पूर्व आईएएस अधिकारी और कवि के. जयकुमार महिला मनीषियों और संतों के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे, जब तक कि वे उनके लेखन और कविताओं के जरिए उनसे रूबरू नहीं हुए. हर कवि के मन में कौतूहल जगाने वाली जिज्ञासा के साथ उनकी कविताओं में खुद को तल्लीन किया और उनके ‘दुःसाहसी परित्याग’, ‘प्यार और लालसा’ और इस सबसे बढ़कर ‘एकनिष्ठ उदारता’ से मोहित पाया.
जयकुमार ने सोमवार को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ‘वुमेन सेंट्स ऑफ इंडियाः दि रूट्स ऑफ देअर ऑडेसिटी’ पर एक भाषण में कहा, उन्होंने ऐसा दुस्साहस दिखाया कि भक्ति सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन करती साबित हुई. अपनी लेखनी में सामाजिक मानदंडों की गहराई से पड़ताल उन्हें पुरुष संतों से अलग करती थी.
महिलाओं के साहित्य के सबसे पुराने ज्ञात संग्रहों में से एक ‘थेरीगाथा’- 300 वर्षों के दौरान 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व की कुछ कविताओं के साथ संकलित – में बौद्ध महिला संतों द्वारा लिखे गए 500-असाधारण छंदों में घर और बेघर की धारणाओं के बीच एक निरंतर संघर्ष मौजूद है. उनके लिए इस लाक्षणिक घर को छोड़ने और बेघर होने या इसके साथ होने वाली असहजता को अपनाने से ही आजादी पाई जाती है.
इस आजादी का परिणाम या शायद इसका कारण भौतिक शरीर की पूर्ण अवहेलना है. जयकुमार, जो केरल के तिरूर में मलयालम विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति भी हैं, ने तर्क दिया कि उनका लिंग, उनकी कामुकता – जो उन्हें समाज से जोड़ती है – उनकी आध्यात्मिकता पर ग्रहण लगाती है.
उन्होंने कहा, कर्नाटक की 12वीं सदी की लिंगायत कवयित्री अक्का महादेवी ने ‘खुद को केवल नाम से एक महिला के रूप में वर्णित किया और आजीवन आत्मसमर्पण के लिए अपनी यौन पहचान खो दी.’
उन्होंने जीवन जीने के एक ऐसे तरीके का उदाहरण प्रस्तुत किया जो आधुनिक समय के साथ पूरी तरह से विपरीत था. उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘ अगर ऐसा नहीं है तो हम सब यहां क्यों हैं? क्योंकि हम ऐसे नहीं जी सकते?’
भारत की महिला मनीषियों और संतों का वर्णन करने के लिए जयकुमार द्वारा ‘दुस्साहस’ शब्द के इस्तेमाल के बारे में हर कोई आश्वस्त नहीं था. भाषण में भाग ले रही एक महिला ने कहा, ‘उनके जीवन जीने के तरीके के बारे में कुछ भी दुस्साहसी नहीं है, अगर यह आध्यात्मिक प्राप्ति से उत्पन्न हुआ है.’
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लाल देद और अक्का महादेवी को पढ़ना
एक कवि के रूप में जयकुमार उनके विचारों की स्पष्टता, प्रत्यक्षता, अपने काम में भ्रम रहित आत्मविश्वास और सबसे बढ़कर उनकी निडरता के प्रति आकर्षित थे.
उन्होंने 14 वीं सदी की कश्मीरी कवियित्री, संत और रहस्यवादी लालेश्वरी या लाल देद का एक श्लोक पढ़ा- ‘यहां इस जीवनकाल में, मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गई हूं. दुनिया मेरा क्या कर सकती है?’ जयकुमार के अनुसार, उनके आत्मविश्वास की जड़ें ‘एक महिला होने की असुरक्षा और संकोच से मुक्ति’ में थीं.
इससे पहले कि श्रोताओं में से कोई भी इस पर सवाल उठा सके, उन्होंने उनसे कविता को ‘आधुनिक नारीवाद’ के चश्मे से नहीं बल्कि सर्वव्यापी भक्ति और आध्यात्मिकता के प्रदान किए गए दृष्टिकोण से देखने का आग्रह किया.
श्रोताओं में से कुछ जयकुमार के तर्क से सहमत नहीं थे, उन्होंने इसकी बजाय उनसे इन कवियों के ‘सामाजिक विद्रोह’ पर बोलने का आग्रह किया.
हालांकि जयकुमार ने इस तरह के सवालों को यह कहकर टाल दिया कि ‘आजकल आध्यात्मिकता के बारे में बात करना फैशन नहीं है’ और वह ‘धार्मिकता के बारे में बात नहीं कर रहे हैं.’
उन्होंने सत्र को एक मजबूत नोट पर समाप्त करने के लिए अक्का महादेवी की एक कविता पढ़ने का विकल्प चुना. उन्होंने पढ़ा- ‘किसे परवाह है … कौन तोड़ता है पेड़ से पत्ती, एक बार फल टूट जाने के बाद ..किसे परवाह है.. कौन जोतता है जमीन त्याग दी जो तुमने.’
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