आज की तारीख में लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे पवित्र मूल्य दुनिया भर में क्रूर वैचारिक (पढ़िये: विचारहीन) आक्रमण झेल रहे हैं. अपने देश की बात करें तो इससे, स्वाभाविक ही, कई पीढ़ियां एक साथ व्यथित और विचलित हैं. सबसे ज़्यादा वह, जिसने न सिर्फ अपने समय में गुमी हुई आज़ादी की कीमत को पहचाना, बल्कि उसे ढूंढ़ लाने के लिए एड़़ी-चोटी का पसीना एक किया और जो खत्म होती-होती विलुप्ति के कगार पर जा पहुंची है. लेकिन वे पीढ़ियां भी कुछ कम विचलित नहीं, जो स्वतंत्र भारत में पैदा हुईं और नाना प्रकार की पतनशील प्रवृत्तियों के बीच पली-बढ़ी हैं. भले ही अलग-अलग कारणों से, एक जैसी तकलीफों से दो-चार होने के कारण, कई बार ये सारी एक जैसी कातर होकर आर्त स्वर में जैसे खुद से ही पूछने लग जाती हैं- आज़ादी के दौरान हुए असंख्य बलिदान क्या ऐसा ही देश बनाने के लिए थे, जैसा उसे बना डाला गया है?
यकीनन, इस सवाल का जवाब ‘नहीं’ ही हो सकता है, ‘हां’ कतई नहीं. प्रसंगवश, देश के क्रांतिकारी आन्दोलन द्वारा अपने वक्त में कई बार दिये जा चुके इस जवाब की लगातार अनसुनी न की गई होती तो ये पीढ़ियां इस तथ्य की रोशनी में अपना दुःख कम कर सकती थीं कि सशस्त्र स्वतंत्रता संघर्ष में कुछ भी उठा न रखने वाले इन क्रांतिकारियों ने अपने संघर्ष के लिए ज़रूरी सरंजाम जुटाने के उद्देश्य से नौ अगस्त, 1925 की रात गोरी सरकार का ट्रेन से ले जाया जा रहा खज़ाना लूटने के लिए लखनऊ के पास जिस ऐतिहासिक काकोरी कांड को अंजाम दिया था, उसके अप्रतिम शहीद अशफाकउल्लाह खां को, विदेशी तो क्या ऐसी जम्हूरी सल्तनत भी कुबूल नहीं थी, जिसमें कमज़ोरों का हक, हक न समझा जाये, जो हुकूमत के सरमायादारों व ज़मीनदारों के दिमागों का नतीजा हो, जिसमें मज़दूरों व काश्तकारों का मसावी यानी बराबर हिस्सा न हो या जिसमें ‘बाहम इम्तियाज़ व तफरीक रखकर हुकूमत के कवानीन बनाये जायें’.
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22 अक्टूबर, 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर कस्बे में बेगम मजहूरुन्निशां और मुहम्मद शफीकउल्लाह खां की सबसे छोटी संतान के रूप में जनमे और 19 दिसम्बर, 1927 को फैज़ाबाद की जेल में शहीद हुए अशफाक ने अपनी जेल डायरी में साफ-साफ लिखा है कि अगर आज़ादी का मतलब इतना ही है कि गोरे आकाओं के बजाय हमारे वतनी भाई सल्तनत की हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में ले लें और तफरीक-व-तमीज़ अमीर व गरीब, ज़मीनदार व काश्तकार में कायम रहे तो ऐ खुदा मुझे ऐसी आज़ादी उस वक्त तक न देना, जब तक तेरी मखलूक में मसावात यानी बराबरी कायम न हो जाये.
जानकारों के अनुसार अशफाक ने यह डायरी अपने भाई रियासतउल्लाह खां के कहने पर लिपिबद्ध की थी, जो लम्बे अरसे तक गुमनामी में खोई रही. इसमें आगे उन्होंने यह भी लिखा है कि ऐसे खयालों के लिए उनको इश्तिराकी यानी कम्युनिस्ट समझा जाये तो भी उन्हें इसकी फिक्र नहीं. जब उन्हें फांसी होने ही वाली थी तो देशवासियों के नाम अपने संदेश में उन्होंने देश में सक्रिय कम्युनिस्ट ग्रुप से गुज़ारिश की कि वह जन्टिलमैनी छोड़कर देहात का चक्कर लगाये, गोरे आकाओं को महसूस कराये कि वे वास्तव में क्या हैं और ऐसी आज़ादी के लिए काम करे, जिसमें गरीब खुश और आराम से रहें और सब बराबर हों.
उन्होंने कामना की थी कि उनकी शहादत के बाद वह दिन जल्द आये, जब छतरमंज़िल लखनऊ में अब्दुल्ला मिस़्त्री और धनिया चमार, किसान भी, मिस्टर खलीकुज्जमा और जगतनारायण मुल्ला व राजा महमूदाबाद के सामने कुर्सी पर बैठे नज़र आयें.
क्रांतिकारियों की भूली-बिसरी जीवनियों के उत्खनन और उनकी भूली बिसरी यादों की रक्षा के साथ क्रांतिकारी आन्दोलन की चेतना के पुनर्पाठ को समर्पित वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी के प्रयत्नों से हाल ही में प्रकाशित इस जेल डायरी में क्रांतिकारी के तौर पर अशफाक की ईमानदारी व संघर्ष की सम्पदा तो है ही, कलम की शक्ति भी दिखाई देती है. डायरी का सम्पादन करते हुए श्री विद्यार्थी ने इसे ‘राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास की सबसे कीमती धरोहर’ बताया है और अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘शहादतनामा’ में इसके हवाले से अशफाक की बाबत कई अनछुई व अनूठी जानकारियां दी हैं.
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प्रसंगवश, ‘जालिमों के जुल्म से तंग आकर’ ‘बेदाद से’ अशफाक ने जिस ‘जिन्दान-ए-फैज़ाबाद’ से 19 दिसम्बर, 1927 को महज इतनी-सी आरजू के साथ कि ‘रख दे कोई ज़रा सी खाकेवतन कफन में’, ‘सू-ए-अदम’ की राह पकड़ी थी, उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की अनुकम्पा से अब उस पर ‘जिन्दान-ए-अयोध्या’ का ठप्पा लगा दिया गया है, तो क्षुब्ध श्री विद्यार्थी पूछते हैं कि वहां जाकर ‘चल दिये सू-ए-अदम जिन्दान-ए-फैज़ाबाद से’ लिखने या बोलने से योगी और उनके समर्थक ‘नाराज़’ तो नहीं हो जायेंगे? दरअसल, फैज़ाबाद के अशफाकउल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान ने उनको अपना इस साल का प्रतिष्ठित ‘माटीरतन सम्मान’ देने की घोषणा भी कर रखी है.
लम्बे समय तक अशफाक के शहर शाहजहांपुर में रहे श्री विद्यार्थी बताते हैं कि काकोरी कांड के बाद गोरों की पुलिस ने 26 सितम्बर, 1925 की रात पूरे उत्तर भारत में संदिग्धों के घरों व ठिकानों पर छापे डाले तो अशफाक ने खुद को अपने घर से थोड़ी दूर स्थित एक गन्ने के खेत में छिपकर उसकी निगाहों से बचा लिया था. उसके फौरन बाद वे नेपाल चले गये थे और लौटे तो कानपुर में ‘प्रताप’ के सम्पादक गणेशशंकर विद्यार्थी के यहां शरण ली थी, जो उन दिनों स्वतंत्रता संघर्ष में मुब्तिला प्रायः सारे सेनानियों का अघोषित अड्डा हुआ करता था. बाद में विद्यार्थी जी ने उन्हें बनारस भेज दिया था, जहां से वे चोरी-छिपे तत्कालीन बिहार के पलामू स्थित डाल्टनगंज चले गये थे.
उन्हीं दिनों पंजाब के क्रांतिकारी लाला केदारनाथ सहगल ने अशफाक को देश से बाहर शरण दिलाने का प्रस्ताव दिया तो उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया था कि ‘मैं देश से भागना नहीं, बल्कि देशवासियों के साथ रहकर आज़ादी के लिए लड़ना चाहता हूं.’ फिर लड़ने के संकल्प के साथ वे दोबारा कानपुर आ धमके तो विद्य़ार्थी जी ने पुलिस की पहुंच से दूर रखने के लिए उन्हें भोपाल भेज दिया, लेकिन वहां टिकने के बजाय वे एक दोस्त के साथ दिल्ली चले गये, जहां उसके विश्वासघात के शिकार हो गये. इस दोस्त ने उनकी गिरफ्तारी के लिए घोषित इनाम के लालच में उन्हें गिरफ्तार करवा दिया तो काकोरी कांड के पूरक मुकदमे का नाटक कर उन्हें फांसी की सज़ा सुना दी गई.
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फरारी के दिनों में बिहार के डाल्टनगंज में छद्मनाम से एक इंजीनियर के संरक्षण में काम करने वाले अशफाक खुद को मथुरा ज़िले का कायस्थ बताया करते थे. वहां रहते हुए उन्होंने बंगला सीख ली थी और कभी-कभी बंगला के गीत भी गाते थे. दिलचस्प यह कि शायरी के शौकीन उक्त इंजीनियर ने यह जानने के बाद कि अशफाक ‘हसरत वारसी’ नाम से शायरी भी करते हैं, उनका वेतन बढ़ा दिया था. शायरी की एवज में उन्हें मिली यह वेतनवृद्धि इस अर्थ में बहुत महत्वपूर्ण है कि उनकी रचनाएं अभी भी पृथक मूल्यांकन की मांग कर रही हैं, लेकिन इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है. इस बात की भी चर्चा कम ही होती है कि उनकी बच्चों के लिए लिखने की बड़ी आकांक्षा थी, जिसे वे शहादत के कारण पूरी नहीं कर पाये.
अपनी डायरी में अशफाक ने सर वाल्टर स्कॉट की नज़्म ‘लव ऑफ कंट्री’ के साथ स्पार्टा के वीर होरेशस के किस्से को अपने क्रांतिकारी जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा बताया है. लिखा है कि जब वे आठवां दर्जा पास होकर आये और उनके अध्यापक ने अपने देश को बचाने के लिए होरेशस के टाइबर नदी पर बना पुल तोड़कर दुश्मन सेनाओं को आने से रोकने और तब तक संकरे रास्ते पर तीन साथियों के साथ खड़े होकर लड़ने का वाकया सुनाया तो भावावेश में वे रोने लगे थे. यों, एक जगह अशफाक ने यह भी लिखा है कि उनकी नाउम्मीदियों ने ही उन्हें क्रांतिकारी बनाया.
जानना चाहिए, इस डायरी में अशफाक ने न अपनी हसरतों को दबाया या छिपाया है और न ही जिन्दगी को. अपनी ननिहाल के लोगों की जहां उन्होंने इस बात को लेकर कड़ी आलोचना की है कि उसने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देशवासियों के बजाय अंग्रेज़ों की तरफदारी चुनी, वहीं यह लिखने से भी संकोच नहीं किया है कि ‘मैं दादा की तरफ से कौमपरस्त और ननिहाल की तरफ से अंग्रेज़परस्त पैदा हुआ, मगर मां का खून कमज़ोर था. सो, वतनी आज़ादी का जज़्बा बरकरार रहा और आज मैं अपने प्यारे वतन के लिए मौत के तख्ते पर खड़ा हुआ हूं.’
अपने पिता के लिए उनके शब्द हैं, ‘मेरे वालिद साहब मुहम्मद शफीकउल्लाह खां सब इंस्पेक्टर पुलिस थे, मगर खुदा के फज़लोकरम से मेरे पैदा होने के पेश्तर ही वह मुस्तैफी हो चुके थे. गो कि वह मेरी कमउम्री में ही दुनिया से गुज़र गये, वह मुझे पुलिस के कारनामे सुनाया करते थे, जो मुझे अभी तक याद हैं.’
अशफाक की साफगोई यहीं खत्म नहीं होती. वे अपने खानदान की कूढ़मगजी पर तो निर्मम प्रहार करते ही हैं, यह भी लिखते हैं कि अपनी कुर्बानी के प्रायश्चित से उन्होंने अपनी ननिहाल व ददिहाल दोनों के धब्बों को धोया है. जिन पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के साथ उन्होंने शहादत दी और जिनसे उनकी दोस्ती के रंगों को एक का कट्टर आर्यसमाजी और दूसरे का पक्के मुसलमान होना भी हलका नहीं कर सका, उनके बारे में भी अशफाक यह दर्ज करने से नहीं चूके हैं कि पहली मुलाकात में वे उनसे बेहद रुखाई से पेश आये थे. उनकी यह रुखाई तब तक कायम रही थी, जब तक वे बिस्मिल को यह विश्वास दिलाने में कामयाब नहीं हो गये कि उनके मन में भी उन्हीं की तरह देश के लिए कुछ करने की ईमानदार ख्वाहिश है.
बाद में क्रांतिकारियों ने काकोरी में सरकारी खज़ाना लूटने के लिए आपरेशन की योजना बनाई तो अशफाक ने उनकी केन्द्रीय समिति में पेश बिस्मिल के इस आशय के प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया था. उन्होंने कहा था, ‘हमारा दल अभी मज़बूत नहीं हुआ है. उसमें वह शक्ति नहीं है कि सरकार से सीधा युद्ध कर सके. इसलिए पहले दल का आधार मज़बूत किया जाये. सरकार को इस तरह चुनौती देने से हमारा दल बिखर जायेगा और यह हमारे और देश के हित में नहीं होगा.’
उनका एतराज नहीं माना गया तो उन्होंने किंचित भी अन्यथा लिये या बुरा माने बगैर उस आपरेशन को सफल बनाने के लिए पूरी निष्ठा के साथ खुद को समर्पित कर दिया.
आज हम कह सकते हैं कि उस वक्त अशफाक की बात मान ली जाती तो देश के क्रांतिकारी आन्दोलन का इतिहास कुछ और ही होता. लेकिन जो भी होता, अशफाक ने उसका कभी कोई गिला शिकवा नहीं किया, बल्कि लिखा है, ‘ ऐ वतनी मुहब्बत! तेरी अदाएं भी निराली और अनोखी हैं. वरना यह आसान काम नहीं कि कोई इंसान मौत का मुकाबला करने के लिए अपने को इतनी खुशी से पेश करे.’
उनकी जेल डायरी पढकर यह विश्वास और गहरा होता है कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान दी गई शहादतें देश की ऐसी शक्ल-व-सूरत के लिए कतई नहीं थीं, जैसी इन दिनों बना (पढ़िये: बिगाड़) डाली गई है. यकीनन, देश की इस बदशक्ली का एक बड़ा कारण यह है कि वह नामुकम्मल काम अभी भी पूरा होना बाकी है, अशफाक और उनके साथी जिसके लिए मैदान-ए-अमल तभी तैयार कर गये थे और युवाओं से कहा था-‘उठो-उठो सो रहे हो नाहक!’
(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)