वारेन बफे की एक मशहूर लाइन है, ‘लहरों के चले जाने के बाद ही आप को पता चलता है कि कौन नंगे तैर रहा था.’
तीन महीने पहले बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि उनकी पार्टी अगले 50 साल तक पूरे देश पर राज करेगी. लेकिन कल पांच बड़े राज्यों में मिली करारी हार के बाद अब अगले पांच महीनों के भीतर होने वाले आम चुनाव के लिए अमित शाह का दावा कमज़ोर पड़ता दिखाई दे रहा है.
अमित शाह और उनकी पार्टी इस हार के कई बहाने देते हुए कहेंगे कि इन चुनावों नतीजों का कोई असर आम चुनाव पर नहीं पड़ेगा. यह राष्ट्रीय स्तर का नहीं केवल राज्यों के चुनाव थे. वहां कुछ स्थानीय मुद्दे थे. एक हद तक एंटी इनकंबेंसी भी हावी रही. कांग्रेस ने लोन माफी का कभी न पूरा होने वाला वादा किया है. राजस्थान में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन होता है.
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अब तक हमने जितना देखा है उस हिसाब से ये सारे बहाने उनको झुठलाते नजर आते हैं. हमें बताया गया है कि बीजेपी एक ऐसी चुनावी मशीन बन चुकी है जिसे कोई हरा नहीं सकता. उसके सामने बाकी सब मीडिया, विपक्ष और वोटर्स केवल नाममात्र के लिए हैं. लेकिन अब अमित शाह की उस अपराजित मशीन को क्या हो गया?
अमित शाह के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है
हमें 2014 से ये बताया जा रहा कि ब्रांड मोदी और चाणक्य शाह ने राजनीति की बिसात पर खेल को अलग तरह से खेलना शुरू किया है. भारत में चुनाव जीतने की पुरानी स्ट्रेटजी अब काम नहीं करती. तब तो ऐसी स्थिति में राजस्थान का वोट एंटी इनकंबेंसी को दरकिनार कर 50 साल तक राज करने जा रही बीजेपी को पड़ना चाहिए था. अमित शाह के पन्ना प्रमुख और नए तरह के जातीय समीकरण से राजस्थान में कांग्रेस को उखाड़ फेंकना चाहिए था. ऐसे में अब यह साफ हो गया है कि अमित शाह के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है जो खेल के नियम को बदल दे. भारतीय राजनीति जैसे 2014 के पहले थी वैसे ही अभी भी है.
2014 से कहा जा रहा है कि मोदी और शाह कांग्रेस मुक्त भारत बनाना चाह रहे हैं. कल आए चुनाव के नतीजे से यह समझा जा सकता है कि बीजेपी अपने चरम पर पहुंच चुकी है. इन चुनावों में कांग्रेस के पक्ष से ज्यादा भाजपा के विरुद्ध में वोट पड़े हैं. किसानों के कर्जमाफी और फसलों को उचित समर्थन मूल्य देने के वादों को छोड़ दें तो ये वोट कांग्रेस के लिए नहीं था. इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी के तरीके में थोड़ा बदलाव आया है लेकिन अभी ढांचागत बदलाव आना बाकी है.
ऐसा कहा जाएगा कि इन चुनावों में नरेंद्र मोदी अहम मुद्दा नहीं हैं, ये राष्ट्र का मूड नहीं बताते. लेकिन बीजेपी के हिसाब से 2013 में यही मुद्दे थे. क्या अमित शाह जैसे रणनीतिकार ने इन चुनावों को स्थानीय बना कर गलती नहीं की? क्या ये गुजरात और उत्तर प्रदेश की तरह मोदी के चेहरे के साथ नहीं लड़े जाने चाहिए थे. या फिर क्या अमित शाह को लगने लगा है कि वे चुनाव जिताने वाला नया चेहरा बन चुके हैं.
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जैसा कि कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश दोनों जगह एंटी इनकंबेंसी थी, ऐसी स्थिति से निपटने के लिए क्या अमित शाह को मुख्यमंत्री नहीं बदल देने चाहिए थे? इन सभी राज्यों में चुने हुए विधायकों के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी थी लेकिन इनमें से किसी को भी हटाया नहीं गया. जबकि देखा जाए तो 2013 में बीजेपी द्वारा राजस्थान और मध्य प्रदेश में दो-तिहाई बहुमत के साथ जीत दर्ज करने के बावजूद विधायकों की एंटी इनकंबेंसी एक बड़ा सरदर्द बन गई थी, लेकिन फिर भी अमित शाह ने उनमें से ज्यादातर विधायकों फिर से मौका दे दिया.
अमित शाह को जिस तरह से मास्टर स्ट्रेटिजिस्ट बताने के दावे किए जा रहे हैं उस हिसाब से उन्होंने न तो एससी-एसटी एक्ट पर अपर कास्ट के गुस्से को शांत करने के लिए कुछ किया और न ही किसान के मुद्दों को संबोधित करने के बारे में कभी सोचा. जहां अमित शाह ने यूपी चुनाव कुछ हद तक किसानों के कर्ज माफी के वादे के साथ जीता था, वहीं उन्होंने इस बार इन वोटों को कांग्रेस के हिस्से जाने दिया.
यह सच है कि इन राज्यों के लोग यह बताने में सतर्कता बरतेंगे कि 2019 में क्या वे मोदी को वोट करेंगे या नहीं. यह राज्यों का चुनाव था. इन्हीं सब कारणों से इस बार के नतीजे अमित शाह को सवालों के घेरे में खड़ा करते हैं. मोदी जल्द ही अपना बड़ा चुनाव लड़ेंगे, लेकिन यह कहना अब मुश्किल होगा कि अमित शाह की रणनीति इस बार कितनी कारगार होगी.
लहरें जब लौट जाती हैं…
अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने कई चुनाव जीते. इनमें से ज़्यादातार चुनाव जीतने में उन्हें अस्थिर पदाधिकारी, ब्रांड मोदी, कमज़ोर कांग्रेस और बिखरे विपक्ष से मदद मिली. लेकिन असली चाणक्य तो वह होता है जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में हार के मुंह से जीत छीन ले आए. एक मंजे हुए रणनीतिकार की असली पहचान तब होती है जब ब्रांड मोदी की चमक फीकी पड़ गई हो और तीन बार की नाकामियों को डिफेंड करना हो. पिछले साल हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद जहां केंद्र में होने के बावजूद बीजेपी की सीटों में गिरावट देखी गई थी, उस वक्त ही अमित शाह की नेतृत्व कुशलता पर सवाल उठने लगे थे. तब कहा गया कि जीत-जीत होती है. उपचुनाव स्थानीय उपचुनाव हैं जिसमें मोदी फैक्टर जैसी कोई बात नहीं है.
कर्नाटक में बिखरे विपक्ष के बावजूद बीजेपी चुनाव जीतने में असफल रही थी. बल्कि इसकी जगह उसने विपक्ष को एकजुट करने के साथ ही कर्नाटक में बीजेपी की लोकसभा सीटों पर संभावनाओं को भी कमज़ोर कर दिया.
मंगलवार को आए चुनाव परिणाम से हम एक नए अमित शाह को उभरते देख रहे हैं जिसके अंदर 2014 के बाद लगातार चुनाव जीतने जैसी चमक नहीं दिख रही है. हो सकता है कि वे कभी इतने बड़े रणनीतिकार नहीं रहे हों और मोदी लहर के कारण उनकी केवल हवा बनाई गई हो.
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