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Monday, 25 November, 2024
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नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू कोई अपवाद नहीं है. भारतीय मीडिया कभी-कभार ही प्रधानमंत्री से कड़े सवाल करता है

नववर्ष के दिन प्रधानमंत्री मोदी के साथ एएनआई के इंटरव्यू की कुछ लोग ‘नरम’ सवालों के लिए आलोचना कर रहे हैं.

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नई दिल्ली: नववर्ष के दिन एशियन न्यूज़ इंटनेशनल (एएनआई) की न्यूज़ एडिटर स्मिता प्रकाश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इंटरव्यू ने आक्रामकता की कमी और जवाबों पर आगे सवाल नहीं किए जाने को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी (स्मिता को ‘लचीला’ बताया) के साथ-साथ सोशल मीडिया के एक बड़े हिस्से को भी उत्तेजित कर दिया.

पर सच्चाई ये है कि ‘नरेंद्र मोदी बर्ताव’ न तो अस्वाभाविक है और न ही असामान्य.

1977 में बनी जनता पार्टी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी ने टिप्पणी की थी कि आपातकाल के दौरान प्रेस ‘झुकने के लिए कहने पर घुटनों के बल चलने लगा’ था.

कम से कम तब से, भारत के पत्रकार आमतौर पर प्रधानमंत्री के साथ श्रद्धा की हद तक सदाशयता से पेश आते रहे हैं.

‘सहजता से’

जब राजीव गांधी 1984 में अपनी मां की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने और सिख-विरोधी दंगे हुए, वह मीडिया की आंखों का तारा थे.

बोफोर्स घोटाले, जो कि आज भी राजीव गांधी की विरासत पर दाग जैसा है, का दोष उनके इर्दगिर्द की ‘कोटरी’ पर डाला गया जो शायद बुरी सलाह देकर उन्हें मुसीबतों में डाल रही थी.

भ्रष्टाचार के आरोपों के सामने आने के महीनों बाद 30 जून 1987 को इंडिया टुडे में प्रधानमंत्री के इंटरव्यू को इसके एक सबूत के तौर पर देखा जा सकता है.


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‘बोफोर्स दलाली, फेयरफैक्स विवाद, वीपी सिंह का इस्तीफा, राष्ट्रपति से तकरार, पंजाब में संकट, चुनावी झटके, बढ़ती सांप्रदायिकता, पार्टी के भीतर खटपट. इतनी समस्याएं अच्छे से अच्छे नेता को तोड़ सकती है.’

‘पर देश का सबसे युवा प्रधानमंत्री, राजीव गांधी, लगता है बिल्कुल अविचलित हैं. वहा शांत, आत्मविश्वास से पूर्ण, और अविश्वसनीय रूप से निश्चिंत हैं. न तो उन पर पद का बोझ है, औ न ही आत्मसंदेह. वह कठोरतम आलोचना को भी सहजता से लेते हैं और जटितलम मामले से भी इस प्रकार निबटते हैं कि मानो कोई गड़बड़ी हो ही नहीं सकती– भले ही जब चीज़ें, वास्तव में, बुरी तरह गड़बड़ हो रही हों.’

पुराने लोगों को याद है कि जब राजीव गांधी एयर इंडिया वन से विदेश दौरों पर निकलते थे, उनके विश्वस्त सहयोगी मणिशंकर अय्यर उन्हें पत्रकारों के मुश्किल सवालों से बचाने का काम किया करते थे.

ये बात अलग है कि जब नरेंद्र मोदी एयर इंडिया वन से निकलते हैं तो उनकी नीतियों और राजनीति पर सवाल पूछने वाले पत्रकार साथ नहीं होते हैं– दूरदर्शन, आकाशवाणी और फोटो डिवीज़न जैसे सरकार नियंत्रित मीडिया के अलावा एकमात्र प्राइवेट मीडिया कंपनी एएनआई ही अपवाद स्वरूप प्रधानमंत्री के साथ होती है.

और, पुराने समय में सिमी ग्रेवाल भी थीं, जिन्हें अपनी सौम्य अनाक्रामक छवि के कारण राजीव गांधी समेत भारत के उस दौर के अनेक नामी-गिरामी लोगों के इंटरव्यू मिले थे. उनके साक्षात्कारों में मखमली माहौल को खराब करने वाले ‘अशिष्ट सवालों’ की कोई जगह नहीं होती थी.

‘संत जैसे’

राजीव गांधी के बाद वीपी सिंह आए, उनके बाद चंद्रशेखर, और उनके बाद पीवी नरसिंहा राव, सब दो वर्षों के भीतर.

संयुक्त आंध्र प्रदेश के वरिष्ठ नेता नरसिंहा राव 1991 में राजनीतिक जीवन से संन्यास लेने को तैयार थे, और अपने गृह प्रदेश लौटने का इरादा व्यक्त कर चुके थे. इसलिए जब कथित रूप से सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए नामित किया, तो दिल्ली का मीडिया (तब वह लुटियंस मीडिया नहीं कहलाता था) दो खेमों में बंटा नज़र आया.

एक तरफ इंडिया टुडे जैसे संस्थान थे, जिसने 31 जुलाई 1991 तक राजीव गांधी और वीपी सिंह दोनों की आलोचना तेज़ करने, शायद इसलिए कि दोनों प्रधानमंत्री नहीं रह गए थे, और तत्कालीन प्रधानमंत्री के गुणगान का फैसला कर लिया था.

‘ठाठ-बाट के साथ प्रधानमंत्री की भूमिका निभाने वाले राजीव गांधी, और प्रधानमंत्री रहते हमेशा मुश्किलों से दो चार वीपी. सिंह के विपरीत पीवी. नरसिंहा राव अपने दायित्वों को हिंदुओं के विरक्ति भाव के अनुरूप लेते हैं.

‘उनके सिर पर ताज सहज लगता है. अपने कार्य को वे न तो महान मानते हैं, न ही चुनौतीपूर्ण. उनका तरीका आडंबररहित, शांति और कुशलता से काम करने का है, और वह इस बड़े दायित्व को सहजता से लेते हैं. कहा जा सकता है कि उनके लिए यह उनका राजनीतिक कर्म है, और उनका नज़रिया इसी के अनुरूप है: उनका जो कर्म है, वह उसे निभाएंगे.

‘तस्वीरों में उन्हें थका-मांदा और रुखा दिखाया जाता है, पर निकट से उनकी उपस्थिति संत-समान दिखती है, उल्लेखनीय है कि उनके चेहरे पर झुर्रियां नहीं हैं, उनकी आंखें सजग हैं, जो सीधा घूरती हैं, उनकी बातें संक्षिप्त, उनका रवैया अनाक्रामक, टालू और ज़रूरत पड़ने पर सशक्त. निश्चय ही वह ऐसे नेताओं में से नहीं हैं, जो अपने सहयोगियों के प्रति अप्रिय हों या जो उनमें उग्र भावनाएं जगाता हो.’

बहुत बाद में आकर, 1997 में, रिडिफ डॉटनेट के लिए ‘समय नहीं आ गया कि हम निरापदता के आधार पर अपने प्रधानमंत्री चुनना बंद कर दें?’ शीर्षक अपने लेख में पत्रकार वीर सांघवी ने लिखा:

‘राव के चयन के खिलाफ़ तर्क ज़ोरदार थे. वह ऐसे व्यक्ति थे, जिसके लिए चुनाव जीतना आसान नहीं.

‘भले ही उन्हें 10 भाषाएं आती हों, पर उनमें से किसी में वह अपनी राय नहीं बना सकते थे. उन्होंने 1991 का चुनाव तक नहीं लड़ा था, यह कहते हुए कि वह बुजुर्ग हो चुके हैं और संन्यास लेना चाहते हैं.

‘उनके पक्ष में सिर्फ एक बात थी: वह इतने निरापद थे कि उनसे किसी को ख़तरा नहीं था. स्वाभाविक था, ज़िम्मेदारी उन्हें मिली.

‘यह अलग बात है कि नरसिंहा राव भेड़ की खाल में भेड़िया साबित हुए.

‘छह महीने बीतते-बीतते उन्होंने कोटरी को ठिकाने लगाते हुए पार्टी पर नियंत्रण कर लिया था. उन पर भगवान की कोई कृपा ही होगी कि चुनावों संबंधी अक्षमता के बावजूद वह भारत को बदलने में सक्षम रहे और इतिहास संभवत: उन्हें देश के अच्छे प्रधानमंत्रियों में से एक के रूप में याद रखेगा.’

ये कटु शब्द उस व्यक्ति के बारे में थे, जिसने अर्थव्यवस्था को खोला, लाइसेंस राज को ख़त्म किया, और इज़रायल से भारत के रिश्तों को औपचारिक रूप दिया. नि:संदेह बाबरी मस्जिद का विध्वंस भी राव के कार्यकाल में ही हुआ, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस आज भी उत्तर प्रदेश में जड़ें नहीं जमा सकी है.

मंत्रमुग्ध करने वाला

राव के बाद के दो वर्षों में एचडी. देवेगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल के रूप में दो प्रधानमंत्री हुए, और उनके बाद भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी का नंबर आया. वाजपेयी ने मीडिया को, अख़बारों और टीवी चैनलों दोनों को ही, कई इंटरव्यू (रजत शर्मा, तवलीन सिंह, ज़ी न्यूज़) दिए.

पद पर रहते हुए वाजपेयी न सिर्फ हर तरह से मंत्रमुग्ध करने वाले साबित हुए, बल्कि उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के बावजूद भारत में सामाजिक विविधता सुनिश्चित रखने में अपने राजनीतिक कौशल का भी प्रदर्शन किया.

उन्होंने एक बुज़ुर्ग राजनेता की भूमिका निभाई– और मीडिया आमतौर पर मंत्रमुग्ध रहा– चाहे मामला इराक़ में सैनिक नहीं भेजने का हो, जम्मू कश्मीर के लिए विशेष पहल करने का हो, या पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सामान्य करने के लिए दो बार किए गए प्रयास हों.

यहां अरब जगत में बेहद प्रभावशाली माने जाने वाले अख़बार अशर्क़ अल-असवत के संपादक आमिर तहेरी को 27 अगस्त 2002 को दिए उनके साक्षात्कार के एक अंश को उद्धृत करना उचित होगा. तब मुशर्रफ़ के साथ आगरा वार्ता के नाकाम हुए एक वर्ष बीत चुका था और उन्होंने अभी जम्मू कश्मीर के लिए अपनी विशेष पहल नहीं की थी.

‘प्र: प्रधानमंत्री जी, सबसे पहले आपका आभार कि अरब जगत में सर्वप्रथम अशर्क़ अल-असवत को आपने इंटरव्यू दिया है. इससे अरब जगत में हमारे पाठकों और व्यापक मुस्लिम जगत को आपके विचार सीधे आपसे जानने का मौका मिलेगा.

उ: भारत अपने मुस्लिम समुदाय और इस्लाम के भीतर बहस में इसके योगदान के महत्व से भलीभांति अवगत है.

‘आज़ादी मिलने के समय से ही, भारत ने मुस्लिम राष्ट्रों के साथ अनेक स्तरों पर रिश्ते स्थापित और विकसित किए हैं. आज, तमाम मुस्लिम देशों से हमारे द्विपक्षीय रिश्तों को समृद्ध और मज़बूत कहा जा सकता है. सिर्फ पड़ोसी पाकिस्तान के साथ ही हमारी कुछ समस्याएं हैं.

‘पर ये दो देशों के बीच का मामला है, जिसका असर व्यापक मुस्लिम जगत से भारत के रिश्तों पर नहीं पड़ना चाहिए. मैं यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि फलस्तीन के मुद्दे पर भारत ने हमेशा ही अपनी मज़बूत और सैद्धांतिक स्थिति बरकरार रखी है. हमने फलस्तीनियों के लिए न्याय की मांग की है, और हम एक स्वतंत्र और मुक्त फलस्तीन राष्ट्र का समर्थन करने वाले शुरुआती राष्ट्रों में से हैं.

‘हां, आप कह सकते हैं कि और अधिक किया जा सकता है, और मैं इससे इत्तेफाक रखता हूं. इसीलिए हमारी सरकार सारे मुस्लिम देशों के साथ एक समृद्ध और मज़बूत रिश्ते को विशेष महत्व देती है.’

वाजपेयी 2004 चुनाव में कांग्रेस पार्टी से पराजित हुए और अगले दशक भर के लिए मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने.

‘व्यथित, पर क्रोधित नहीं’

मृदुभाषी पूर्व अर्थशास्त्री ने अगस्त 2007 में द टेलिग्राफ़ को एक धमाकेदार इंटरव्यू दिया, जिसमें परमाणु समझौते पर अड़े रहने की उनकी प्रतिबद्धता परिलक्षित हुई.

‘व्यथित प्रधानमंत्री ने वाम दलों से कहा, यदि आप समर्थन वापस लेना चाहें, तो ले लें’ शीर्षक से छपे इंटरव्यू को अख़बार ने अपनी राय के साथ प्रकाशित किया:

‘तमाम सज्जनों और जो सज्जन नहीं हैं, मनमोहन सिंह उस दुर्लभ प्रजाति के हैं, जो हमेशा विनम्र और सभ्य रहा, और कभी भी रुखापन या कड़वापन नहीं दिखाया. इसलिए, एक विशेष साक्षात्कार में द टेलिग्राफ़ से उनका यह कहना स्वाभाविक है कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की वाम दलों द्वारा मुखर आलोचना पर वह ‘क्रोधित नहीं पर व्यथित’ हैं.

‘श्री सिंह को जानने वालों को पता होगा कि सार्वजनिक रूप से ऐसा बयान देने में उन्हें भावनात्मक कष्ट हुआ होगा…’

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मौजूदा प्रधानमंत्री

मनमोहन सिंह की जगह पद पर 2014 में बैठने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय और विदेशी पत्रकारों को 20 इंटरव्यू दिए है– भारतीय मूल के अमेरिकी पत्रकार फरीद ज़करिया से लेकर रूस और सेशल्स के पत्रकारों तक को.

नववर्ष के दिन एएनआई को दिया साक्षात्कार नवंबर 2016 की नोटबंदी के बाद से उनका मात्र दूसरा इंटरव्यू था– पहला इंटरव्यू उन्होंने 2017 में इज़रायल की यात्रा, किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का पहला इज़रायल दौरा, पर जाने से पहले वहां के अख़बार हयोम को दिया था.

यह ज़रूर है कि अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत मोदी ने कभी संवाददाता सम्मेलन को संबोधित नहीं किया है.

पदासीन होने के दो वर्षों बाद जून 2016 में प्रधानमंत्री ने टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी से बातचीत की:

अर्नब: प्रधानमंत्री जी, इस इंटरव्यू के लिए आपका शुक्रिया. बहुत-बहुत धन्यवाद.

प्रधानमंत्री मोदी: सभी को मेरी शुभकामनाएं.

अर्नब: प्रधानमंत्री बनने के बाद से किसी प्राइवेट न्यूज़ चैनल पर यह आपका पहला आमने-सामने का इंटरव्यू है. और जहां तक मैं जानता हूं, भारत के एक पदासीन प्रधानमंत्री का देश के किसी प्राइवेट चैनल को दिया गया यह अब तक का पहला इंटरव्यू है. इसलिए सबसे पहले मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, और मैं इस मौक़े के लिए आपका बहुत आभारी हूं.

स्मिता प्रकाश के मोदी से साक्षात्कार को मीडिया और प्रधानमंत्रियों के बीच संबंधों के इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

निश्चय ही, मोदी ने अनेक सवालों के जवाब देने से इनकार किया और प्रकाश ने भी जवाबों पर सवाल नहीं खड़े किए, पर इतना तो साफ है कि वह इन पांच वर्षों में प्रधानमंत्री से सबसे विस्तृत बातचीत करने में सफल रही हैं.

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