अहमदाबाद: गुजरात में काफी शक्तिशाली माने जाने वाले मालधारी समुदाय को भूपेंद्र पटेल सरकार को विवादास्पद आवारा पशु नियंत्रण विधेयक, या उनके शब्दों में एक काले बिल की वापसी के लिए बाध्य करने में छह महीने लग गए. और इस मामले में दबाव बनाने की पुरानी रणनीतियां ही उनके काम आईं, जिसमें मिल्क बॉयकाट, राजनीतिक स्तर पर चेताना, सड़कों पर विरोध प्रदर्शन और व्हाट्सएप और टेलीग्राम ग्रुप्स जैसे सोशल मीडिया साधनों की ताकत का इस्तेमाल करना शामिल है.
पशुपालक समुदाय मालधारी गुजरात के बड़े हिस्से में एक अहम वोट बैंक हैं और लगभग 42-46 विधानसभा सीटों और तीन लोकसभा सीटों पर किंगमेकर होने का दावा करता है. चुनाव नजदीक आने के बीच उन्होंने सत्तारूढ़ भाजपा को वोट न देने की धमकी देकर अपना राजनीतिक दबदबा और बढ़ा लिया है.
बढ़ते आवारा मवेशियों की समस्या से निपटने की कोशिश में पटेल सरकार ने 31 मार्च को शहरी क्षेत्रों में मवेशियों पर नियंत्रण संबंधी विधेयक पेश किया था, जिसमें पशु-पालकों के लिए लाइसेंस जरूरी होने, जानवरों की टैगिंग और शहरी इलाकों में जानवरों के खुली जगहों पर घूमते पाए जाने पर 5000 रुपये तक जुर्माने का प्रावधान किया गया था. इससे मालधारी समुदाय सीधे तौर पर प्रभावित हो रहा था. यह कानून आठ प्रमुख शहरों और 162 कस्बों पर लागू होना था.
राजनीतिक विश्लेषक जगदीश आचार्य कहते हैं, ‘विधेयक वापस लिए जाने का सबसे बड़ा कारण उनका वोट बैंक था. मालधारी समुदाय काफी संगठित है. उन्होंने दूध की आपूर्ति रोककर, मवेशियों को सड़कों में खुला छोड़कर, और लामबंदी के जरिये सरकार पर दबाव बनाया. सरकार के पास इसके आगे झुकने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था.’
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विरोध प्रदर्शन और दूध बहा देना
सबसे पहले, मालधारी सरकारी अधिकारियों के पास गए और उनसे बिल वापस लेने का अनुरोध किया. उन्होंने अप्रैल में मुख्यमंत्री और राज्यपाल से भी मुलाकात की और उन्हें एक ज्ञापन सौंपा. 182 विधायकों से भी संपर्क साधा. मालधारियों का कहना था कि गायों के लिए लाइसेंस गलत है, दंडात्मक प्रावधान बेहद सख्त हैं, और यहां तक कि गौशाला के पंजीकरण का प्रावधान भी काफी अव्यावहारिक है. लेकिन पटेल सरकार कोई बात सुनने को तैयार नहीं थी.
मालधारी महा पंचायत के प्रवक्ता दशरथ देसाई ने कहा, ‘यही वह समय था जब हमने अपनी सामुदायिक ताकत को एकजुट किया. पटेल और ठाकुर जैसे अन्य लोग भी हमारे समर्थन में आगे आ गए.’
समुदाय के नेताओं ने खटिया बैठकें आयोजित करना शुरू कर दिया, जहां हर किसी को पाटीदारों, चौधरी और ब्रह्म समाज के सदस्यों को अपने संघर्ष में शामिल करने का जिम्मा सौंपा गया.
इस तरह पूरी लामबंदी के बाद ही राजनीतिक दबाव बनाया जा सका. समुदाय ने भाजपा में मालधारी नेताओं को बाकायदा चेतावनी भी जारी कर दी. एक मालधारी नेता ने बताया है कि गुजरात में 50 लाख पंजीकृत मवेशी हैं और बिल को लेकर इसका दबाव साफ नजर आया.
मालधारी समुदाय के विरोध प्रदर्शन में अहम भूमिका निभाने वाले देसाई से बताया, ‘हमने अपने लोगों से कहा कि हम भाजपा का समर्थन नहीं करेंगे. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम आप, कांग्रेस को वोट दें या निर्दलीय उम्मीदवारों को, लेकिन भाजपा को नहीं देंगे.’
जब लगातार सड़क पर विरोध प्रदर्शन का कोई असर नहीं दिखा तो मालधारी समुदाय के युवाओं ने हिंसक कार्रवाई और सांकेतिक गिरफ्तारियों की चेतावनी भी दी. मालधारी बताते हैं कि इसके बाद 48 सामुदायिक व्हाट्सएप समूहों, दो टेलीग्राम चैनलों और फेसबुक पेजों पर मैसेज, अपील और वीडियो जारी किए जाने लगे.
फिर इसके बाद समुदाय की तरफ से अपने प्रदर्शन के तहत सबसे सख्त कदम उठाया गया.
समुदाय ने 21 सितंबर को दूध की आपूर्ति रोक दी. इससे बड़े पैमाने पर आम जनता प्रभावित हुई और सरकार के लिए अब इसे और अनदेखा करना संभव नहीं था. विरोध जता रहे मालधारियों ने राजकोट में डेरियां बंद कर दीं और दूध की आपूर्ति राजकोट सिविल अस्पताल में मरीजों को करने लगे. वहीं, सूरत में दूध को तापी नदी में डाल दिया गया.
आखिरकार 21 सितंबर को गुजरात सरकार ने विधानसभा में विधेयक वापस लेने का प्रस्ताव रखा.
भाजपा प्रवक्ता यमल व्यास ने कहा, ‘हमने यह बिल किसी दबाव में वापस नहीं लिया, बल्कि इसलिए वापस लिया क्योंकि व्यापक जनहित में यही कदम उचित था. यह बिल राज्यपाल की तरफ से वापस ले लिया गया था और उन्होंने इसे हमें भेजा क्योंकि कुछ तकनीकी मुद्दे थे.’
भाजपा के मालधारी प्रकोष्ठ के प्रमुख संजय देसाई ने आरोप लगाया कि चुनाव नजदीक आते देख कांग्रेस ने इस समुदाय को भड़काया है.
बिल आखिर क्यों लाया गया था?
आवारा जानवरों को लेकर इस साल के शुरू में गुजरात हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी. इसके जवाब में ही गुजरात सरकार ने मवेशियों पर काबू पाने के उद्देश्य से 31 मार्च को गुजरात कैटल कंट्रोल (कीपिंग एंड मूविंग) इन अर्बन एरिया बिल, 2022 पारित किया था.
गुजरात के शहरी विकास मंत्री विनोदभाई मोराड़िया ने उस समय विधानसभा में कहा था कि ‘गाय, बैल, भैंस और बकरियां शहरी क्षेत्रों में सड़कों पर घूमते दिख जाती हैं.’ और ये मवेशी यातायात को बाधित करने के साथ-साथ दुर्घटनाओं का कारण भी बन रहे हैं. इससे निपटने के लिए ही बिल लाया गया है.
बिल पर बहस के दौरान पूर्व डिप्टी सीएम नितिन पटेल ने जुर्माने की राशि को बहुत ज्यादा बताया था और इसे घटाने की मांग की. कांग्रेस ने बिल और जुर्माने दोनों का विरोध किया था.
कांग्रेस विधायक और मालधारी समाज के नेता रघु देसाई ने उस समय विधानसभा में कहा था, ‘गुजरात में लगभग 70 लाख मालधारी हैं, जिनमें 70 फीसदी अनपढ़ और गरीब हैं. यह बिल उनके संपत्ति के मौलिक अधिकार का हनन है. यह उन्हें उनकी जगहों से उखाड़ फेंकने की साजिश है.’
बहस के दौरान, भाजपा ने बिल का बचाव करते हुए कहा कि इसका उद्देश्य आवारा मवेशियों को नियंत्रित करना है और इससे कानून का पालन करने वाले पशुपालकों को कोई समस्या नहीं होगी.
लेकिन अप्रैल आते-आते खुद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सी.आर. पाटिल ही इससे पीछे हटने लगे थे. उन्होंने कहा, ‘गाय रखने के लिए लाइसेंस का प्रावधान सही नहीं है. अगर किसी की गाय सड़क पर भटकती पाई जाती है तो उस व्यक्ति को जेल में डाल देना या उस पर जुर्माना लगाना भी उचित नहीं है.’
हाई कोर्ट ने यह सलाह भी दी थी कि पशुपालकों को वैकल्पिक भूमि मुहैया कराई जाए. लेकिन मालधारी कहते हैं कि सरकार ने आदेश के इस हिस्से की अनदेखी कर दी और उन पर जुर्माने का प्रावधान किया.
आचार्य ने कहा कि वैकल्पिक भूमि और एनिमल हॉस्टल का सुझाव व्यावहारिक नहीं है क्योंकि जमीन शहर से 10-15 किमी दूर दी जाएगी. दूध की आपूर्ति के लिए इतनी दूर आने-जाने में समस्या होगी.
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मवेशियों के रास्ते में आड़े आया शहर
अहमदाबाद की 29 वर्षीय ललिता देसाई ने भी मवेशी बिमल के खिलाफ मालधारियों संघर्ष में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था. उनके लिए, यह ‘जीवन और मौत’ का मामला था क्योंकि उसका परिवार पशुपालन पर निर्भर करता है.
प्रशासन ने कुछ महीने पहले ललिता की दो गायों को सड़क पर पाए जाने के कारण अपने कब्जे में ले लिया था. अहमदाबाद के मणिनगर क्षेत्र, जो कभी गांव हुआ करता था, में रहने वाली ललिता को अकेले ही अपनी मां और अपने मवेशियों की देखभाल करनी होती है. अब उनके मवेशी सड़क पर रहते हैं क्योंकि उनके लिए उनके पास कोई जमीन नहीं है.
देसाई कहती हैं, ‘उन्होंने हमें कोई सुविधा तो नहीं दी और उल्टे इस तरह का काला विधेयक ले आए.’
यह समस्या अहमदाबाद के अंधाधुंध शहरीकरण का ही नतीजा है.
मालधारी समुदाय के प्रवक्ता वीरमभाई देसाई कहते हैं, ‘सरकार कहती है कि मवेशी शहर में आ गए हैं. लेकिन इसमें मवेशियों की गलती नहीं, बल्कि यह तो खुद शहर है जो मवेशियों के रास्ते में आ गया है.’
अहमदाबाद धीरे-धीरे विकसित हुआ और आसपास के गांवों का शहरीकरण होता चला गया. पहले तो अहमदाबाद कोट क्षेत्र में था, और फिर पलड़ी और मकरबा जैसे गांवों को शहर में मिला दिया गया. वीरमभाई कहते हैं कि अगर गुजरात में मुंबई की आरे मिल्क कॉलोनी जैसी कॉलोनी बने तो दूधवाले शहर से बाहर जा सकते हैं.
दशरथ देसाई ने बताया, ‘एक नियम था कि अगर 40 गायें हैं, तो 100 एकड़ में चरने वाली जमीन होनी चाहिए. यह समस्या तभी हल होगी जब हर गांव में मवेशी क्षेत्र बनाए जाएं.’
हालांकि, इस पूरे मामले को लेकर एक आशंका भी बनी हुई है.
वीरमभाई कहते हैं, ‘इस बार तो सरकार मालधारी समुदाय के आगे झुक गई है. लेकिन आशंका है कि अगर भाजपा सत्ता में वापस लौटी तो वह फिर से यह बिल ला सकती है.’
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