scorecardresearch
Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमत‘आत्मनिर्भरता’ की खातिर मोदी सरकार सेना के सामने रख रही है असंभव लक्ष्य

‘आत्मनिर्भरता’ की खातिर मोदी सरकार सेना के सामने रख रही है असंभव लक्ष्य

भारतीय सेना के लिए जरूरी सभी मिलिटरी सिस्टम्स का उत्पादन मुमकिन नहीं है इसलिए आयात पर रोक चिंता की वजह बन रही है.

Text Size:

रक्षा मंत्रालय द्वारा आयोजित की जाने वाली रक्षा प्रदर्शनी ‘डेफएक्स्पो’ का 12वां आयोजन 18 से 22 अक्टूबर
तक गुजरात के गांधीनगर में किया गया. ‘आत्मनिर्भरता’ की भावना के साथ, पहली बार केवल ‘भारतीयों’ को
इस प्रदर्शनी में भाग लेने का मौका दिया गया. ‘भारतीयों’ की परिभाषा में भारतीय कंपनियों, मौलिक सैन्य
साजो-सामान बनाने वाली विदेशी कंपनियों की सहायक कंपनियों, भारत में पंजीकृत कंपनियों के डिवीजनों,
और भारतीय कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम चलाने वाले एक्जीबिटर्स को शामिल किया गया. प्रदर्शनी की
थीम थी— ‘गौरव पथ’.

आयोजन का उद्देश्य रक्षा संबंधी जरूरतों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में प्रगति का प्रदर्शन
करना था. प्रदर्शनी में 1,300 से ज्यादा की रेकॉर्ड संख्या में भागीदारों ने हिस्सा लिया. प्रधानमंत्री मोदी ने इसका
उद्घाटन किया और अपने खास अंदाज में प्रशंसा की कि भारत किस तरह अपनी वैज्ञानिक क्षमता, मानव
पूंजी, और उद्यमशीलता के बूते रक्षा आयातों पर निर्भरता से उबर रहा है, जिसकी शुरुआत वे पहले कर चुके हैं
और ‘आत्मनिर्भरता’ का आह्वान किया है.

वास्तव में, रक्षा मामलों में आत्मनिर्भरता को एक ऐसी खोज कहा जा सकता है जो विदेश पर निर्भरता से कभी
पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकती. इसकी वजह यह है कि कोई भी उन तमाम सैन्य सिस्टम्स का उत्पादन नहीं कर
सकता जिसकी जरूरत भारतीय सेना को राष्ट्रीय सुरक्षा के वास्ते तैयार करने के लिए है ताकि वह तेजी से हो
रही तमाम तकनीकी प्रगति और भू-राजनीतिक खतरों का सामना कर सके. अधिकतर बड़ी सैन्य प्लेटफॉर्मों-
विमान, मिसाइल, युद्धपोत, पनडुब्बी और टैंक- के लिए बड़ी और छोटी, दोनों तरह की सब-सिस्टम्स की
जरूरत होगी जिन्हें विदेश से मंगाया जा सकता है.

लेकिन ऐसी गतिशील, रणनीतिक और बाजार की ताकतों का ऐसा जटिल जाल होता है जो उन तक पहुंच में बाधा बनता है. पर अनुसंधान एवं विकास, औद्योगिक आधार और वित्तीय साधन की उपलब्धता के मामले में राष्ट्रीय क्षमताओं की वजह से पैदा होने वाली बाधाओं के बावजूद विदेश पर निर्भरता को यथासंभव कम करने के तर्क को नकारा नहीं जा सकता.


यह भी पढ़े: ‘वंदे मातरम्’ का आदेश जारी होने के बाद भी महाराष्ट्र सरकार के कर्मचारी फोन पर ‘हैलो’ बोलकर जवाब दे रहे


आयात पर रोक ‘चिंताजनक’ पहल आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं. इन सभी और दूसरे कदमों के ऊपर उन चीजों की बड़ी होती सूची है जिनके आयात पर रोक लगाई है जिसे ‘सकारात्मक देसीकरण सूची’ (पीआईएल) कहा जाता है. पहली सूची में 101 चीजों के नाम हैं. यह सूची अगस्त 2020 में लागू की गई और चौथी सूची की घोषणा डेफएक्स्पो 2020 के उद्घाटन समारोह में की गई और कुल मिलाकर 411 चीजों के आयात पर रोक लगा दी गई है.

कहा जाता है कि इन सूचियों को सेना, जनता और कॉर्पोरेट क्षेत्र से व्यापक विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया है. हर एक चीज के लिए एक कट-ऑफ समय सीमा तय की गई है, जिसके बाद उसके आयात पर रोक लागू हो जाएगी. उम्मीद की जाती है कि इस समय सीमा में उस चीज का देश में विकास करके जारी कर दिया जाएगा. यह एक उम्मीद है और कई मामलों में पूरी नहीं भी हो सकती है, और यह सेना के लिए चिंता का बड़ा कारण है. आयात पर रोक की समय सीमा तय करते समय डिजाइन, विकास और उत्पादन के साथ सबसे महत्वपूर्ण है अधिग्रहण की प्रक्रिया पर ध्यान देना बहुत जरूरी है.

उदाहरण के लिए, सेना के ऑपरेशन के लिए हल्के टैंक की जरूरत को लें, जिस पर तभी ध्यान दिया गया जब चीन ने 2020 में पूर्वी लद्दाख में हमला किया. टैंक की तुरंत जरूरत है, लेकिन 2022 में जारी तीसरी सूची में तीन साल की समय सीमा दी गई है.

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के प्रमुख जी. सतीश रेड्डी ने 2022 में दावा किया कि हल्के टैंक
का विकास लार्सन ऐंड टूब्रो में काफी आगे के चरण में पहुंच चुका है और 2023 से उत्पादन शुरू हो जाएगा. जानकार लोगों को पता है कि इस तरह की समय सीमा हसीन सपने जैसे होते हैं. ऑपरेशन संबंधी जरूरत के कारण न्यूनतम संख्या में हल्के टैंक रूस से आयात करने के पर्याप्त कारण थे, जो अभी भी उपलब्ध हैं.

लेकिन रोक लग जाने के कारण पूरी संभावना है कि सेना में हल्के टैंक को शामिल करने में पांच-सात साल लग सकते हैं, और यही उम्मीद की जा सकती है कि तब तक उनकी कमी दूसरी चीजों से पूरी की जाएगी. ऐसा उस सूची में दर्जा कई चीजों के मामले में होगा, जिनमें हेलिकॉप्टर, विमान, टैंक, युद्धपोत आदि शामिल हैं.

कहा जा सकता है कि यह सूची इन चीजों से जुड़े संस्थानों के प्रयासों को और एकजुट करके ‘आत्मनिर्भरता
मिशन’ को पूरा करने की तेजी प्रदान करेगी. यह सच भी हो, तो रक्षा साजो-सामान का विकास और उन्हें सेना
में शामिल करना समय लेने वाली प्रक्रिया होती है और यह कहना मुश्किल होता है कि उनकी डिलीवरी कब हो
पाएगी, जैसा कि तोपों, पनडुब्बियों, विमानवाही पोतों, बख्तरबंद वाहनों, हल्के लड़ाकू विमानों आदि से जुड़ी
बड़ी/छोटी सिस्टम्स के मामले में हुआ.

निजी और सार्वजनिक क्षेत्र से की गई मांगों को पूरा करने में असमर्थता का सेना के ऑपरेशनों की प्रभावशीलता पर गंभीर असर डाल सकती है, जिसे उन साजो-सामान से ही काम चालाना पड़ सकता है, जिन्हें तुरंत बदलना जरूरी है.


यह भी पढ़े: मोदी के नेतृत्व के लिए तैयार है दुनिया, भारत के लिए काफी अहम हैं अगले 25 साल: केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह


चरणों में हासिल करें ‘आत्मनिर्भरता’

अगर भारत की तात्कालिक और मध्यावधि सैन्य चुनौतियों की मांग है कि साजो-सामान को उपलब्ध कराना सबसे जरूरी है, तो जाहिर है कि यह प्रतिबंधों के जरिए आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने का समय नहीं है. इसलिए, आश्चर्य नहीं कि 2020 में पूर्वी लद्दाख में चीनी हमले के बाद आपात खरीदारियां की गईं. ऐसा वर्षों से होता रहा है. प्रतिबंध सूची का बड़ा असर यह होता है कि कई बेहद जरूरी चीजों को अधिग्रहण प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता जबकि यूजर को उनकी जरूरत होती है. इससे तो बचा ही जा सकता है.

जाहिर है, ‘आत्मनिर्भरता’ का महत्वाकांक्षी लक्ष्य हमें वह हासिल करने की कोशिश करने को मजबूर कर रहा जो असंभव है. ऐसा खासकर इसलिए है कि हथियारों का व्यापार एक जटिल मामला है, जिसके साथ अब बढ़ता वैश्विक तनाव भी जुड़ गया है और इसमें आर्थिक प्रतिबंधों तथा टेक्नोलॉजी निषेध का खेल भी खेला जाता है.

उत्पादन बढ़ाकर लागत घटाने की अर्थव्यवस्था पर आधारित देसीकरण के साथ एक हथियार निर्यातक बनने की क्षमता भी विकसित करने का पहलू भी जुड़ा होता है. इसे मान्य करते हुए प्रासंगिक दिशाओं में प्रयास किए जा रहे हैं. लेकिन यह स्पष्ट है कि रक्षा मंत्रालय ने 2025 तक 35,000 करोड़ रुपये मूल्य का जो निर्यात लक्ष्य रखा है, वह वास्तविकता से दूर है और यह वेंडरों को प्रभावित करेगा, जिन्हें उत्पादन के इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश के एवज में अनुमानित ऑर्डरों को लेकर कुछ आश्वासन की जरूरत होती है.

‘आत्मनिर्भरता’ लंबे समय तक निरंतर प्रयास करके ही हासिल की जा सकती है और इसमें सेना की तात्कालिक और मध्यकालिक क्षमता पर पड़ने वाले कुप्रभावों का ध्यान रखा जाना चाहिए. यह अपने आप में एक लक्ष्य नहीं हो सकता बल्कि इसका रणनीतिक मकसद उस संभावना से बचने का होना चाहिए जब विदेशी सप्लायर निर्णायक मोड़ पर उन कारणों से मिलिटरी सिस्टम्स और सब-सिस्टम्स की आपूर्ति अचानक बंद कर दें जिन कारणों पर हमारा नियंत्रण नहीं है.

आज जरूरत इस बात की है कि इस मसले पर नजरिया बदला जाए और वह सिविल-मिलिटरी के बीच निरंतर और संतुलित संवाद से विकसित हो. सेना से बाहर के लोग हमेशा सही नहीं होते इसलिए अगर सेना की आवाज़ दबी हुई है या सशंकित है तो उसके ऑपरेशन की तैयारियों को नुकसान पहुंचेगा. आज, 1962 के भारत-चीन युद्ध की 60वीं वर्षगांठ पर हम उसके ऐतिहासिक सबक को न भूलें.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूट में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है.)


यह भी पढ़े: मोदी-शाह का हिंदी पर जोर देना ठीक है लेकिन पहले योगी, सरमा, साहा से भी तो पूछ लेते


 

share & View comments