मंडपम, रामेश्वरम: इस साल अप्रैल की शुरुआत में पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को हटाने की मांग के साथ कोलंबो के संभ्रांत माने जाने वाले गाले फेस क्षेत्र में भीड़ के उमड़ने के साथ ही एक युवा जोड़े ने श्रीलंका के उत्तरी प्रान्त में स्थित वावुनिया से मन्नार द्वीप तक की अपनी सड़क मार्ग वाली यात्रा शुरू कर दी.
इंद्रकुमार कोडेश्वरन और उनकी गर्भवती पत्नी कस्तूरी ने पहले एक बस में दो घंटे की यात्रा की, उसके बाद मन्नार द्वीप पर शाम होने तक इंतजार किया और फिर उन्हें सात अन्य लोगों के साथ भारत जाने के लिए एक नाव में बिठा दिया गया. अंततः 10 अप्रैल को वे दोनों श्रीलंकाई तमिलों के लिए बने तमिलनाडु के सबसे बड़े शरणार्थी शिविर – मंडपम कैंप – में पहुंचे.
एक बड़े पैमाने पर फैले आर्थिक संकट, जिसके दौरान ईंधन और रसोई गैस की भारी किल्लत देखी गई, की वजह से हुए उग्र विरोधों के साथ श्रीलंका के लिया यह एक काफी उथल-पुथल भरा साल रहा है. रहन- सहन की लागत में हुई तीव्र वृद्धि ने कई श्रीलंकाई तमिलों के लिए अपना गुजारा करना असंभव सा बना दिया, और इसी बात ने उनमें से कुछ लोगों को बेहतर जीवन की तलाश में भारत आने के लिए प्रेरित किया. अब तक, लगभग 150 श्रीलंकाई तमिल मंडपम कैंप पहुंच चुके है.
कोडेश्वरन, जो वावुनिया जिले में रहने वाले एक कृषि श्रमिक थे, कहते हैं, ‘200 रुपये में रोटी का एक पैकेट खरीदने, एक छोटे बिस्किट के पैकेट के लिए 90 रुपये चुकाने और एक किलोग्राम चावल 250 रुपये में मिलने के साथ ही हमारा गुजारा करना बेहद मुश्किल हो गया था.’ जब इस दंपति ने भारत में रह रहे अपने परिवार में शामिल होने के लिए अपना घर छोड़ कर जाने का फैसला किया तो कोडेश्वरन की पत्नी कस्तूरी, अपने पहले बच्चे के साथ चार महीने के गर्भ से थी. उन्होंने बताया कि उनके माता-पिता और उनकी बहन पिछले तीन दशक से तमिलनाडु के इरोड स्थित भवानीसागर कैंप में रह रहे हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, तमिलनाडु में 108 शरणार्थी शिविरों में फ़िलहाल 58,000 से अधिक शरणार्थी रह रहे हैं.
कोडेश्वरन और कस्तूरी ने धनुशकोडी के अरिचल मुनई – भारत की दक्षिणी नोक का अंतिम बिंदु जो श्रीलंका से महज 18 नॉटिकल (समुद्री) मील की दूरी पर है – में 9 और 10 अप्रैल के बीच की रात को एक नाव द्वारा उन्हें उतार दिए जाने के बाद मंडपम कैंप की ओर चलना शुरू किया. वे कहते हैं, ‘हमने आखिरकार एक ऑटो को ढूंढ निकाला किया और इसने सुबह 5 बजे हमें शरणार्थी शिविर के बाहर छोड़ दिया.’ एक बार वहां पहुंचने के बाद उन्हें पुलिस स्टेशन ले जाया गया, उनके व्यक्तिगत विवरण मांगे गए, उन्हें अलग-अलग समूहों में विभाजित किया गया, और इस सब के बाद उन्हें उस जगह पर लाया गया जहां वे वर्तमान में रह रहे हैं.
इस दंपति के मंडपम कैंप में पहुंचने के लगभग एक हफ्ते बाद, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए नए आये शरणार्थियों से उनके हाल-चाल और उनकी जरूरतों के बारे में पूछा. कोडेश्वरन कहते हैं, ‘केवल कुछ लोगों ने ही उन्हें वीडियो के माध्यम से देखा, मुझे और मेरी पत्नी को बाहर बिठाया गया था.’
इससे पहले, श्रीलंकाई तमिलों के समुद्र के रास्ते पहुंचना शुरू करने के साथ ही, स्टालिन ने 1 अप्रैल को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को यह पूछने के लिए एक पत्र लिखा था, कि क्या राज्य को उन्हें अस्थायी शरण प्रदान करने की अनुमति दी जा सकती है, ताकि ‘(पहले से रह रहे) श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों को दी जा रही रियायतों उन तमिलों को भी प्रदान किया जा सकें जो अब आ रहे हैं.’ मूल रूप से श्रीलंका के प्रवासी बागान श्रमिकों के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाया गया मंडपम कैंप चेन्नई से 700 किमी दक्षिण में स्थित है और अब लगभग 1,500 श्रीलंकाई तमिलों का घर बन चुका है.
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3 बार का भोजन, 2 कप चाय – कुछ ऐसा है शरणार्थी शिविर का जीवन
अभी के लिए, कोडेश्वरन और उनकी पत्नी को कई अन्य नए श्रीलंकाई तमिलों की ही तरह अस्थायी आवास, तीन बार के भोजन और दो कप चाय की सुविधा दी गई है. कोडेश्वरन कहते हैं, ‘मेरी पत्नी लगभग 8 महीने के गर्भ से है और यहां दिया जाने वाला खाना बच्चे को जन्म देने वाली किसी महिला के लिए अनुकूल नहीं है. लेकिन मैं समझ सकता हूं कि वे 150 लोगों के लिए खाना बना रहे हैं और इसे सिर्फ एक शख्श के लिए इसे बदल नहीं सकते हैं.’
इस दंपति ने कैंप ऑफिस (शिविर कार्यालय) को कई सारी लिखित अर्जियां इस अनुरोध के साथ दी है कि कोडेश्वरन की मां को तीन महीने के लिए यहां आने की अनुमति दी जाए. वे कहते हैं, ‘हमें बच्चे के जन्म के दौरान उनकी मदद की ज़रूरत होगी. यहां तक कि एक स्कैन (सोनोग्राफी) के लिए भी अब हमें रामनाथपुरम जाना पड़ता क्योंकि शिविर के भीतर स्थित अस्पताल में ऐसी सुविधाएं नहीं हैं.’
लता (बदला हुआ नाम) भी नौ अन्य लोगों और दो बच्चों के साथ एक नाव से आयी थी. जिस दिन उसने श्रीलंका के पूर्वी प्रांत को हमेशा के लिए छोड़ने का फैसला किया, उस दिन वहां 100 ग्राम मिल्क पाउडर की कीमत श्रीलंकाई रुपयों में 400 थी.
जब वह मंडपम में उतरी, तो उसका सारा विवरण : नाम, लिंग, जन्म स्थान, दस्तावेज जो उसके पास थे और इसी तरह की अन्य बातें – सुर्ख़ रंग के एक ‘आपातकालीन पंजीकरण फॉर्म’ में दर्ज किया गया था. वह बताती है कि यह फॉर्म शरणार्थियों को शिविर छोड़ कर जाने की अनुमति नहीं देता है. वह कहती हैं, ‘अब, हमें एक दिन में तीन बार खाना और दो कप चाय दी जाती है, और हम ऐसी किसी कागजी कार्रवाई का इंतजार कर रह हैं जो हमें शरणार्थी के रूप में पहचान प्रदान करेगा.’
जहां लता वर्तमान आर्थिक संकट से त्रस्त हो बेहतर जीवन की तलाश में अन्य शरणार्थियों के साथ आई थीं, वहीं 2006 से इस शिविर में रह रही माथी (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि जब वे पहली बार यहां आईं थी तब भी उनकी स्थिति कोई अलग नहीं थी. वह कहती हैं, ‘हम एक दिन में एक समय का भोजन भी ठीक से नहीं कर पाते थे.’ गृह युद्ध वाले वर्षों में पानी, भोजन, कुछ भी नहीं था.
अपने वर्तमान जीवन के बारे में बात करते हुए माथी कहती हैं, ‘शिकायत करने के लिए कुछ खास नहीं है. अन्य लोग (शिकायत) कर सकते हैं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगी, क्योंकि मुझे पता है कि श्रीलंका में हमें क्या कुछ सहना पड़ा था.’
पिछले चार महीनों से, माथी अपने मूल देश की खबरों पर गहरी नजर रख रही हैं.
वह कहती हैं, ‘जब मैं ख़बरें देखती हूं, तो मुझे चिंता होती है, मुझे अपने देश के बारे में सोचकर रोने का मन करता है. अब जाकर सिंहली लोग समझे हैं कि हम क्यों लड़ रहे थे. आप एक हाथ से ताली नहीं बजा सकते, अगर हम पहले ही एक साथ मिलकर ताली बजाते, तो आज हमारा देश कुछ और होता.
दो मुल्कों के बीच फंसे हुए लोग
कड़ी निगरानी के बीच मंडपम कैंप की ओर जाने वाली वाली सड़क पर ताज़े चिकन से लेकर गोल्ड लोन तक सब कुछ उपलब्ध है. बुधवार की उस सुबह, श्रीलंकाई तमिल कैंप के गेट के अंदर और बाहर आ जा रह हैं: कुछ स्ट्रिंग बीन्स के बैग ले जा रहे हैं, कुछ अन्य निर्माण स्थलों पर काम करने के लिए या लगभग आधे घंटे की दूरी पर स्थित रामनाथपुरम के साप्ताहिक बाजार से सब्जियां खरीदने के लिए गेट से बाहर निकल रहे हैं. कैंप में रहने वाले लोग बसों और ट्रेनों के जरिए बाहरी दुनिया से संपर्क बनाये रखते हैं हैं. माथी कहतीं हैं मंडपम ‘एक प्रसिद्ध पड़ाव है.‘
इस बीच पिता और पुत्री की एक जोड़ी कैंप से निकल कर पहले एक सब्जी की दुकान जाते हैं और फिर वहां वापस जाने से पहले एक बेकरी में भी हो आते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरी बेटी इस शिविर में वर्षों से रह रही है, लेकिन मुझे अभी यहां आये दस दिन ही हुए हैं. मैं अपने ह्रदय की जांच के लिए आया हूं. श्रीलंका में छाए संकट के कारण दवाओं तक पहुंच और अधिक कठिन हो गई है. भारत में चिकित्सा की तलाश करना ही एकमात्र विकल्प था. मैं जहां से हूं, वहां (उत्तरी श्रीलंका में) इलाज तलाशना वास्तव में मुश्किल था.’
किसी और जगह पर, टिन की छत के नीचे खड़ा एक बूढ़ा तमिल आदमी अपने घर के पास से लोगों को गुजरते हुए देख रहा है वह उन लोगों की ओर इशारा करते हुए जो पैदल, साइकिल अथव मोपेड पर वहां से गुजरते हैं, दुहराता जाता है, ‘वह एक सीलोन कारन (व्यक्ति) है, वह एक सीलोन कारन है.’ फिर वह और उसका पड़ोसी श्रीलंका की वर्तमान स्थिति पर एक स्वतःस्फूर्त चर्चा में जुट जाते हैं.
वे कहते हैं, ’उनके पास पेट्रोल नहीं है, रहन-सहन की लागत बहुत अधिक हो गई है, उनके पास केवल उतना ही पेट्रोल है जितना मोदी उन्हें भेजते हैं,’ इस पर उनके पड़ोसी ने कहा, ‘इसके बाद चीनी आए और अपना बड़ा जहाज खड़ा कर दिया. उनका ऐसा करने का सहस तो देखो.’
कोडेश्वरन का कहना है कि उनकी अब वावुनिया वापस लौटने की कोई योजना नहीं है. वे कहते हैं, ‘ अब मेरा घर यही है, मेरा परिवार यहीं रहता है.’ लेकिन उन्हें अपने परिवार से मिलना अभी बाकी है क्योंकि उन्हें उन दस्तावेजों का इंतजार है जो उन्हें कैंप छोड़ने की अनुमति देंगे. वे कहते हैं. ‘मैं अपने साथ घटित कुछ ऐसा साझा करना चाहता हूं जो मुझे बहुत आहत करता है. कल से एक दिन पहले, मैं पुलिस चेक पोस्ट के पास के एक पेड़ के नीचे पड़े जामुन इकट्ठा कर रहा था. उस समय ड्यूटी पर मौजूद एक अधिकारी ने मुझसे बहुत बदतमीजी से बात की और कहा कि मैं यहां भीख मांगने आया हूं, और फिर उसने बिना किसी कारण के मुझे मारा.’
मंडपम कैंप कार्यालय के एक अधिकारी का कहना है कि अब तक 150 लोग तमिलनाडु में प्रवेश कर चुके हैं. अधिकारी का कहना हैं, ‘सामान्य परंपरा यह है कि उन्हें पहले पुझल जेल में रखा जाए, लेकिन चूंकि ये लोग आर्थिक संकट की वजह से भाग रहे हैं, इसलिए उन्हें यहां लाया जाता है खाना खिलाया जाता है और यहीं रखा जाता है. मैंने खुद उन्हें भोजन उपलब्ध कराया है.’
मंडपम कैंप में स्थित कई परिवारों के लिए, श्रीलंका एक ऐसा घर है जहां वे अब कभी पहुंच नहीं सकते हैं. मा थी कहती हैं, ‘मैं अक्सर अपने घर के बारे में सोचती हूं.’
वह आगे कहती हैं, ‘मैं वापस नहीं जा सकती. अगर यह मेरा अपना देश होता, तो मैं आजादी के साथ वहां जा सकती थी और वापस आ सकती थी, लेकिन अभी मैं ऐसा नहीं कर सकती, इससे मेरी वापसी मुश्किल हो जाएगी. भले ही यहां वे हमारी बहुत अच्छी तरह से देखभाल कर रहे होंगे, हमारे सिर पर छत प्रदान कर रहे होंगे, फिर भी मैं जानती हूं कि जब मैं मर जाउंगी, तो मुझे अपनी ही भूमि में दफनाया नहीं किया जा सकेगा.’
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