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Friday, 22 November, 2024
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अब की फिल्मों में करवा चौथ की भावनाएं कम, मसाले ज्यादा

एक वक्त था जब हमारी फिल्में त्योहारों से जुड़ी सभ्यता और संस्कृति को बढ़ावा देती थीं. उस समय करवा चौथ या ऐसे ही अन्य अवसरों का फिल्मों में जिक्र भी प्रासंगिक और प्रभावी होता था.

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त्योहारों और पर्वों से समृद्ध हमारे देश में फिल्मों का रुपहला पर्दा भी अक्सर इन त्योहारों के रंग में रंगा नजर आ जाता है. होली, दीवाली, रक्षा बंधन, जन्माष्टमी जैसे त्योहारों के अलावा कई बार करवा चौथ को भी फिल्मकारों ने बड़े पर्दे पर उभारा है. यह बात अलग है कि फिल्मों में करवा चौथ का इस्तेमाल भी आमतौर पर एक मसाले की तरह ही ज्यादा हुआ.

अपने प्रियतम की लंबी उम्र के लिए दिन भर का व्रत रख कर रात को छलनी में से चांद और अपने प्रियतम का चेहरा देख कर व्रत खोलने के दृश्य इधर छोटे पर्दे के आंसू बहाऊ धारावाहिकों में तो लगभग अनिवार्य हो चले हैं. बड़े पर्दे पर ये दृश्य पहले तो काफी आ जाते थे लेकिन हिन्दी फिल्मों की कहानियों में आए बदलाव के बाद इनका दिखना तो क्या, जिक्र भी कम होता चला गया.

एक वक्त था जब हमारी फिल्में त्योहारों से जुड़ी सभ्यता और संस्कृति को बढ़ावा देती थीं. उस समय करवा चौथ या ऐसे ही अन्य अवसरों का फिल्मों में जिक्र भी प्रासंगिक और प्रभावी होता था. लेकिन आज तस्वीर बदल चुकी है. आज अगर फिल्मों में संस्कृति और सभ्यता की बात होती भी है तो उसका मकसद ज्यादातर मौकों पर दर्शकों के दिलों में भावनाओं की गर्मी लाकर अपनी फिल्म का चलाना ही होता है.

करवा चौथ का जिक्र कई पुरानी फिल्मों में आता है. 1978 में तो निर्माता-निर्देशक रामलाल हंस ने ‘करवा चौथ’ नाम से एक फिल्म ही बना डाली थी. आशीष कुमार, कानन कौशल, आगा, भारत भूषण, भगवान अभिनीत इस फिल्म में कवि प्रदीप के लिखे ‘करवा चौथ का व्रत ऐसा जिस की महिमा…’, ‘बस एक यही वरदान आज हम मांग रहे…’ जैसे कई गीत काफी लोकप्रिय हुए थे जिनकी धुनें सी. रामचंद्र ने बनाई थीं. दरअसल यह दौर था ही ऐसी ‘घर घर की कहानी’ किस्म की फिल्मों का, जब कल्पतरू और बापू जैसे फिल्मकार दर्शकों को पारिवारिक भावनात्मक मनोरंजन परोस रहे थे.

उस दौरान पति-परमेश्वर के लिए गाए गए कई गाने हमारी फिल्मों में गूंजे. 1975 में आई ‘महासती सावित्री’ के प्रदीप के लिखे गीत ‘मेरा कर दो अमर सुहाग…’, ‘एक चमत्कार है यह सत का और पतिव्रत के व्रत का…’ जैसे गानों के अलावा ‘गंगा मैया में जब तक यह पानी रहे मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे…’, ‘सजना है मुझे सजना के लिए…’ जैसे गीत भी उन दिनों काफी आ रहे थे. अमिताभ बच्चन वाली फिल्म ‘गंगा जमुना सरस्वती’ में भी पति की लंबी आयु के लिए व्रत और पूजा करने का दृश्य आता है. साथ ही इस फिल्म का गीत ‘पति परमेश्वर के सिवा मुझको न परमेश्वर चाहिए…’ भी काफी हिट हुआ था.


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लेकिन जैसे-जैसे असली जीवन में मूल्य कमजोर पड़ते गए और दिखावा सिर चढ़ने लगा वैसे-वैसे हमारी फिल्मों में भी भावनात्मक बातों का इस्तेमाल मसालों के लेप के रूप में ही ज्यादा होने लगा. 1994 में आई फिल्म ‘जय मां करवा चौथ’ का तो कहीं नाम भी नहीं सुना गया. लेकिन फिल्मों से करवा चौथ पूरी तरह से गायब भी नहीं हुआ. 1995 में आई बतौर निर्देशक आदित्य चोपड़ा की पहली फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में करवा चौथ का काफी लंबा और मनोरंजक प्रसंग है. करण जौहर ने ‘कभी खुशी कभी गम’ में जया बच्चन द्वारा काजोल को फोन पर करवा चौथ मनाने की विधि समझाने वाला एक लंबा दृश्य रख कर कई दर्शकों के रुमाल गीले करवाए थे.

इस फिल्म का गाना ‘बोले चूड़ियां बोले कंगना… ’ भी करवा चौथ के मौके पर ही गाया गया. सलमान खान-ऐश्वर्या राय वाली फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ में करवा चौथ का एक लंबा प्रसंग और गाना था जिसमें विवाहित नायिका इस मौके पर असल में शादी से पहले के अपने प्रेमी को याद कर रही है और रस्मी तौर पर पति के साथ यह त्योहार मना रही है. ‘शुक्रिया’, ‘ढाई अक्षर प्रेम के’, ‘अंदाज’, ‘इश्क विश्क’ जैसी कई फिल्मों में करवा चौथ का जिक्र हुआ. 2005 में आई ‘जहर’ के गीत ‘अगर तुम मिल जाओ…’ में करवा चौथ का प्रसंग आता है लेकिन इस गीत की शुरूआत बहुत ही अश्लीलता के साथ होती है.

फिल्म- कभी खुशी कभी गम

इन सब से अलग और ऊपर करवा चौथ का एक बेहद उम्दा चित्रण रवि चोपड़ा की ‘बागबान’ में नजर आता है जिसमें अलग-अलग बेटों के पास रह रहे पति-पत्नी (अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी) एक-दूजे से दूर रह कर भी एक-दूसरे के लिए व्रत रखते हैं.

फिल्म-बागबान

इस फिल्म के आने के बाद अपने समाज में भी कई पुरुषों द्वारा अपनी पत्नियों या प्रेयसियों के लिए इस दिन भूखे रहने का चलन बढ़ा. एक और बढ़िया दृश्य ‘बीवी नं. 1’ में था जिसमें ठीक करवा चौथ की रात को ही नायिका करिश्मा कपूर को अपने पति (सलमान खान) की प्रेमिका (सुष्मिता सेन) के बारे में पता चलता है और वह सबला बन कर अपने पति को ही घर से निकाल देती है. किरण खेर की फिल्म ‘मम्मी पंजाबी’ में भी इस पर्व का लंबा जिक्र था.

फिल्म-मम्मी पंजाबी

यह जरूर है कि परंपराओं का प्रदर्शन फिल्मों में कम होता जा रहा है लेकिन यह भी सच है कि यह कभी खत्म नहीं होगा भले ही इसके रूप-रंग बदलते रहें.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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