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Tuesday, 19 November, 2024
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मुस्लिम सिक्कों पर शिव के बैल: हिंदू तुर्क शाह की अजीब दुनिया

अफ़ग़ानिस्तान में भूकंप से हुए बदलाव ने उत्तरी भारत को 12वीं शताब्दी में और भी अजीब चीजों से रू बा रू कराया. तुर्की पत्नियों के साथ कश्मीरी राजा और तुर्की के महाराजाधिराज

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मौजूदा दौर के अफगानिस्तान में सदियों पहले गजनी के महमूद, काबुल के शाह महाशक्ति हुआ करते थे. 7वीं से 10वीं शताब्दी तक, उन्होंने अरबों और अफगानों के साथ युद्ध किया और कश्मीरियों और खोतानियों के साथ रिश्ता जोड़ा. उनका नाम कट्टर इस्लामी शासकों में भले शुमार है, लेकिन दरअसल काबुल के शाह मध्ययुग में हमारी ही दोहरी धारा से जुड़े हैं. अधिकांश काबुल शाह बौद्ध या ‘हिंदू’ थे और मौजूदा दौर के पाकिस्तान और मध्य एशिया के कुछ हिस्सों के कबीलों के ही वंशज थे. उनका हाथी की सवारी करने वाले मुल्तानी अमीरों और सिंधी अरबों के साथ सहज रिश्ता था, जो दक्कन के शैव और जैन राजाओं जैसे झुमके-बालियां कान में पहना करते थे.

दक्षिण और मध्य एशिया की सेनाओं के जरिए हिंदू और मुस्लिमों के खिलाफ एक जैसा जिहाद करने वाले गजनी के महमूद के माध्यम से थिंकिंग मिडिवल के अंतिम संस्करण में थोड़ी बाद की अवधि (10वीं सदी के अंत और 11वीं सदी की शुरुआत) के बारे में बताया गया है. लेकिन महमूद की गतिविधियां, जैसा कि हम देखेंगे, मध्यकालीन अफगानिस्तान के बहुसांस्कृतिक संसार से अलग नहीं थीं, जो यूरेशिया के दरवाजे या चौराहे जैसा रहा है.


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काबुल में मिली-जुली शाही पहचान

छठी सदी में, भारी भूकंप से गंधार क्षेत्र तहस-नहस हो गया, जो मौजूदा दौर के उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में हुआ करता था. कभी हफथाली, कुषाण, इंडो-पार्थियन और इंडो-यूनानी लोगों की यह धरती एक गेटवे की तरह थी, जिसके रास्ते मध्य एशिया के लोग भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करते थे. यह बौद्ध धर्म और व्यापार का प्रमुख केंद्र भी था, जहां दूरदराज चीन से भी तीर्थयात्री आया करते थे. यह उपमहाद्वीप का ‘सीमांत’ (फ्रंटियर) नहीं, बल्कि गांधार उस संस्कृति की प्रमुख घटनाओं का अभिन्न अंग था, जिसे आज हम भारतीय संस्कृति मानते हैं. यहीं पर सबसे पहले ज्ञात दरबारी संस्कृत ग्रंथ, अश्वघोष के बुद्धचरित की रचना की गई थी. कार्लटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रिचर्ड मान ने यह भी दिखाया है कि स्कंद जैसे हिंदू देवताओं की प्रतिमा का स्वरूप पहले गांधार में ही रचा गया और वहीं से पूरे उपमहाद्वीप में पहुंचा.

गांधार का पतन आदान-प्रदान और आवाजाही के दूसरे रास्तों के खुलने से हुआ. लोगों और सामान की आवाजाही अब अफगानिस्तान के काबुल और गजनी शहरों से हिंदू कुश पर्वतों के दक्षिणी भाग के जरिए उपमहाद्वीप में होने लगी. उसी दौरान तुर्की भाषा बोलने वाले समूहों का इस क्षेत्र पर आधिपत्य हो गया और वे वहां की धर्म-संस्कूति में रच-बस गए. आज तुर्क शाही या काबुल शाही के नाम से जाने जाने वाले शासकों ने इस क्षेत्र में लोकप्रिय बौद्ध और ‘हिंदू’ धर्म दोनों के ही देवताओं की उपासना किया करते थे. उनके राज में कॉस्मोपॉलिटन या बहुसांस्कृतिक समाज कायम रहा और कला के अनोखे स्मारक बनावाए. मसलन, सूर्य की संगमरमर की मूर्ति, जो बड़ा तुर्की चोगा और जुते पहने चित्रित की गई है.

खैर कानेह का सूर्य, काबुल, 7-8वीं शताब्दी, काबुल संग्रहालय | विकिमीडिया कॉमन्स

काबुल के शाहियों और अन्य स्थानीय सरदारों का पड़ोसी ईरान में अब्बासिद खलीफा की बढ़ती ताकत से जटिल संबंध था. खास मौके पर अब्बासिद की ताकत से प्रभावित होकर ये शासक इस्लाम में ‘कन्वर्ट’ हुए और फारसी संस्कृति को अपनाया (लेकिन बावजूद उसके अपने सिक्कों में संस्कृत का ही प्रयोग करते रहे). बौद्ध या हिंदू शासकों ने बाहरी खतरों के मद्देनजर स्थानीय मुस्लिम सरदारों के साथ वैवाहिक रिश्ते किए, जैसा कि दि किंगडम ऑफ बामियान में डेबोरा क्लिम्बर्ग-साल्टर ने जिक्र किया है. लेकिन पहचान और उपासना विधियां लचीली थी. क्लिम्बर्ग-साल्टर ने अपने 2009 के अध्ययन कॉरिडोर्स ऑफ कम्युनिकेशन अक्रॉस अफगानिस्तान, सेवेंथ टु टेंथ सेंचुरी में दर्ज किया है कि उस दौर में कई शहरों में सभी समुदाय साथ-साथ रहते थे और उनके रीति-रिवाज, पवित्र स्थल और तीर्थ स्थल साझा थे.

इतिहासकार फिनबार बैरी फ्लड ने ऑब्जेक्ट्स ऑफ ट्रांसलेशन में सीमाओं के लचीलेपन का एक दिलचस्प उदाहरण पेश किया है. वे एक व्यापारी का जिक्र करती हैं, जो अफगानिस्तान (जो तब इस्लामी दुनिया की सीमा हुआ करता था) में मूर्तियों की पूजा-अर्चना करता है और इराक में लौटने पर मस्जिदों में जाया करता था. इस तरह के व्यापारी, सीमाओं और अपनी पहचान के आर-पार आवाजाही करने वाले ऐसे व्यापारी ही काबुल के शाहियों की धन-संपत्ति के लिए महत्वपूर्ण थे, जिनका राज मौजूदा दौर के पंजाब के कुछ हिस्सों तक फैला था और कश्मीर तथा झिंजियांग में शासकों के साथ गठबंधन थे.

लचीली शाही पहचान दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया की सीमा प्रांतों में पाई जा सकती है. फ्लड फिर मुल्तान और सिंध के मुस्लिम अमीरों की चर्चा करती हैं. दोनों ने ही शैव और जैनियों की कुलीन सांस्कृतिक प्रथाओं को अपनाया था. मुल्तान का अमीर हर हफ्ते किसी महाराजा की तरह हाथी पर सवार होकर शहर की मस्जिद में जाया करता था. दक्कन के राष्ट्रकूट साम्राज्य के करीबी व्यापारिक भागीदार सिंध का अमीर दक्षिण एशियाई राजाओं की तरह लंबे बाल रखता था और कान में बाली पहना करता था. फिर भी वे खुद को पक्के मुसलमान ही माना करते थे.


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पूरी तरह हिंदू या मुस्लिम क्षेत्र नहीं

9वीं सदी तक, मध्य एशिया के दूसरे तुर्क समूह, खासकर ओगुज तुर्कों की पश्चिम एशिया के मामलों में दबदबा बढ़ने लगा था. वे अब्बासिद खलीफा की फौज में गुलामों की भर्ती के प्राथमिक स्रोत थे, लेकिन 10वीं सदी में ईरान में खलीफा का दबदबा घटने लगा. उस पर सफ्फारिद और समानिद जैसे आक्रामक फारसी रियासतों ने जीत हासिल कर ली. एक-दूसरे के खिलाफ जंग में उन्हें ऐसे फौजियों और स्थानीय सरदारों की मांग बहुत ज्यादा थी, जो अमूमन बौद्ध थे. ऐसी गतिविधियों से जमा हुए धन की वजह से इस सीमावर्ती क्षेत्र में एक नए तुर्क-फारसी सांस्कृतिक दायरे को धीरे-धीरे मजबूत मिली. एक सदी बाद गजनी का महमूद ऐसे ही समाज उपज था.

उसी दौर के आसपास तुर्क शाहियों को एक राजवंश ने उखाड़ फेंका, जिसे ‘हिंदू’ शाही कहा जाता था और आज उसे एक तरह के ‘भारतीय’ माना जाता है. दरअसल, इतिहासकार अब्दुर रहमान के अनुसार, वे शायद अब लुप्त हो चुके जातीय समूह थे, जिन्हें ओडि कहा जाता था, जो मौजूदा पाकिस्तान का मूल निवासी गांधारी समुदाय था. ये ओडी शाही का काबुल क्षेत्र में दबदबा था और बड़ी ताकत माने जाते थे. वे उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी सीमांत के भू-राजनीतिक संघर्षों और संबंधों में सक्रिय थे और स्थानीय सरदारोंं और राजाओं से वैवाहिक रिश्ते कायम करते थे, चाहे वे हिंदू, बौद्ध, या मुसलमान हों. प्रसिद्ध कश्मीरी रानी दिद्दा ओडी शाही वंश की थीं. उनके सिक्के का प्रचलन अधिकांश पूर्वी यूरेशियाई क्षेत्र में था, जो चांदी भारी मात्रा वाले थे और जिनके एक तरफ एक घुड़सवार और दूसरी तरफ लेटे हुए नंदी का चित्र हुआ करता था.

Coinage of the Saffarid Governor of Kabul, issued circa 870 CE on the Hindu Shahi model. Abassid dirhman weight standard, and Arabic mention adl (justice) on the obverse | Wikimedia Commons
काबुल के सैफरीद गवर्नर का सिक्का, हिंदू शाही मॉडल पर लगभग 870 सीई में जारी किया गया था. अबसीद दिरहमान वजन मानक, और अरबी में अग्रभाग पर एडीएल (न्याय) का उल्लेख है. विकिमीडिया कॉमन्स

9वीं सदी में ओडी शाहियों और सफ्फारिद अमीरात के बीच बड़ी लड़ाइयां हुईं, जिसमें आखिरकार काबुल पर सफ्फारिदों का कबजा हो गया. अपनी वैधता साबित करने के लिए सफ्फारिदों ने बड़ी मात्रा में लूटी गई मूर्तियों को बगदाद में अब्बासिद की राजधानी में भेजा जबकि तब तक वे शाही शैली के सिक्के ही एकाध अरबी शब्द जोडक़र जारी कर रहे थे. इन गतिविधियों को इस्लामिक मूर्तिभंजन के रूप में देखने के बजाय, हमें उसकी व्याख्या अपने हित से प्रेरित बहुसांस्कृतिक एलिट वर्ग के कार्यों के रूप में करनी चाहिए, जिसमें अपना दबदबा कायम करने की एक हल्की चाहत थी.

क्लिम्बर्ग-साल्टर ने लिखा है कि काबुल विजय के बाद इस्लाम में तेजी से धर्मांतरण का कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है. इसके बजाय, कॉस्मोपॉलिटन शहर में शाहियों, सफ्फारिदों और समानिदों की विविध सांस्कृतिक स्थानीय राजनीति तब तक जारी रही, जब तक कि 11वीं सदी में गजनी के महमूद ने उन्हें मिटा नहीं दिया. भारतीयकृत हिंदू और बौद्ध तुर्कों का संसार अब नहीं लौटेगा, क्योंकि अफगानिस्तान अब पूरी तरह तुर्क-फारसी बन गया है.

एक समग्र हिंदू क्षेत्र में ‘इस्लामी आक्रांताओं’ के हमले जैसे सरलीकृत आख्यानों के बजाय, मध्ययुगीन दुनिया की वास्तविकता अलग थी. वह कई संस्कृतियों के साथ-साथ विकसित होने और उनके बीच अंतर-संबंधों की जटिल और लचीली दुनिया थी. जैसा कि हम थिंकिंग मिडिवल के अगले संस्करण में देखेंगे, अफगानिस्तान में इन बड़े बदलावों से 12वीं सदी में उत्तर भारत में और भी विचित्र अंतर संबंध स्थापित हुए. मसलन, कश्मीरी राजाओं की तुर्की पत्नियां, लक्ष्मी सिक्कों वाले तुर्की महाराजाधिराज, वगैरह.

(अनिरुद्ध कनिसेट्टी एक इतिहासकार हैं. वह ‘लॉर्ड्स ऑफ दि डेक्कन: मध्यकालीन दक्षिण भारत का एक नया इतिहास’ के लेखक हैं और इकोज ऑफ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट को होस्ट करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AKanisetti. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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