पूर्ववर्ती स्टालिन ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किया था, उन्होंने यह भी दिखा दिया है कि रूस की दर्द सहने की क्षमता लंबी और चिरस्थाई है. इसलिए, हजारों रूसी एक ऐसे युद्ध को लड़ते हुए अपनी जान दे देंगे, जिसे वे इस स्वार्थ भरे संघर्ष के दौरान पूरी तरह से समझ भी नहीं पा रहे हैं. लेकिन पुतिन के तब तक रुकने की संभावना नहीं है जब तक वह अपने उन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर लेते, जिन्हें उन्होंने अब तक दुनिया के बाकी देशों के साथ साझा तक नहीं किया है.

एक ऐसे देश से जिसे लड़ाई और अमेरिकी हथियारों की निर्बाध आपूर्ति की जा रही है, के साथ आंख से आंख मिलाकर जंग करते समय पुतिन भी अपने दुश्मन को उससे अधिक नुकसान पहुंचाने का प्रयास करेंगे जितना की वह उन्हें पंहुचा सकता हैं – जरा यूरोप का हाल देखें, जो सिर्फ इस वजह से बुरी तरह से आहत है क्योंकि वह अमेरिकी दबाव के कारण रूसी तेल नहीं खरीद सकता.

इसलिए, इस युद्ध का समाप्त होना अमेरिका के हित के लिए भी उतना ही अच्छा है, जितना शेष ‘ग्लोबल साउथ’ (तकनीकी और सामाजिक रूप से कम विकसित देश) के लिए जो ‘तीव्र दर्द’ से पीड़ित हो रहा है.


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भारत को जोड़े रखना

इस बीच, दिल्ली को अपने साथ जोड़े रखने के लिए रूसी भी अपने ‘प्लेबुक’ में उपलब्ध हर हथकंडे का इस्तेमाल करेंगे. इसलिए, लावरोव द्वारा भारत को बार-बार ‘विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदार’ के रूप में संदर्भित किया जाएगा, जबकि पुतिन खुद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को ‘महान देशभक्त जो एक स्वतंत्र विदेश नीति को आगे बढ़ाने में सक्षम है’ के रूप में वर्णित करके उनकी चापलूसी करेंगे.

अफगानिस्तान के मसले पर रूसी नेतृत्व वाली वार्ता में भाग लेने और भारत को फिर से आमंत्रित करने के जरिए रूस उस के लिए तालिबान के साथ संपर्क के दरवाजे खोल रहा है – निश्चित रूप से नई दिल्ली भी पाकिस्तान के गहरे असर वाले इस देश में अपनी उपस्थिति बनाए रखना चाहेगी.

मगर पुतिन को यह स्वीकार करना चाहिए कि यूक्रेन में उन्होंने जो कुछ भी किया है, उससे भारत बेहद असहज है – और मोदी ने 2022 के शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के दौरान समरकंद में उन्हें सीख देते हुए यह स्पष्ट कर दिया था – लेकिन निश्चित रूप से इतने महीनों के संघर्ष के बाद यह (रूस) बिना किसी वास्तविकता लाभ के पीछे हटने वाला नहीं है.

भारत और उसके राजनयिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं – वे अपनी सांस थामें हुए हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि देर-सबेर से किसी न किसी वाया-मीडिया (सम्पर्क के परोक्ष माध्यम) का पता चल ही जाएगा.

अमेरिका यह भी मानता है कि वह भारत को बहुत अधिक नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकता – तब तो और भी नहीं जब उसे चीन का मुकाबला करने के लिए भारत-प्रशांत क्षेत्र में इसकी आवश्यकता हो. तो क्या भारत को अब तक की तुलना में अधिक सहायता और निवेश प्राप्त करने की उम्मीद के साथ खुद को बूटस्ट्रैप (मौजूदा संसाधनों का उपयोग करके किसी खराब स्थिति से बाहर निकलना) करने के लिए अमेरिका और बाकी क्वाड देशों की जरूरत है. भारत यह भी जानता है कि जब असल संकट की बात आती है, तो यह पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं हैं जो इसे उबारेंगी न कि रूसी कंपनियां, जो वैसे भी अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित हैं.

शायद इसी कारण से जयशंकर ने लावरोव की ‘विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदार’ की तारीफ का समुचित जवाब न देते हुए को रूस को ‘ठोस, समय की कसौटी पर खड़ी उतरने वाले साझेदार’ के रूप में वर्णित किया.

कूटनीतिक शब्दजाल हर देश की विदेश नीति की ‘प्राण वायु’ होती है. जयशंकर के शब्दों के चयन के बारे में कोई भी इस बात पर आश्चर्यचकित हो सकता है और क्या वे भारत-रूस संबंधों के आई बहुत अधिक मामूली गिरावट का संकेत देते हैं.

फिलहाल इतना ही कहना काफी होगा कि भारत की ‘संतुलन बिठाने की कलाबाजी’ से कई अन्य देशों को ईर्ष्या हो सकती है. निश्चित रूप से वह रूस द्वारा यूक्रेन पर किये गए आक्रमण को स्वीकार नहीं करता है और चाहता है कि यह संघर्ष जितनी जल्दी संभव ही सके समाप्त हो जाएं, लेकिन वह अपनी इस आलोचना को खुद तक सीमित रखेगा – क्योंकि इसे अपनी राह के हर कदम पर रूसियों की जरूरत है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट की कंसल्टिंग एडिटर हैं और यहां व्यक्त विचार निजी हैं)


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