नई दिल्ली: वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर स्थित पांच सैन्य ठिकानों पर लंबे समय से जारी गतिरोध के बीच जहां सैन्य वापसी एक बड़ा मुद्दा बनी हुई है, वहीं, सरकार इस पर विचार करने में जुटी है कि चीन के साथ लगती सीमा पर गश्त की कमान भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) को सौंपी जाए या सेना को. दिप्रिंट को मिली जानकारी में यह बात सामने आई है.
रक्षा एवं सुरक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े सूत्रों ने बताया कि गृह मंत्रालय (एमएचए) चाहता है कि आईटीबीपी अग्रणी भूमिका निभाए लेकिन सेना इसके पक्ष में नहीं है और चाहती है कि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल को उसके अधीन रखा जाए.
1962 में विशेष तौर पर तिब्बत और चीन से लगी सीमाओं की रक्षा के लिए स्थापित आईटीबीपी गृह मंत्रालय के ऑपरेशनल कंट्रोल में आता है, लेकिन सेना के साथ मिलकर काम करता है. एलएसी पर गश्त की पूरी जिम्मेदारी सेना और आईटीबीपी की संयुक्त टीम निभाती है. कभी सेना प्रमुख भूमिका में होती है, तो कभी-कभी गश्त की कमान आईटीबीपी के हाथ में होती है.
सूत्रों ने बताया कि यह तय करना स्थानीय सैन्य ब्रिगेड के हाथ में होता है कि गश्त का पैटर्न कैसा रहेगा और किस बल की मुख्य भूमिका होगी.
दिप्रिंट ने जुलाई 2020 में एक रिपोर्ट में बताया था कि सरकार सेना को बॉर्डर डिफेंस की जिम्मेदारी के साथ एलएसी की निगरानी में आईटीबीपी को और अहम भूमिका देने पर विचार कर रही है.
हालांकि, बाद में यह ठंडे बस्ते में चला गया. लेकिन ताजा मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि प्रस्ताव एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है. जिस मूल प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा था, उसके मुताबिक सेना को 3,488 किलोमीटर लंबी एलएसी पर ग्रे जोन बने क्षेत्रों से दूर रखा जाएगा, खासकर जबसे भारत और चीन दोनों ने ही उन जगहों पर बफर जोन बना लिए हैं जहां से उनकी सैन्य वापसी हुई है. ग्रे जोन उन क्षेत्रों को कहा जाता है जहां दोनों देशों की सेनाएं गश्त करती हैं और उनका आमना-सामना होता रहता है.
सेना का तर्क है कि आईटीबीपी को अग्रणी भूमिका नहीं दी जा सकती और बेहतर समन्वय के लिए इस बल को सक्रिय तौर पर उसके नियंत्रण में लाए जाने की जरूरत है.
जैसा दिप्रिंट ने पहले भी बताया था, लद्दाख में मई और जून 2020 के दौरान सार्वजनिक तौर पर सामने आई घटनाओं के अलावा भी भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच कई झड़पें हुई हैं, जिसमें दोनों पक्षों के बीच विभिन्न ठिकानों और गश्ती क्षेत्रों में मामूली झड़प से लेकर हाथापाई तक की घटनाएं शामिल हैं. इसमें पूर्व लद्दाख में नदी-नालों के आसपास के आसपास के कई क्षेत्र भी शामिल हैं, जहां ऐसी घटनाओं में आईटीबीपी भी शामिल था.
2020 में चीनी सैनिकों के खिलाफ अपनी कार्रवाई के लिए आईटीपीबी कर्मियों ने 20 वीरता पदक भी हासिल किए हैं.
सूत्रों ने कहा कि आईटीबीपी को अधिक सक्रिय भूमिका देने के पीछे विचार यह है कि चूंकि यह पुलिस बल है और इससे सही संदेश जाता है कि एक पुलिस बल ही सीमा की निगरानी कर रहा है, न कि सेना. सूत्रों में से एक ने कहा, ‘ज्यादातर देशों में अर्धसैनिक या विशेष सीमा सुरक्षा बल ही सीमाओं की निगरानी करते हैं और सेना उनके पीछे रहती है.’
कारगिल की जंग के बाद ‘वन बॉर्डर वन फोर्स’ की सिफारिश करने वाले मंत्रियों के समूह (जीओएम) की रिपोर्ट के बाद 2004 में सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में असम राइफल्स को हटाकर आईटीबीपी को ही पूरे एलएसी की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा गया था.
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ITBP पर सेना के ऑपरेशनल कंट्रोल के पक्ष में क्या तर्क दिए जा रहे
रक्षा प्रतिष्ठान को लगता है कि एलएसी एक सक्रिय सीमा है और इसलिए सेना को असम राइफल्स की तरह आईटीबीपी को भी अपने कंट्रोल में रखने की जिम्मेदारी मिलनी चाहिए.
यह पहला मौका नहीं है जब सेना ने ऐसी इच्छा जाहिर की है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह 2015 में जब गृह मंत्री हुआ करते थे, उस समय भी सेना ने ऐसा प्रस्ताव रखा था. लेकिन उसे खारिज कर दिया गया था, हालांकि, सूत्रों ने बताया कि इस निर्णय को तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की सहमति हासिल थी.
रक्षा सूत्र बताते हैं कि भारत की पाकिस्तान और चीन के साथ लगती पश्चिमी और उत्तरी दोनों सीमाएं ‘अस्थिर और सक्रिय सीमाएं’ हैं. वैसे तो इन दोनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेना संभालती है, लेकिन यहां क्रमशः बीएसएफ और आईटीबीपी की तैनाती के साथ बलों को बढ़ाया जाता है.
एक अन्य सूत्र ने कहा, ‘चूंकि इस व्यवस्था में एक सीमा पर कई बलों की तैनाती हो जाती है, इसलिए जवाबदेही की कमी होने के आने के साथ कमान और नियंत्रण में समन्वय से जुड़ी चुनौतियां भी सामने आती हैं.’
एलएसी पर 2001 की जीओएम रिपोर्ट के संदर्भ में सूत्रों ने सुझाव दिया है कि जब तक इन ‘सक्रिय’ सीमाओं का पूरी तरह सीमांकन नहीं हो जाता, तब तक यहां पर आईटीबीपी की तैनाती को सेना के ऑपरेशनल कंट्रोल में रखा जाना चाहिए.
सूत्रों के मुताबिक, रिपोर्ट के पैरा 5.21 में कहा गया है कि चूंकि यह सीमा ऑपरेशन के लिहाज से एक्टिव है, अचानक किसी परिस्थिति में तुरंत जवाब देने में सक्षम होने के जरूरी है कि इस क्षेत्र में तैनात आईटीबीपी को तब तक सेना के ऑपरेशन कंट्रोल में ही रखा जाना चाहिए जब तक सीमा के इन हिस्सों का पूरी तरह सीमांकन नहीं हो जाता.
इसमें कहा गया है, ‘जो सीमाएं सैन्य गतिविधियों के लिहाज से सक्रिय हैं, उनकी ज़िम्मेदारी सेना की होनी चाहिए. किसी भी अन्य बल को अगर उसके कौशल विशेष की वजह से इनकी रक्षा के लिए तैनात किया जाता है, तो उनके ऑपरेट करने पर किसी भी तरह का नियंत्रण सीधे तौर पर सेना के हाथों में ही होना चाहिए.’
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘चीन के साथ लगने वाली पूरी सीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारी आईटीबीपी को दी जानी चाहिए और इसे तब तक सेना के ऑपरेशनल कंट्रोल में रखा जाना चाहिए जब तक कि इस बॉर्डर क्षेत्र का पूरा सीमांकन नहीं हो जाता.’
सूत्रों ने यह भी बताया कि सीमा पर सभी बैठकें सेना की अगुआई में होती हैं. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की तरफ से भी इसी तरह की व्यवस्था अपनाई जाती है. चीन की बॉर्डर डिफेंस रेजिमेंट (बीडीआर) के अधिकारियों की बैठकों की अगुआई पीएलए अफसर ही करते हैं.
इसी तरह, मौजूदा हॉटलाइन भी भारतीय सेना और पीएलए के बीच ही है और इसलिए, आईटीबीपी के लिए किसी अलग लाइन की आवश्यकता नहीं है.
एक तीसरे सूत्र ने कहा कि आईटीबीपी के विपरीत, बीडीआर चीनी सेना का एक अभिन्न अंग हैं, न कि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल. सूत्रों ने कहा कि ये इकाइयां आईटीबीपी के विपरीत पीएलए बटालियनों की तरह ही सुसज्जित और प्रशिक्षित हैं.
इसके अलावा, सूत्रों ने यह तर्क भी दिया कि पीएलए बलों की अग्रिम तैनाती के साथ रेग्युलर पीएलए यूनिट या सीमा रक्षा इकाइयों के सैनिकों के बीच अंतर करने का कोई तरीका नहीं है.
तीसरे सूत्र ने कहा, ‘भारत-चीन सीमा की संवेदनशीलता को देखते हुए और जीओएम की सिफारिशों के अनुरूप आईटीबीपी के साथ सीमा की रक्षा में सेना की प्रमुख भूमिका जारी रहनी चाहिए.’
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सेना के ऑपरेशनल कंट्रोल के खिलाफ क्या हैं तर्क
इस संदर्भ में कि आईटीबीपी को सेना के नियंत्रण में क्यों नहीं लाया जाना चाहिए, सूत्रों ने तर्क दिया कि सीमा सुरक्षा बल समान रूप से सरकार के आंख-कान के तौर पर काम करते हैं.
सुरक्षा प्रतिष्ठान के एक सूत्र ने कहा, ‘सरकार किसी स्थिति का आकलन करती है और उस पर कोई भी फैसला किसी एक एजेंसी के आधार पर नहीं बल्कि कई अन्य से मिली जानकारी के आधार पर लिया जाता है. मौजूदा गतिरोध में भी आईटीबीपी से मिला इनपुट उपयोगी था.’
सूत्र ने बताया कि सेना और आईटीबीपी के पास संचार के काफी अलग-अलग चैनल हैं, जिसका संचालन केंद्रीय पुलिस बल के ऑपरेशनल कंट्रोल में आने के बाद संभव नहीं होगा.
सूत्रों ने तर्क दिया कि आईटीबीपी को 2004 में जीओएम की सिफारिश पर ‘एक बॉर्डर, एक फोर्स’ के सिद्धांत के तहत पूरे एलएसी की जिम्मेदारी दी गई थी.
जीओएम की इस सिफारिश कि सेना प्रमुख एजेंसी होनी चाहिए, के बारे में पूछे जाने पर सूत्रों ने कहा कि पुलिस बॉर्डर गार्ड को सिग्नलिंग और प्रबंधन के लिए आगे रखने का निर्णय लिया गया था, जबकि सेना का फोकस कैपेसिटी बिल्डिंग और डिफेंडिंग में होना चाहिए.
उन्होंने आगे तर्क दिया कि आईटीबीपी एक विशेष बल है जो पर्वतीय क्षेत्रों में युद्ध के लिए प्रशिक्षित है और 1962 से एलएसी की निगरानी कर रहा है.
उन्होंने कहा कि मौजूदा गतिरोध में भी, आईटीबीपी सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहा है और सरकार की तरफ से निर्धारित स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स (एसओपी) का पालन करने के साथ झड़पों में भी शामिल रहा है.
एमएचए के सूत्रों ने कहा कि सरकार के लिए समान रूप से आंख-कान होने के अलावा आईटीबीपी को इसलिए भी सैन्य नियंत्रण में नहीं लाया जा सकता क्योंकि इसे कई तरह के कामों की जिम्मेदारी निभानी होती है.
एक सूत्र ने कहा, ‘आईटीबीपी जवानों को आंतरिक सुरक्षा के अलावा कानून-व्यवस्था से जुड़ी जिम्मेदारियां निभाने के लिए भी तैनात किया जाता है. अगर वे सेना के अधीन आते हैं, तो दोहरी क्षमता खत्म हो जाएगी.’
उन्होंने यह तर्क भी दिया कि आईटीबीपी ऑपरेशनलाइज्ड है और कई अग्रिम चौकियों की जिम्मेदारी संभाल रहा है और साथ ही व्यापक क्षेत्र की गश्त में भी शामिल है, जिसमें कई में 30 दिनों से अधिक का समय लगता है.
एक दूसरे सूत्र ने कहा, ‘आईटीबीपी शस्त्रों से सुसज्जित है लेकिन उसके पास अपना तोपखाना या बख्तरबंद नहीं है. लेकिन फिर बात यही आती है कि यह आईटीबीपी है न कि सेना. जरूरत पड़ने पर सेना आवश्यक कदम उठाए लेकिन आदर्श स्थिति में सीमाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी सीमा बलों को ही निभानी चाहिए न कि सेना को.’
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