scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतब्रिटेन का इतिहास बताता है कि ऋषि सुनक का उदय क्या उसका नया, बहुलतावादी चेहरा पेश करता है

ब्रिटेन का इतिहास बताता है कि ऋषि सुनक का उदय क्या उसका नया, बहुलतावादी चेहरा पेश करता है

ऋषि सुनक के उत्कर्ष की कहानी और बातों के अलावा अंग्रेज कुलीन वर्ग की गतिशीलता और नस्लवाद के साथ उसके जटिल रिश्ते को उजागर करती हैं.

Text Size:

तरसेम सिंह संधु अभी बिस्तर में ही थे, और इस कशमकश में फंसे थे कि अपने वाहे गुरु के स्वर्णिम कानूनों का
पालन करें या ब्रिटेन में वॉल्वरहैम्प्टन के ट्रांसपोर्ट विभाग के सख्त नियमों को मानें. दूसरे नियोक्ताओं की तरह इस
विभाग ने भी समान आचार संहिता के तहत दाढ़ी-मूंछ पर पाबंदी लगा दी थी. इसलिए तरसेम जब पंजाब से
वहां पहुंचे तो उनके ताऊ ने उनके केश और दाढ़ी-मूंछ काट डाले. तरसेम ने बीमारी के नाम पर तीन सप्ताह
छुट्टी ले ली और फिर से अपनी दाढ़ी-मूंछ बढ़ा ली और पगड़ी लगाकर काम पर पहुंच गए. विभाग के बॉसों ने
इस युवा प्रवासी को वापस घर भेज दिया. लेकिन तरसेम के विरोध ने पहचान और नस्ल को लेकर उस संघर्ष
की शुरुआत कर दी जिसने एक दौर को दिशा दी.

जिस साल 1961 में तरसेम ने विरोध की आवाज़ उठाई थी उस साल इंग्लैंड कई सांस्कृतिक लड़ाई से घिर गया था. ‘रोलिंग स्टोन्स’ के कलाकार कीथ रिचर्ड्स और मैक जैगर को विचित्र ड्रग्स रेड के बाद गिरफ्तार किया गया, आपसी सहमति से समलैंगिक यौनाचार को अपराध के दायरे से हटाया गया, गर्भपात के अधिकार को मान्यता दी गई. आयातों में कटौती की हताश कोशिश के तहत पाउंड का अवमूल्यन किया गया.प्रतिकार भी आकार ले रहा था.

नवगठित ब्रिटिश नेशनल फ्रंट प्रवासी विरोधी हिंसा की नई लहर का अगुआ बन गया था और परिवर्तनों को लेकर श्वेत कामगारों के डर का फायदा उठा रहा था.

संभव है, यूनिवर्सिटी ऑफ लीवरपूल में मेडिकल की पढ़ाई शुरू करने वाले, केन्या में जन्मे यशवीर सुनक भी एम-6 से करीब 100 मील दूर रहते हुए घटनाओं को आश्चर्य और भय से देख रहे होंगे. दूसरे पूर्वी अफ्रीकी एशियाईयों की तरह यशवीर और उनकी भावी पत्नी सरक्षा सुनक भी बढ़ते नस्लीय तनावों के बीच अपना देश छोड़ चुके थे. इंग्लैंड उनका आखिरी शरणस्थल था लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि प्रवासियों के लिए स्वागत भाव कब तक रहेगा.

उनके पुत्र ऋषि सुनक आज प्रधानमंत्री हैं, उस पार्टी के नेता जो लंबे समय तक इंग्लैंड को श्वेत रंग में रंगती रही. क्या यह उस नए ब्रिटेन की अंतिम विजय है जो 1960 के दशक में शुरू हुई सांस्कृतिक लड़ाइयों में से उभरा था, या प्रतिक्रियावादी अंग्रेज़ शासक वर्ग ने खुद को अधिक रंगीन बनाकर अपनी नई ब्रांडिंग कर ली है?


यह भी पढ़ेंः क्या ‘अयोध्या की गंगा’ को फिर जीवित करने का काम भी गंगा की सफाई की तर्ज पर हो रहा


नस्लवाद और अंग्रेज शासक वर्ग

उपन्यासकार जॉर्ज ऑर्वेल ने 80 साल पहले लिखा था कि अंग्रेज़ शासक वर्ग ‘वह कुलीन वर्ग है जिसमें नव-
धनाढ्यवर्ग (वह व्यक्ति जो उच्च श्रेणी के सामाजिक-आर्थिक वर्ग से नया जुड़ा हो) से नए रंगरूट निरंतर भर्ती होते रहते हैं’. ऑर्वेल ने कहा था कि इंग्लैंड के स्वामियों में खुद को नया करने की जबरदस्त क्षमता है, ‘उस चाकू जैसी जिसमें दो धार और तीन नए हैंडल होते थे’. पुराने जमींदारों का प्रभाव भले खत्म हो गया हो, उसने उद्योग जगत के नये कुलीनों से रिश्ता गांठ लिया. ‘अमीर पोत मालिक या कपड़ा मिल मालिक ने एक कंट्री जेंटलमैन के रूप में अपनी छवि पेश की जबकि उनके बेटों ने पब्लिक स्कूलों में सही तहजीब सीख लिया’.

सुनक के उत्कर्ष की कहानी और बातों के अलावा अंग्रेज़ कुलीन वर्ग की गतिशीलता और नस्लवाद के साथ उसके
जटिल रिश्ते को बताती है.

इतिहासकार फिलिप मॉर्गन और शौन हॉकिन्स ने कहा है कि अपने प्रारंभिक दशकों से शाही ब्रिटेन ने शिक्षा का उपयोग देसी मध्यवर्ग के निर्माण किया, जो अपनी संस्कृति और मूल्यों से ओतप्रोत हो. दादाभाई नौरोजी की कहानी मशहूर है. एक राष्ट्रवादी के रूप में शुरुआत करके वे दूसरे भारतीय थे, जो 1892 में ब्रिटिश सांसद बने. उनसे पहले एंग्लो-इंडियन डेविड ऑक्टरलोनी डाइस सोंबरे 1841 में ब्रिटिश सांसद बनने वाले पहले भारतीय थे. स्कॉलर सुमिता मुखर्जी बताती हैं कि कम लोगों को पता है कि कंजर्वेटिव पार्टी को भी 1895 में एक भारतीय सांसद मिला था.

हालांकि नस्लवाद सतह के नीचे कुलबुला रहा था—पराजित उम्मीदवार जॉर्ज हॉवेल ने लिखा कि उन्हें ‘एक अश्वेत ने झटका दिया’—लेकिन विक्टोरियाई तहजीब वाले इंग्लैंड ने देसी भद्रता का सहारा लिया. इतिहासकार जोनाथन शीयर का कहना है कि पारसी मूल के कंजर्वेटिव नेता मांचरजी भोवनाग्ग्री अंग्रेजों वाली महत्वाकांक्षा रखने वाले भारत के प्रतीक थे—’वफादार, सम्मिश्रित, चापलूस’. कहा जा सकता है कि कंजर्वेटिव पार्टी में आज जितनी नस्लीय विविधता है उतनी पहले कभी नहीं रही.

प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के उत्तराधिकारी माने जाने वाले 10 में से 6 उम्मीदवार—सुएल्ला ब्रेवरमैन, केमी बेडेनोश, नदीम जहावी, साजिद जावेद, और रहमान चिश्ती—जातीय अल्पसंख्यक थे. टोरियों (कंजर्वेटिव पार्टी वालों) ने ब्रिटेन को प्रीति पटेल के रूप में पहली महिला गृह मंत्री दिया और सईदा वारसी के रूप में पहली मुस्लिम महिला कैबिनेट मंत्री दिया. लिज़ ट्रस्स का अल्पजीवी मंत्रिमंडल ब्रिटिश इतिहास में सबसे ज्यादा विविधताओं से भरा मंत्रिमंडल था.

हालांकि विविधता का स्वागत है लेकिन यही पूरी कहानी नहीं है. आज कंजर्वेटिव पार्टी वाले विशेषाधिकार प्राप्त तबके वाले हैं. शोध बताता है कि पूर्व प्रधानमंत्री जॉनसन के दो तिहाई मंत्रिमंडल की तरह सुनक ने भी उन निजी स्कूलों में पढ़ाई की जिनमें दाखिला लेने की सामर्थ्य महज 7 फीसदी ब्रिटेन वालों की है. पूर्व प्रधानमंत्री डेविड केमरून के 50 फीसदी मंत्री भी निजी व स्वतंत्र स्कूलों से पढ़ाई करने वालों में थे.

एकेडमिक शोध बताता है कि कंजर्वेटिव पार्टी में श्वेत ही बहुसंख्यक हैं. उसके कार्यकर्ता बहुसंस्कृतिवाद, समलैंगिक विवाह आदि का विरोध करते हैं, मौत की सजा के समर्थक हैं और यूरोप विरोधी हैं.


यह भी पढ़ें-गुजरात के इस कैफे को क्यों पसंद है प्लास्टिक कचरा, वजह जानकर होगा गर्व


विरोधी प्रवासी और श्वेत राष्ट्रवादी

तरसेम संधु ने पगड़ी के मसले पर जब विरोध किया था, कंजर्वेटिव पार्टी के उभरते सितारे इनोच पॉवेल ने वालथामस्टो में अपने समर्थकों के बीच दिए भाषण में, जिसे 1968 का बदनाम भाषण कहा जाता है, घोषणा की थी कि ‘विशेष सांप्रदायिक अधिकारों—बल्कि मैं कहूंगा, रिवाजों— का दावा करने से समाज का खतरनाक विभाजन होता है.’ उन्होंने आगे कहा था कि प्रवासियों की संख्या बढ़ेगी तो वे ‘एकजुट होंगे, अपने साथी नागरिकों के खिलाफ आंदोलन और मुहिम चलाएंगे और दूसरों पर अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश करेंगे.’

उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि ‘अगले 15-20 सालों में इस देश में श्वेतों के ऊपर अश्वेतों का कोड़े वाला हाथ हावी होगा.’

सुनक का उत्कर्ष यह सोचने को प्रेरित करता है कि इतिहास में भी हास्यबोध होता है. कंजर्वेटिव नेताओं के प्रवासी विरोधी सेडिस्टिक जैसी मानसिकता (मसलन, ब्रेवरमैन ने कहा कि वे हमेशा सोचती रहती हैं कि शरण मांगने वालों को रवांडा रवाना कर देना चाहिए) से यही संकेत मिलता है कि इस तरह के आकलन को तरजीह नहीं मिलनी चाहिए. ब्रेवरमैन की तरह दूसरे अ-श्वेत कंजर्वेटिव नेताओं की तरह सुनक भी रवांडा रवाना करने के पक्ष में हैं. वे भारत जैसे देशों को लोगों को भविष्य में इस शर्त पर वीसा देने की बात कर सकते हैं कि उनकी सरकारें अवैध प्रवासियों की अपने यहां वापसी कबूल करें.

इस तरह की भाषा ब्रिटिश कंजर्वेटिव राजनीति के संदर्भ में अहम हो जाती है. 1960 के दशक शुरू में सिरिल ओसबोर्न सरीखे लोकप्रिय कंजर्वेटिव सांसद ने अपने पुराने उपनिवेशों से प्रवासियों के आगमन के खिलाफ बयान दिया है. एक इंटरव्यू में ओसबोर्न ने कहा है कि इंग्लैंड ‘श्वेतों का देश है, और मैं चाहता हूं कि यह ऐसा ही रहे.’ कंजर्वेटिव उम्मीदवार पीटर ग्रिफिथ ने 1964 के चुनाव अभियान के दौरान साफ नस्लवादी भाषा में कहा था, ‘अगर आप निग्गर पड़ोसी चाहते हैं तो लिबरल या लेबर पार्टी को वोट दीजिए.’

कंजर्वेटिव पार्टी की दक्षिणपंथी आर्थिक शाखा के एडवर्ड बॉयल और इयान मैक्लेओड ने कहा कि प्रवासी लोग वेतन में वृद्धि को रोकने में अहम भूमिका निभा रहे हैं. इन भाषणों के कारण सामाजिक असंतोष के खतरों ने भावी प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ को मजबूरन पॉवेल को 1968 के नस्लवादी भाषण के कारण अपने ‘शैडो कैबिनेट’ से निकालना पड़ा. इसके दस साल बाद पॉवेल ने अपनी किताब में लिखा : ‘कोई भी राजनीतिक जीवन हो, वह अंततः विफल रहता है.” वे गलत थे.


यह भी पढ़ें: ‘केजरीवाल BJP की B टीम हैं’- मुस्लिम नेताओं ने नोटों पर ‘ध्रुवीकरण की राजनीति’ के लिए दिल्ली CM पर साधा निशाना


नया कंजर्वेटिज्म

1978 के शुरू में विपक्षी नेता मारग्रेट थैचर ने—जो जल्द ही प्रधानमंत्री बनने वाली थीं— श्वेतों की इस आशंका को सामने रखा था कि ‘यह देश एक दिन अलग संस्कृति के लोगों से भर जाएगा.’ डेनिएल ट्रिलिंग ने कहा कि इन बयानों के बाद लेबर पार्टी के प्रति समर्थन में नाटकीय कमी आई. थैचर की नस्लवादी राजनीति ने हीथ वाले पारंपरिक किस्म के कंजर्वेटिज्म से पॉवेल वाले तीखे श्वेत लोकलुभावनवाद की ओर नाटकीय झुकाव को रेखांकित किया. प्रवासियों के मामले पर थैचर का सख्त रुख न केवल श्वेत कामगार वर्ग का समर्थन हासिल करने के लिए था बल्कि धुर दक्षिणपंथियों में अपने विरोधियों को कुचलने के लिए भी था.

समाजविज्ञानी जेनी बूर्न का कहना है कि थैचर ने सरकारी बहुसंस्कृतिवाद की नींव भी दुरुस्त की और एक तरह के अनौपचारिक रंगभेद को जन्म दिया जिसने प्रवासी समूहों को स्पष्ट जातीय-धार्मिक खंडों में बांटा और उनकी आर्थिक मजबूती की जगह उनकी कथित सांस्कृतिक जरूरतों पर ज़ोर दिया.

लगातार पराजयों से सबक लेकर डेविड केमरून (2010-16 के बीच प्रधानमंत्री) ने ज्यादा संख्या में जातीय अल्पसंख्यकों और महिलाओं को जोड़ा. केमरून ने कहा कि लेबर पार्टी को हटाना है तो ऐसी पार्टी चाहिए जो ‘शहरी, उदारवादी ब्रिटेन’ को आकर्षित करे. लेकिन पार्टी फिर दक्षिणपंथ की ओर झुक गई और राष्ट्रवादियों ने ब्रेकसिट’ के मसले पर केमरून का तख़्ता पलट दिया.

जॉनसन की सरकार ने श्वेतवाद को फिर केंद्रीय मंच पर ला दिया. पिछले वर्ष उनकी सरकार ने नस्लीय रिश्तों पर जो रिपोर्ट जारी की उसमें यह विवादास्पद सलाह दी गई कि ऐसे इतिहास केलिए जगह हो सकती है जो ‘दास युग के बारे में केवल मुनाफे और तकलीफ़ों की बातें नहीं करता बल्कि यह बताता है कि अफ्रीकी लोगों ने किस तरह खुद को बदल दिया.’ प्रधानमंत्री बाद में इस रिपोर्ट से मुकर गए, जिस पर आरोप लगाया गया कि वह ब्रिटेन में नस्लीय असमानताओं को छिपाने की कोशिश करती है.

यह फैंटसी कि इंग्लैंड नस्लवाद की समाप्ति के बाद के दौर में प्रवेश कर रहा है, सच्चाई से दूर है. उसके राजनीतिक परिदृश्य पर रंगों की जो सतह दिखती है उसने अपने नीचे सामाजिक ज्वार का दुखद, धूसर रंग छिपा रखा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


यह भी पढ़ें: PFI पर पाबंदी काफी नहीं, सिमी पर बैन से इंडियन मुजाहिदीन बनने का उदाहरण है सामने


 

share & View comments