इन दिनों दुष्यंत का एक शेर अपने पूरे उफ़ान पर है नीचे वादी में आज़ादी के नारों के साथ…’कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो’. ख़ूब-ख़ूब उछाले जा रहे हैं पत्थर. वादी में पत्थरों पर बरस रही इनायत इन दिनों ख़ुदा की जानिब उछाली गयी दुआओं पर भी भारी पड़ रही है. शिद्दत से उछाले जा रहे हैं पत्थर…तबियत से उछाले जा रहे हैं पत्थर. लेकिन कमबख्त सूराख नहीं हो रहा आकाश में. वर्दियों के सर फूट रहे हैं, कंधे चटख रहे हैं, घुटने खिसक रहे हैं…लेकिन आसमान में छेद नहीं हो रहा और हो भी कैसे!
जब दुष्यंत तबियत से पत्थर उछालने का आह्वान कर गये थे तो उसमें सच्चाई की ताकत वाली बात छुपी हुई थी. यहां बहके हुए, भटके हुए किसी छद्म सपने के आगोश में लिपटे हुए पत्थर भले ही कितनी ही तबियत से उछाले जा रहे हों, उनकी पहुंच सर-कंधों-घुटनों तक ही सीमित रहने वाली है…आसमान में छेद करने की बिसात नहीं है इनकी. पत्थरों की ये बारिश तो यहां सरहद के इन ऊंचे बर्फ़ीले पहाड़ों तक भी नहीं पहुंच पा रही तो आसमान तो बहुत दूर की बात है.
नीचे गांव से हमारे राशन और अन्य सामान लाने वाले कश्मीरी पोर्टरों को कल लंगर में अपने जवानों के साथ बैठ कर खाना खाते देख कर रोक ना पाया ख़ुद को. शामिल हो गया उनकी पंगत में और जब पूछा उनसे कि उधर नीचे वादी के अपने भाई-बंधुओं की तरह तुमलोग भी क्यों नहीं पत्थर उठाते इस जानिब…इक्कीस वर्षीय उस्मान छेती के जवाब ने सुड़पते मटन की सरसराहट के मध्य एक ज़बरदस्त सम्मिलित ठहाकों की ऐसी गूंज उठायी कि मैं घबरा ही गया कहीं एवलांच ना आ जाए!
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उस्मान ने हौले से आदाब करते हुए अपनी छितरी-छितरी दाढ़ी में छुपे होठों पर एक दिलकश मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि ‘ऐसा है ना साब, नीचे वादी में दुआ के लिए सजदे में झुकी कमर पर भी आजादी लिख दी गयी है. जैसे भूत की कहानी सुन-सुन कर बड़े हुए बच्चे जानते हैं कि भूत नहीं होता, फिर भी भूतों की कहानियां सुनते हैं…सुनाते हैं…कुछ वैसा ही हाल नीचे वादी के लड़कों का है. आज़ादी क्या है, नहीं है…कुछ नहीं मालूम उन लड़कों को…लेकिन बचपन से सुनते आये हैं तो आज़ादी कह रहे हैं, आज़ादी बोल रहे हैं और साथ में मस्ती के लिए पत्थर फ़ेंक रहे हैं!’
इधर इन बरसते पत्थरों से मन उतना विचलित नहीं होता, जितना झेलम की उदासीनता से. जी करता है, इस मौन-शांत प्रवाह में रमी झेलम को झिंझोड़ कर कहूं कि तू इतनी निर्विकार कैसे रह सकती है जब तेरे किनारे खेलने-कूदने वाले बच्चे राह भटक रहे हैं चंद सरफ़िरों के इशारे पर. इन ‘भारतीय कुत्तों वापस जाओ’ के नारों से मन उतना खिन्न नहीं होता जितना चिनारों के बदस्तूर खिलखिलाने से.
मन करता है वादी के एक-एक चिनार को झकझोर कर पूछूं कि तुम इतना खिलखिला कैसे सकते हो जब तुम्हारी छाया में पले-बढ़े नौनिहाल तुम्हारे अपने ही मुल्क को गंदी गालियां निकाल रहे हों. इन आज़ादी की बेतुकी मांगों से मन उतना उदास नहीं होता जितना बगीचों में ललियाते रस लुटाते सेबों को देखकर होता है. दिल करता है इस सेबों को कुतर-कुतर कर कहूं कि किस काम के तुम्हारे मीठे स्वाद जब तुम्हें चख कर बड़े हुए लड़के ऐसे कड़वे नारे बुलंद कर रहे हों!
जी करता है…मन करता है…दिल करता है…बस यूं ही करता रहता है! कर कुछ नहीं पाता हक़ीकत में! ऐसे में निराश मन जब अखबारों, चैनलों और सोशल मीडिया पर नज़र दौड़ाता है तो वहां से भी उसे दुत्कार मिलती ही दिखती है. हर तरफ…हर ओर. निष्पक्ष मीडिया, ईमानदार बंधुगण कश्मीर के जख्मी लोगों की तस्वीर तो दिखाते हैं लेकिन उनके कैमरे के लैंस, उनकी कलम की स्याही जाने कैसे फूटे सर वाले पुलिसकर्मी, टूटे कंधों वाले सीआरपीएफ़ के जवान और लंगड़ाते सुरक्षाबलों की टुकड़ी को नज़रंदाज़ कर जाते हैं. इन टूटे-फूटे सुरक्षाकर्मियों की तस्वीर टीआरपी रेटिंग जो नहीं बढ़ाती…इन लंगड़ाते-कराहते पुलिसवालों का ज़िक्र फेसबुक पर बहस जो नहीं बढ़ाता!
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कैसे-कैसे क़िस्से आ रहे हैं नीचे वादी से…तहसीलदार के कार्यालय को जलाने में लिप्त चंद सरफ़िरे युवाओं में से कुछ की मौत उसी कार्यालय में उन्हीं के द्वारा लगायी आग से फटे गैस के सिलेंडर से होती है और इल्ज़ाम वर्दीवालों पर जाता है. कई दिनों से अस्पताल में भर्ती एक बीमार बुजुर्ग दम तोड़ते हैं और जब उनका जनाज़ा घर आता है तो अफवाह उड़ायी जाती है गली-कूचों में कि पुलिस के डंडों से मर गये हैं और पत्थरों की बारिश कहर बन कर टूटती है सुरक्षाकर्मियों पर. अपने ही मुख पर ‘भारतीय कुत्तों’ के विशेषण को सुनकर संयम बरतना बड़ा ही जिगर वाला काम है.
ऐसे में सेना, सीआरपीएफ और पुलिस के जवानों द्वारा नीचे वादी में दर्शाया जा रहा संयम पूरी दुनिया के लिए मिसाल है. एक सरफ़िरा नौजवान एक वर्दीवाले के पास आकर उसके यूनिफार्म का कालर पकड़ उसके चेहरे पर चिल्ला कर कहता है बकायदा अंग्रेज़ी झाड़ते हुए, ‘यू ब्लडी इंडियन डॉग गो बैक’ और बदले में वो वर्दीवाला मुस्कुराता है और सरफ़िरे नौजवान को भींच कर गले से लगा लेता…पूरी भीड़ हक्की-बक्की रह जाती है और वो वर्दीवाला अपने संयम को मन-ही-मन हज़ारों गालियां देता हुआ आगे बढ़ जाता है.
एक इलाके के एसपी साब का सर बड़े पत्थर से फूट चुका है…वर्दी पूरी तरह रक्त-रंजित हो चुकी है, किंतु वो महज एक हैंडीप्लास्ट लगाकर भीड़ के सामने खड़े रहते हैं अपने मातहतों को सख्त आदेश देते हुए कि कोई भी भीड़ पर चार्ज नहीं करेगा. दूसरे दिन चिकित्सकों की टोली सर पर लगे चोट की वजह से उनके एक कान को निष्क्रिय घोषित कर देती है.
कितने ही क़िस्से आ रहे हैं रोज़ नीचे से ऐसे-ऐसे. सुन कर अपनी और अपने जवानों की ख़ुशकिस्मती पर रश्क होता है कि शुक्र है हम इन बर्फ़ीले पहाड़ों पर सरहद की निगरानी में हैं और उधर नीचे वादी में तैनाती नहीं है हमारी! अगर होती तो क्या ऐसा संयम बरत पाते हम!
‘कितने हाथों में यहां हैं कितने पत्थर, गौर कर
फिर भी उठकर आ गये हैं कितने ही सर, गौर कर’
(गौतम राजऋषि भारतीय सेना में कर्नल और लेखक हैं.)