राजनीति में एक सप्ताह का समय कोई बहुत लंबा तो नहीं होता, मगर एक साल जरूर एक लंबा समय हो सकता है. वैसे, यह जरूरी नहीं है कि एक राजनीतिक साल किसी मंत्रजाप की तरह लय में बीते. वह ऐसे उन्माद में बीत सकता है कि जब वह साल बीत जाए तब आपको उसके गुजर जाने का एहसास हो. और ऐसा हर साल नहीं होता. अलग-अलग साल अलग-अलग धुन हो सकती है.
अब जरा बात सरल भाषा में करें. कभी-कभी ऐसा होता है कि लगातार कई साल बीत जाते हैं और राजनीति में ठहराव बना रहता है. मध्य-मई 2014 से 2017 के उत्तरार्ध तक के तीन साल इसी तरह बीते. ये साल राजनीति के टीकाकारों के लिए दुःस्वप्न ही साबित होते अगर प्रधानमंत्री ने नोटबंदी जैसे कदम उठाकर सनसनी न पैदा की होती.
2017 के जाड़े तक अधिकतर टीकाकार इन तीन बातों पर एकमत थे – कि नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल तो पक्का है; कि राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस तो निश्चित पतन की ओर बढ़ रही है; कि इंदिरा गांधी के उत्कर्ष वाले दौर के काफी लंबे समय बाद भारत एकदलीय शासन और एकध्रुवीय राजनीति की तरफ बढ़ रहा है. उत्तर प्रदेश में भारी जीत, और पूर्वोत्तर में क्षत्रपों को समेटने के बाद भाजपा ने 21 राज्यों को अपनी झोली में डाल लिया था, और उसने मोदी के कार्यकाल में बाकी राज्यों के चुनाव से लेकर 2019 की बड़ी परीक्षा के लिए माहौल तैयार कर लिया था.
लेकिन दिसंबर 2017 के मध्य से बदलाव शुरू हो गया. हां, भाजपा ने छठवीं बार गुजरात जीत तो लिया था, मगर उसे टक्कर ऐसी मिली जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. यह उस बेचैनी में भी प्रतिबिम्बित हुआ जिस बेचैनी से मोदी और अमित शाह ने वहां चुनाव प्रचार किया.
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इसके ठीक बाद भाजपा संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री की आंखों से जीत और राहत की खुशी में जो आंसू निकले, उन्होंने एहसास करा दिया कि मुक़ाबला कितना कांटे का था. हमने तब लिखा था कि यह मोदी-शाह की राजनीति में बुनियादी बदलाव लाएगा; कि वे अब आर्थिक वृद्धि और रोजगार पर नहीं बल्कि हिंदुत्व, उग्र राष्ट्रवाद और जनकल्याणवाद के तीनसूत्री कार्यक्रम और भ्रष्टाचार के खिलाफ जिहाद पर ज़ोर देंगे. हम संतोष कर सकते हैं कि तब हमने सही चेतावनी दी थी.
फिर भी वह सबसे अहम बदलाव नहीं था, इसलिए इस हद तक हम उसे समझने में विफल रहे. 18 दिसंबर 2017 तक, यह कहने वाले बहुत लोग नहीं रहे होंगे कि अगले 12 महीनों में भारतीय राजनीति अपनी एकध्रुवीयता गंवा देगी. लेकिन आज यही हो गया है.
हमारी राजनीति किस कदर एकध्रुवीय हो गई थी, इसका अंदाज़ा टीवी पर ‘टाइम्स नाउ’ की एंकर नाविका कुमार और भाजपा महासचिव राम माधव के बीच की प्रकट ठिठोलियों से लग जाता है. माधव से सवाल किया गया था कि कर्नाटक में अगर बहुमत पाने में थोड़ी कसर रह गई तो भाजपा क्या करेगी? शासक दल के इस सबसे प्रभावशाली और प्रमुख विचारक का जवाब था- तो क्या हुआ, हमारे पास अमित शाह हैं!
यह कोई खोखला दावा नहीं था. सहज बुद्धि यही कहती थी कि भाजपा को कहीं भी अगर सीटों की कमी पड़ेगी तो बाकी दलों में से अधिकतर तो स्वतः उसकी ओर ही झुकेंगे. गोवा और पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में उसकी सफलता ने यही दिखा दिया था कि संख्या की कमी उसके लिए कोई बाधा नहीं बनती, क्योंकि मुक़ाबले में कोई था ही नहीं. गोवा, मणिपुर में वह भले ही सबसे बड़ी पार्टी नहीं थी, या मेघालय में वह अल्प संख्या में थी फिर भी वह उन राज्यों में सरकार बना ले गई. इसलिए, पूर्वोत्तर के कई राज्यों की भाजपा सरकारें फायदे की स्थिति में किए गए सौदे के समान थे. राम माधव उसी फायदे की स्थिति की ओर संकेत कर रहे थे, जिसके प्रतीक अमित शाह थे.
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कर्नाटक के मामले के साथ पहला बदलाव आया. कांग्रेस ने सत्ता की अपनी भूख को काबू में रखते हुए अपने छोटे सहयोगी को जिस तरह मुख्यमंत्री पद की पेशकश की, उसने उसके दोस्तों और दुश्मनों को भी स्तब्ध कर दिया था. इस तरह एक नई राजनीति का बीजारोपण कर दिया गया- भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कोई भी कीमत देने को तैयार लोगों का एक गठबंधन मजबूत होने लगा.
इसने अमित शाह शैली की राजनीति को सीधी चुनौती दी. शाह को ताकत संसाधनों और (आजकल जो एक शब्द प्रचलित हो गया है) ‘एजेंसियों’ से मिलती है. कर्नाटक की लड़ाई में एक मुकाम ऐसा भी आया की भाजपा के प्रतिद्वंद्वी फौरी लाभ और एजेंसियों के खौफ के कारण अपना चारा भी गंवा देने को थे. भाजपा ने तमाम क़ानूनों को तोड़-मरोड़कर और नैतिकता को ताख पर रखकर बेल्लारी बंधुओं को सीबीआइ की गिरफ्त से मुक्त करा दिया और फिर भी जीत न सकी. यह दूरगामी असर करने वाला राजनीतिक झटका साबित हुआ.
सरकार विरोधी हवा और चुनाव पर भारी खर्च, बेल्लारी माफिया की ताकत के बावजूद, और बेंगलुरु में सत्ता अपहरण को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनी स्वायत्तता के शक्तिशाली प्रदर्शन के चलते निर्णायक जीत हासिल करने में मोदी की विफलता ने उनकी अजेयता के मिथक को तोड़ दिया.
सबसे पहले तो कर्नाटक ने साबित कर दिया की मोदी और शाह कोई ऐसे प्रतिभाशाली नेता नहीं हैं जिन्हें परास्त नहीं किया जा सकता, कि कांग्रेस में अभी भी इतनी ताकत है कि वह इन्हें रणनीतिक मात दे सकती है. मोदी वहां चुनाव जीतने में नाकाम रहे जहां के वे चहेते माने जाते थे, संसाधन और एजेंसियों की ताकत विधायकों को खरीदने में विफल रही, एजेंसियां भी- खासकर सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अवज्ञा कर दी.
यहां याद करने वाली बात यह है कि इससे करीब एक साल पहले ही चुनाव आयोग मोदी-शाह की भाजपा को गुजरात में अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव के मामले में पहला संस्थागत झटका दे चुका था. यह साफ होता जा रहा था कि आप भाजपा की ताकत को चुनौती दे सकते हैं, और ऐसा करते हुए न केवल सही-सलामत रह सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं.
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इसने हिन्दी पट्टी में होने वाले चुनावों के लिए एक अलग समां तैयार कर दिया. पार्टियां और उनके सहयोगी अब विश्वास कर सकते थे कि मोदी को हराया जा सकता है, जो कि दिसंबर 2017 से पहले वे सपने में भी नहीं सोच पाते होंगे. दिसंबर 2018 के मध्य तक उनमें पहली बार भरोसा जागने लगा कि सत्ता उनकी भी पहुंच में है. इसलिए हम दिसंबर 2017 से दिसंबर 2018 तक के एक साल को सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक साल बता रहे हैं.
जिस दोपहर को मध्य प्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़ के चुनाव नतीजे आए, हमने कहा था कि भारत को कांग्रेसमुक्त बनाने का मोदी का सपना अब टूट चुका है. और अब तो खुद मोदी ने एएनआई की स्मिता प्रकाश को दिए ‘बहुचर्चित’ इंटरव्यू में यह कहकर इसकी पुष्टि कर दी है कि कांग्रेसमुक्त भारत के उनके विचार का अर्थ यह नहीं था कि उस पार्टी को नष्ट करना है बल्कि यह था कि उसकी विचारधारा को मिटाना है. मोदी ने कांग्रेस की विचारधारा को भी परिभाषित किया कि इसका मतलब है जातिवाद, वंशवादी तथा लोकतन्त्र विरोधी राजनीति, और भाईभतीजावाद.
अब राहुल गांधी के उभार, उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए खतरा बन रहा जाति-आधारित गठजोड़ (सपा-बसपा), और कांग्रेस द्वारा मोदी पर लगाए जा रहे भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद अगर कांग्रेस की विचारधारा के बारे में मोदी की परिभाषा सही भी हो, तो हकीकत यह है कि कांग्रेस 2010 के बाद से आज कहीं ज्यादा ताकत के साथ सामने खड़ी नज़र आ रही है.
भारतीय राजनीति का यह ध्रुव पिछले करीब तीन साल से ओझल था. यह कहना भी मूर्खता होगी कि 2019 में मोदी छुपे रुस्तम वाली स्थिति में पहुंच गए हैं. उनकी निजी लोकप्रियता, श्रोताओं से संवाद बनाने की उनकी कला और उनका करिश्मा कुल मिलाकर कायम है. जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, भारत में बहुमत का समर्थन पाए किसी मजबूत नेता को कोई चुनौती देने वाला नहीं हरा सका है. वह खुद ही अपनी हार को बुलाता है या बुलाती है, जैसी कि 1977 में इंदिरा गांधी ने बुलाई थी.
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लेकिन इसके लिए तीन बातें जरूरी हैं. एक तो यह कि वह इतना आलोकप्रिय हो जाए कि लोग उसके खिलाफ इस भावना से वोट करें कि चाहे उसकी जगह कोई भी सत्ता में आ जाए, इसे तो हटाना है. दूसरी यह कि विविध राजनीतिक ताक़तें उनसे इतनी नफरत करने लगें कि वे आपसी मतभेदों और महत्वाकांक्षाओं को भूलकर उनके खिलाफ गोलबंद हो जाएं. डर यहां उन्हें आपस में जोड़ेगा. और तीसरी बात यह कि कोई एक ऐसा व्यक्ति या ऐसी ताकत जरूर हो (जो कि भावी प्रधानमंत्री के रूप में न भी हो) जिसके इर्दगिर्द वे एकजुट हो सकें. 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी इस भूमिका में थे, 1989 में राजीव गांधी के खिलाफ वीपी सिंह थे.
एक साल पहले एक वंश के लड़खड़ाते, अनाड़ी उत्तराधिकारी नज़र आ रहे राहुल गांधी ने कांग्रेस को दूसरे ध्रुव वाली हैसियत में ला खड़ा किया है. 2019 का खेल शुरू हो चुका है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री संसद से अनुपस्थित होकर चुनावी अभियान पर निकाल पड़े हैं.
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