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Sunday, 24 November, 2024
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निरोध- भारत के परिवार नियोजन कार्यक्रम को आगे ले जाने वाले सस्ते कंडोम की घटिया ब्रांडिंग ने ही उसे डुबाया

निरोध एक पसंदीदा विकल्प नहीं हो सकता. लेकिन भारत के पहले सरकारी स्वामित्व वाले कंडोम ब्रांड का एक बहुत ही पुराना इतिहास रहा है जिसमें घटिया ब्रांडिंग से लेकर मार्केटिंग ब्लंडर तक शामिल हैं.

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नई दिल्ली: पिछले महीने बिहार की एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हरजोत कौर बुमराह का एक वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ, इसमें वह एक लड़की को मुफ्त सैनिटरी नैपकिन की मांग करने पर डांटती नजर आ रही थीं.

ब्यूरोक्रेट बिहार में एक वर्कशॉप में बोल रही थीं. उन्होंने गुस्से से लड़की को जवाब देते हुए कहा, ‘कल जब परिवार नियोजन की बात आएगी तो सरकार को ‘निरोध’ भी मुफ्त में देना पड़ेगा. सरकार से सब कुछ मुफ्त में लेने की आदत क्यों पड़ गई है? इसकी क्या जरूरत है?’

एक अनुभवहीन व्यक्ति की तरह जब बुमराह ने ‘निरोध’ कहा, तो उनका मतलब कंडोम से था. ठीक वैसे ही जैसे हम ज़ेरॉक्स के लिए फोटो कॉपी और इंटरनेट सर्च के लिए गूगल शब्द का इस्तेमाल करते है, निरोध भी देश में ‘कंडोम’ का पर्याय बन चुका है.

निरोध सरकार द्वारा बनाया गया कंडोम ब्रांड है, जिसे भारत ने पहली बार परिवार नियोजन के अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम के हिस्से के रूप में इस्तेमाल किया था. परिवार नियोजन कार्यक्रम दुनिया के पहले और सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक है जिसे 1952 में शुरू किया गया था.

कामराज से निरोध

जनसंख्या का बढ़ना अब भारत में खतरे का कारण नहीं बन सकता क्योंकि देश की कुल जन्म दर प्रतिस्थापन स्तर से नीचे गिर गई है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि हम आने वाले कुछ सालों में चीन की कुल आबादी को पार कर जाएंगे, मगर अब यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है.

लेकिन छह दशक पहले यानी 1960 में तस्वीर काफी अलग थी. भारत एक गरीब देश था जिसके पास खाने के लिए बहुत सारे मुंह थे,लेकिन कमाई के जरिए सीमित. 1964 में भारत की आबादी 47 करोड़ थी और यह एक चौंका देने वाली दर से बढ़ रही थी.

यह तब था जब देश अपना पहला ‘कंडोम’ ब्रांड लोगों के सामने लेकर आया. रिपोर्टों से पता चलता है कि सरकार इसे ‘कामराज’ नाम देना चाहती थी, लेकिन उस समय तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष का नाम कामराज था, इसलिए कंडोम को ‘निरोध’ नाम दिया गया.

सरकार ने सबसे पहले 1963 में मुफ्त में कंडोम बांटने का फैसला किया. भारत ने अमेरिका, जापान और कोरिया से 40 करोड़ पैकेट मंगाए और 1968 में इन आयातित कंडोम को ‘निरोध’ नाम से बेचने का फैसला किया. एक साल बाद भारत ने केरल में हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड की स्थापना की और 1969 में कंडोम का निर्माण करना शुरू कर दिया. यह राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम के लिए उच्च गुणवत्ता वाले कंडोम का उत्पादन करने की खोज का हिस्सा था.

कंडोम पूरी तरह से एक विदेशी उत्पाद नहीं था.1940 के दशक से यूके समूह एसएसएल लिमिटेड के सहयोग से भारतीय बाजारों में यह पहले से मौजूद था. लेकिन इनका इस्तेमाल लगभग न के बराबर था. 1973 में हुए शोध के मुताबिक उस समय, सिर्फ चार प्रतिशत जोड़ों ने ही बमुश्किल कंडोम का इस्तेमाल किया था.

परिवार नियोजन समय की मांग थी और कंडोम एक प्राकृतिक सहारा. लेकिन ज्यादातर भारतीयों को इसके बारे में जानकारी नहीं थी. बाजार के लिए यह एक मुश्किल गर्भनिरोधक तरीका था, क्योंकि कंडोम को अपनाने की जिम्मेदारी पुरुष पर पड़ती थी, जो इसे एक अपने जीवन में दखल देने वाले तरीके के रूप में देख रहे थे यानी जो उनके सेक्स में बाधा डाल रहा था. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 से पता चलता है कि भारत में आज भी 10 में से सिर्फ एक पुरुष कंडोम का इस्तेमाल करता है, जबकि महिलाओं का नसबंदी की ओर जाना पहले की तरह तेज गति से आगे बढ़ रहा है.

तो, आप ऐसे लोगों से खरीदारी कैसे करवा सकते हैं, जो जानते ही नहीं हैं कि उन्हें क्या चाहिए? इसका आसान सा जवाब था- सस्ता करके.

योजना के शुरुआती चरणों में तीन पीस का एक पैकेट 15 पैसे में बेचा गया, जो बाजार मूल्य से 80 फीसदी से भी कम है. और यह प्रयास असफल नहीं रहा. मार्च 1972 तक भारत में कंडोम की महीने भर की खपत 70 लाख तक पहुंच गई और निरोध की बाजार में हिस्सेदारी का प्रतिशत 92 था.


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अकल्पनीय, क्रूड मार्केटिंग

निरोध में पैकेजिंग और मार्केटिंग की बड़ी समस्याएं थीं जो बाद में इस ब्रांड को नीचे लाने का कारण बनीं. कोई भी अपने बेडरूम में बेजान से कंडोम को नहीं लाना चाहता था. 45 साल से ज्यादा समय तक एक ‘निरोध का पैकेट’ लाल रंग से लिखे गए टेक्स्ट के साथ एक सफेद ब्लेंड शीट वाली पैकेजिंग में आता रहा. इंडिया टुडे के एक लेख में कंडोम को ‘अप्रभावी और निराशाजनक’ करार दे दिया गया.

मुकाबले में किसी और ब्रांड के न होने के बावजूद उस समय कंडोम का इस्तेमाल करने वाले लगभग 80 प्रतिशत लोगों ने निरोध खरीदा था. लेकिन यह परिवार नियोजन कार्यक्रम के मूल एजेंडे को पूरा करने में कामयाब नहीं हुआ. आबादी का एक बड़ा हिस्सा, यहां तक कि लक्षित समूह भी गर्भनिरोधक तरीके को नहीं अपना रहा था.

बाद में 1970 के दशक की शुरुआत में देश की छह सबसे बड़ी कंज्यूमर मार्केटिंग कंपनियों – जिनमें लिप्टन टी, टाटा ऑयल मिल्स, और इंडिया टोबैको कंपनी (ITC) जैसे चर्चित नाम शामिल थे – को अपने उत्पादों के साथ निरोध को वितरित करने का निर्देश दिया गया. यह सरकार की ओर से उठाया गया एक चालाकी भरा कदम था, क्योंकि मार्केटिंग की जिम्मेदारी पूरी तरह से कंपनियों के ऊपर नहीं डाली गई थी.

चाय के पैकेट या सिगरेट के डिब्बे के साथ सस्ता कंडोम दिया जाना काफी नहीं था. लोग और अधिक चाहते थे – निरोध की एंटीसेप्टिक पैकेजिंग और डोर टर्म ने इसकी मदद नहीं की.

कंडोम ने जब काम नहीं किया तो भारत ने संजय गांधी के सामूहिक नसबंदी अभियान के साथ जनसंख्या नियंत्रण के अपने प्रयासों के एक काले अध्याय में प्रवेश किया. अकेले 1976 में सरकार ने 62 लाख से ज्यादा पुरुषों की जबरन नसबंदी कर दी थी. गर्भनिरोधक के रूप में कंडोम को अब प्राथमिकता नहीं माना जाता था.

‘निरोध’ एक वजनदार शब्द है, जिसका अर्थ है रोकथाम. शुरू से ही नाम का एक नकारात्मक अर्थ रहा. सिप्ला के पूर्व ग्लोबल काउंसिल मुरली नीलकांतन ने कहा, ‘ अगर हम सालों से चली आ रही अपनी संस्कृति के बारे में बात करें तो परिवार में एक विवाहित जोड़े से अक्सर सबसे पहले यही पूछा जाता रहा है – ‘खुशखबरी कब सुना रहे हो ?’ एक ब्रांड जिसे उस संस्कृति के विपरीत रूप में विज्ञापित किया गया था, उसके ज्यादा खरीदार नहीं हो सकते थे.’

1980 के दशक में लिंटास और एंटरप्राइज जैसी प्रमुख एजेंसियों के साथ काम करने वाले विज्ञापन कार्यकारी दिनेश खन्ना ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) की मार्केटिंग आम तौर पर अकल्पनीय और नासमझी भरी थी. उन्होंने आगे कहा, ‘उसके साथ ज्यादा विचार नहीं जुड़ पाए. इसका मतलब था कि लोगों के बीच यह धारणा बन गई कि उत्पाद कम गुणवत्ता वाले है. हालांकि, इस तरह के प्रोडक्ट की जिम्मेदारी (निरोध) केवल सरकार ही ले सकती थी.’

ब्रांड को एक बड़े बदलाव की जरूरत थी. 1980 के दशक में बड़े करीने से तैयार किए गए विज्ञापन को मीडिया में प्रकाशित करने के अलावा, निरोध विज्ञापनों ने कथित तौर पर ‘इसके उपयोग या उपलब्धता के बारे में कोई प्रासंगिक जानकारी नहीं दी.’

इसे रीब्रांड करने का फैसला 2015 के अंत में लिया गया था. सरकार साधारण से कंडोम को ‘कामुकता’ का नया रूप देना चाहती थी. तीन सदस्यीय संसद समिति ने पैकेट पर प्यार करने वाले या वायलिन बजाने वाले जोड़ों के स्टिकर लगाने पर विचार किया. लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निरोध की खराब गुणवत्ता वाले कंडोम के रूप में ब्रांड की छवि को सुधारा न जा सका. इसके उलट बाजार में आए कामसूत्र, ड्यूरेक्स और स्कोर जैसी निजी कंपनियों ने अपने कंडोम की विभिन्न डिजाइनों, बनावटों और फ्लेवर में एक अल्ट्रा-सेक्सी उत्पाद के रूप में मार्केटिंग कर उतारा और छा गए.


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सरकार का संकोच और मार्केटिंग

निरोध की कभी भी एक कामुक उत्पाद के रूप में मार्केटिंग नहीं की गई. यहां तक कि पुराने विज्ञापन भी इसे परिवार नियोजन के एक तरीके के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए आगे लेकर नहीं आए थे. एक जोड़े को समुद्र तट पर हाथ पकड़े हुए दिखाना और टेक्स्ट में लिखना , ‘अपने परिवार के बीच दूरी बनाने के लिए सही कंडोम. 1.50 रुपये में’ जैसे विज्ञापन काफी नहीं थे.

2012 में वाराणसी में एक दीवार पर एक निरोध डीलक्स विज्ञापन की एक तस्वीर में एक नाचते-गाते कपल को यह बता रहा था कि इसका इस्तेमाल उन्हें एचआईवी, अवांछित गर्भावस्था और अन्य यौन संचारित रोगों से बचाता है.

दरअसल ब्रांड के साथ हमेशा यह समस्या रही कि सरकार कंडोम को ‘प्लेजर’ के साथ जोड़ने के लिए अनिच्छुक थी. वैसे भी कंडोम की लोग इसी वजह से आलोचना भी करते थे – कि ये उनके सेक्स के आनंद को कम कर देते हैं. निजी कंडोम कंपनियों ने इसे समझा और उन्हें सेक्स-बढ़ाने वाले उत्पादों के रूप में विज्ञापित करने पर फोकस किया. ये कुछ ऐसा था जो सरकार ने कभी नहीं किया.

2010 के एक विज्ञापन ने इसे भी बदल दिया. एक प्लेफुल म्यूजिक के साथ कोरियोग्राफ किए गए एड में एक कपल घर के अंदर जाने से पहले एक-दूसरे को छेड़ते नजर आते हैं. अचानक से युवक का निरोध कंडोम नीचे गिर जाता है. युवती उसे कमरे में बुलाती रहती है लेकिन वह उसे छोड़, सीढ़ियों से नीचे गिरते अपने अपने कंडोम के पीछे भागता है. दोनों मिलते हैं और वॉयस-ओवर होता है: ‘जो कंडोम का साथ न छोड़े, वही है मुक्कद्दर का सिकंदर,’

‘आकर्षक लेकिन कामुक नहीं’

2015 में स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अधिकारी ने संकेत दिया कि निरोध को जल्द ही एक नया रूप दिया जाएगा. अधिकारी ने कहा था, ‘हमें उम्मीद है कि नई पैकेजिंग से फर्क पड़ेगा. कमेटी निरोध के लिए नए नाम की सिफारिश कर सकती है.’

फिर निरोध ‘निरोध आशा’ बनकर आया. लेकिन आशा कार्यकर्ताओं ने इसके नाम का विरोध किया और कई जिलों में वितरित करने से इनकार कर दिया. उनके विरोध प्रदर्शनों के बाद बदले हुए नाम को हटा दिया गया.

एक अधिकारी ने कहा, हालांकि रैपिंग को लेकर मंत्रालय ने चेतावनी दी थी और वादा किया गया कि अपग्रेड ‘तस्वीरे आकर्षक होंगी, कामुक नहीं.’ लेकिन वे जल्द ही अपने वादे से पीछे हट गए.

आज निरोध की पैकिंग, जैसा कि अमेजन पर उपलब्ध है, चुंबन देने के लिए तैयार खड़े, मोमबत्तियों से घिरे एक कपल को दिखा रही हैं. इकतालीस प्रतिशत समीक्षकों ने इसे फाइव स्टार दिया है.

एक समीक्षक ने लिखा है, ‘मुझे लगता है कि इस ब्रांड के प्रतियोगी इसे खराब दिखाने के लिए नकारात्मक समीक्षा कर रहे हैं. जबकि सच्चाई यह है कि यह उत्पाद अपनी कीमत के आधार पर अधिकांश प्रीमियम ब्रांडों जितना ही अच्छा है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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