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Friday, 22 November, 2024
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अरिहंत से मिसाइल लॉन्च बड़ी उपलब्धि, मगर भारत की एटमी तिकड़ी अभी अधूरी

फिलहाल भारत की जमीन और वायु संचालित परमाणु क्षमता कुछ भारी-सी, अरिहंत ने उसे बदला मगर देश को अधिक की दरकार.

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समुद्र की गहराइयों से चुपके से न्यूक्लीयर हथियार दागना शिप सबमर्शिबल बैलेस्टिक न्यूक्लीयर या एसएसबीएन पनडुब्बियों की खासियत है. भारत ने इस साल 14 अक्टूबर को अपने पहले एसएसबीएन, आईएनएस अरिहंत से परमाणु सक्षम मिसाइल सागरिका/के-15 को दागकर ऐसी क्षमता का प्रदर्शन किया. यह पनडुब्बी जुलाई 2009 में लॉन्च हुई, दिसंबर 2014 में समुद्री परीक्षण शुरू हुआ और अगस्त 2016 में भारतीय नौसेना में कमीशन की गई थी. उसकी पहली रक्षात्मक गश्त 2018 में शुरू हुई. उसके फौरन बाद के-15 मिसाइल का पहली बार पनडुब्बी से परीक्षण किया गया था.

मिसाइल दागने की ताजा घटना निश्चित रूप से भारत की परमाणु तिकड़ी के महत्वपूर्ण समुद्री अभियान को मजबूत करने की दिशा में एक और मील का पत्थर है, जिसकी अगुआई एसएसबीएन पनडुब्बी कर रही है. इसे जमीन और विमान से दागने वाले परमाणु हथियारों के विपरीत सबसे टिकाऊ माना जाता है क्योंकि एसएसबीएन में छिपे रहने की क्षमता होती है.

अरिहंत कई मायनों में प्रगति के लंबे सफर की अगुआ है जो 2020 के दशक के अंत तक जारी रहेगा, जब भारत के पास चार एसएसबीएन होंगी, जिसे शायद आदर्श संख्या माना जाता है, ताकि लंबे दौर में मरम्मत और अप्रत्याशित घटनाओं के वक्त भी न्यूनतम जरूरतों को पूरा किया जा सके. अरिहंत के थोड़े कार्यकाल में कथित तौर पर मानवीय त्रुटि से 2018 में एक दुर्घटना हुई है, जिससे उसके प्रोपल्सन कक्ष में पानी भर गया और मरम्मत में लगभग एक वर्ष लग गया.


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परमाणु तिकड़ी

सागरिका मिसाइलों का दायरा सीमित है और पाकिस्तान के दक्षिणी हिस्सों तक ही ये मार कर सकती हैं. चीन के खिलाफ, संभावित भारत-चीन संघर्ष के दौरान दक्षिण चीन सागर की गहराई में छिपना जोखिम भरा होगा, हालांकि यह असंभव नहीं है। उस हालत में पाकिस्तान का परमाणु कवरेज जमीन और वायु मार्ग के जरिए ही हो सकेगा. इसका हल तब हो जाना चाहिए जब 3,500 किलोमीटर रेंज वाली के-4 मिसाइल अगले एसएसबीएन पर तैनात की जाएं और बंगाल की खाड़ी से चीन के बड़े हिस्से को कवर किया जा सके.

दूसरे एसएसबीएन आईएनएस अरिघाट को 2017 में लॉन्च किया गया और फिलहाल उसका समुद्री परीक्षण चल रहा है. उसके कमीशन के अपेक्षित समय का पता नहीं है और शायद कुछेक वर्षों में काम शुरू कर सकती है. जनवरी 2020 में एक जलमग्न पोंटून से के-4 मिसाइल के दो परीक्षण किए गए थे. दो और एसएसबीएन के निर्माण का काम चल रहा है, जो शायद 2020 के दशक के अंत तक परिचालन के लिए तैयार हो सकती हैं.

आखिर कब यह मान लेना सही होगा कि भारत का परमाणु हथियार कार्यक्रम ‘भरोसेमंद न्यूनतम प्रतिरोध’ (सीएमडी) के अपने लक्ष्य पर पहुंच गया होगा. हालांकि, काफी हद तक स्वदेशीकरण हासिल किया जा सका है, मगर रूस-यूक्रेन युद्ध और अमेरिका-चीन तकनीकी जंग के कारण पनडुब्बी से लॉन्च होने वाली बैलिस्टिक मिसाइल (एसएलबीएम) और एसएसबीएन निर्माण में अचानक रुकावटें खड़ी हो गई हैं.

भरोसेमंद न्यूनतम प्रतिरोध

भारत के भरोसेमंद न्यूनतम प्रतिरोध में एसएलबीएम की महत्वपूर्ण भूमिका को 14 अक्टूबर 2022 को लॉन्च के बाद जारी रक्षा मंत्रालय के बयान में स्वीकार किया गया, ‘आईएनएस अरिहंत से एसएलबीएम का सफल प्रशिक्षण लॉन्च चालक दल की योग्यता साबित करने और एसएसबीएन कार्यक्रम की कामयाबी के लिए महत्वपूर्ण है. यह देश की परमाणु प्रतिरोधक क्षमता का अहम हिस्सा है. एक मजबूत, सक्षम और तयशुदा प्रतिशोधी क्षमता देश की ‘भरोसेमंद न्यूनतम प्रतिरोध’ की नीति के अनुकूल है, जो ‘पहले उपयोग न करने’ की प्रतिबद्धता से बंधा है.

हालांकि, सीएमडी क्षमता एक लचीली अवधारणा है, जो हमेशा ही दुश्मन की क्षमताओं में किसी भी बदलाव के मुताबिक बदली जानी चाहिए, ताकि संभावित खतरे की काट की जा सके. मुख्य रूप से, अगर चीन या पाकिस्तान की ओर से पहले हमला होता है, तो उसका बचाव करने की चुनौती से निबटने के लिए भारत को पर्याप्त क्षमता बनाए रखना है. साथ ही, यह भी कि अपने न्यूक्लीयर डॉक्ट्रीन में निहित जवाबी हमले को लेकर यह कहा गया है कि ‘पहले हमले के बाद जवाबी हमला भारी होगा और ऐसी बर्बादी लाएगा, जिसकी भरपाई मुश्किल हो.’ इस अवधारणा की अक्सर बेहिसाब कहकर आलोचना की गई है और छोटी संख्या में कम घातक हथियारों का इस्तेमाल क्यों न किया जाए.

यह आलोचना शायद ठीक है. हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि ‘भारी’ और ‘अकाट्य बर्बादी’ दोनों की ही लचीली व्याख्याएं की जा सकती हैं.

हालांकि, 1999 में के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी) ने परमाणु सिद्धांत का जो मसौदा तैयार किया, उसमें बदलाव की दलील में दम है, जिसमें ‘अकाट्य बर्बादी जैसे प्रतिशोध’ का सूत्र तैयार किया गया था. जो भी हो, भारत की परमाणु क्षमता योजना पहले से ही उन बदलावों को देख रही होगी, जो चार एसएसबीएन का संचालन परमाणु तिकड़ी में जरूरी होंगे.

अब चुनौतियां

फिलहाल, सीएमडी अग्नि शृंखला की जमीन से दागने वाली मिसाइलों पर काफी आश्रित है, जिसे विमान से दागने वाली मिसाइल की मदद मिलती है. अब सवाल यह है कि चार एसएसबीएन के संचालन के बाद भारत की परमाणु तिकड़ी में शामिल करने की कल्पना कैसे करनी चाहिए? निश्चित रूप से, इस सवाल का जवाब हासिल करना वाकई चुनौतीपूर्ण है. यह टेक्नोलॉजी बदलाव की रफ्तार, बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा सहित हमारे दुश्मनों की बढ़ती क्षमताओं और परमाणु कमान और नियंत्रण प्रणाली की रक्षा करने की हमारी क्षमता को देखकर ही किया जा सकता है.

हालांकि, एसएसबीएन महासागरों की गहराई में छिप सकते हैं, लेकिन नागरिक नेतृत्व और प्राधिकरण से संचार व्यवस्था ही उसकी दुखती रग है. यह ऐसी चीज है जिसे दुश्मन शक्तियां तोड़ने या बाधित करने की कोशिश कर सकती हैं.

इसलिए, यह लगभग तय है कि भारत अपने सभी परमाणु अस्त्र एसएसबीएन बास्केट में नहीं जा रहा है जैसा कि फ्रांस और ब्रिटेन में किया गया है.

इसके अलावा, भारत अपने महाद्वीपीय विस्तार का लाभ उठाना चाहता है और अपनी जमीन से दागने वाली मिसाइलों को अलग-अलग तरीके से तैनात करना चाहता है. जो सवाल कायम है कि क्या भारत विमान से दागने वाली परमाणु मिसाइल के बिना काम चला सकता है और ऐसी दो धारी व्यवस्था की ओर बढ़ सकता है जो न्यूनतम और भरोसेमंद हो. इस ट्रैक पर आगे बढऩा ऐसा मुद्दा होगा जिसका समाधान भारतीय रणनीतिक योजनाकारों को सैद्धांतिक रूप से उन धारणाओं पर टिके रहना होगा, जिसके टिकाऊ होने की संभावना है.

संक्षेप में, अरिहंत से मिसाइल का सफल प्रक्षेपण सीएमडी क्षमताओं में भारत की प्रगति का एक निर्णायक मार्कर होने से चुनौतियों की पेचीदगी का संकेत मिलता है, जो आगामी भविष्य में हमारे परमाणु प्रतिरोध दायरे में आने वाली हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूट में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है.


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