भारत के आधुनिक इतिहास में पंद्रह अगस्त को पूरी सहजता के साथ एक सबसे महत्वपूर्ण तारीख माना जाता है, जो क्रांति और क्रूरता का एक साझा प्रतीक है क्योंकि आजादी ने क्रूर हिंसा के बीच ही जन्म लिया था. तिथियां किसी राष्ट्र की स्मृतियां और सामयिक लय की दशा-दिशा तय करने पर केंद्रित होती हैं. मेरी पसंदीदा भारतीय तिथि तो 26 जनवरी ही है, जब भारत ने पूरी तरह एक गणतंत्र और लोकतंत्र का दर्जा हासिल किया. और इसके अलावा यह इतिहास की एक ऐसी तारीख भी है जिसका चयन और निर्धारण ब्रिटिश राज के बजाये पूरी तरह भारतीय नेताओं ने किया. महज कुछ तारीखों से परे, वह एक कालखंड होता है जो इतिहास का निर्धारण करता है. जैसा विद्वान इतिहासकार क्रिस्टोफर क्लार्क की हालिया किताब टाइम एंड पॉवर में बताया गया है, समय शासन-केंद्रित एक राजनीतिक श्रेणी निर्धारित करता है क्योंकि इसमें ही राजनीतिक धारणाओं को मजबूती मिलती है. हर राजनीतिक शासनकाल एक विशिष्ट बुनावट और अनुभव पर आधारित होता है.
विडंबना यह है कि इतिहास का अतीत से नाता कम और भविष्य पर दखल ज्यादा रहा है. आधुनिक भारत की बात करें तो इतिहास और उसका लेखन राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक राजनीति की कल्पना और कार्यशीलता के लिहाज से खासा महत्वपूर्ण रहा है. हमारे लगभग सभी प्रमुख राष्ट्र निर्माताओं ने इतिहास लिखा है. इतिहास भारत के भविष्य को लेकर विचार व्यक्त करने और उन्हें प्रोजेक्ट करने का खाका बन चुका है. भले ही कुछ लोगों ने अपने विचारों पर लेखनी न चलाई हो, फिर भी अतीत पर भिन्न विचार तो रखते ही थे. ऐसे में विवाद केवल अतीत को लेकर ही नहीं रहे हैं, बल्कि अब यहां राजनीतिक स्तर पर इतिहास के सापेक्ष मूल्यों पर भी हैं. वास्तविकता तो यही है कि भारत में वैचारिक मतभेदों की जड़ें सिर्फ जवाहरलाल नेहरू या विनायक दामोदर सावरकर जैसी हस्तियों द्वारा दर्ज इतिहास के जरिये नहीं तलाशी जा सकती हैं. संक्षेप में कहें तो सवाल यह है कि क्या अतीत ने मौजूदा राजनीतिक कदमों के लिए कुछ दिशानिर्देश बनाए थे या क्या इतिहास ने नैतिकता की कोई ऐसी रेखा निर्धारित की, जिसने उन्हें समान रूप से विभाजित कर दिया.
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युद्ध बनाम शांति: सावरकर बनाम गांधी
काफी आश्चर्यजनक है कि सबसे प्रभावशाली और महत्वपूर्ण राजनीतिक नायक होने के बावजूद मोहनदास करमचंद गांधी इतिहास को कोई खास तवज्जो नहीं देते थे. इस मामले में भी वह अपने समकालीन तमाम राजनेताओं से एकदम अलग खड़े नजर आते थे, चाहे वो उन्हें सख्त नापसंद करने वाले विंस्टन चर्चिल हों या फिर उनसे बेहद प्रभावित नेहरू— ये दोनों अपने समय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट-सेलिंग इतिहासकार रहे हैं.
गांधी ने इतिहास पर जोर न देने वाला नजरिया अपनाया. ऐसा इसलिए, क्योंकि जैसा वह अक्सर कहते थे, इतिहास तो हिंसा के समान है. चूंकि अहिंसा सामान्य बात थी और जो मानवीय परिस्थितियों को पोषित करती थी, इसके बारे में बहुत कम या न के बराबर रिकॉर्ड मिलता है. यदि आप उनके 1909 के राजनीतिक घोषणापत्र हिंद स्वराज और उसके बाद के किसी लेखन या व्याख्यान, जो सौ से अधिक खंडों में प्रकाशित है, पर सरसरी निगाह डालें तो पता चलता है कि गांधी को खासकर एक-दो लाइन वाली निजी उक्तियों में महारत हासिल थी. इसके लिए न तो कोई साक्ष्य पेश किया गया और न ही हालिया या प्राचीन इतिहास से कोई मदद ली गई.
गांधी के लिए ये बात ज्यादा मायने रखती थी कि भारत की दीर्घकालिक पहचान को बेहतर ढंग से जाना-समझा जाए और इसे इतिहास से परे ही रखा जाए. गांधी के इतिहास-विरोधी विचार जितने सरल थे, उनमें उतनी ही दृढ़ता भी नजर आती थी. दैनिक और समय के सापेक्ष धारणा दोनों को अहमियत देकर उन्होंने एक अनूठी और गहन नतीजों वाली नैतिक राजनीति की बुनियाद रखी जो साम्राज्यवादियों और यहां तक कि कुछ राष्ट्रवादियों, दोनों को ही समान रूप से बेचैन करने वाली थी.
हिंसक रूप में इतिहास के मूल्यांकन को लेकर यह मूलभूत अंतर भी सावरकर को लेकर गांधी के राजनीतिक प्रतिकार की कोई कम बड़ी वजह नहीं थी. एक सफल इतिहासकार सावरकर की नजर में अहिंसा भारत के ठहराव और पराधीनता की एक वजह थी. आत्महत्या से कुछ साल पहले 1963 में प्रकाशित अपनी अंतिम कृति सिक्स ग्लोरियस एपक में सावरकर ने हिंसा की गतिशीलता रेखांकित की. दो सहस्राब्दियों के दौरान भारत की पहचान को उन्होंने छह नतीजापरक युद्धों और खासकर बौद्ध धर्म और इस्लाम के जरिये निर्धारित किया. इसमें भारत जंग का मैदान बना. इतिहास के इस ऐलान-ए-जंग वाले स्वरूप में सावरकर एक सैन्य इतिहासकार की भूमिका निभाते हैं.
अतीत की यात्रा करते समय सावरकर का उद्देश्य ये दर्शाना नजर आता है कि पहचान और जुड़ाव का नया स्वरूप तय करने में युद्धों की अहम भूमिका रहती है. इतिहास तब हिंदुत्व की दीर्घकालिकता का इतना अहम साक्ष्य नहीं था. एक नए राजनीतिक विचार के बजाये, इतिहास ने हिंदुत्व को बढ़ावा देने वाली संभावित स्थितियां बनाईं. एक तरह से देखे तो संस्थापक होने के बावजूद उनका हिंदुत्व के उत्साही समर्थकों से मतभेद ही रहा है क्योंकि वह महाकाव्यों, पुराणों या हिंदुत्व की पुरातनता के किसी भी दावे को खारिज करते थे. सावरकर का उद्देश्य, अगर कुछ था तो यही कि पाठक इतिहास को मौजूदा समय में एक राजनीतिक हस्तक्षेप के नजरिये से देखे और भविष्य के टकरावों पर विजय हासिल करने वाला साबित हो.
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पहले ही बता दिया राजनीतिक भविष्य
सावरकर की सिक्स ग्लोरियस एपक नेहरू की 1946 में लिखी गई बेस्ट सेलिंग कृति डिस्कवरी ऑफ इंडिया का सीधा जवाब थी. जेल में लिखी गई नेहरू की ब्लॉकबस्टर किताब सावरकर की कृति की तरह ही भारत के अतीत की दो सहस्राब्दियों का इतिहास संजोए है. लेकिन साथ ही यह विश्व के इतिहास में राष्ट्रीयता का एक नया सशक्त चेहरा भी सामने लाती है. यूरोप और पश्चिम ने जहां पुरजोर तरीके से भाषाई, जातीय और धार्मिक एकरूपता को राष्ट्रीयता का आधार बनाया था, नेहरू के लिए भारतीय इतिहास एक नया राजनीतिक सिद्धांत पेश करने का साधन बना. विविधता भारत की उस भावना की आत्मा बनी जो पराधीनता के बावजूद मजबूत और स्थिर बनी रही. नेहरू की तरफ से भारत ने पूरे विश्व को न केवल एक अनमोल संदेश दिया बल्कि पिछली सदी के हिंसक इतिहास का एक सशक्त प्रतिरोधक भी बन गया.
हालांकि, परस्पर विरोधी होने के बावजूद सावरकर और नेहरू दोनों ने भविष्य को गढ़ने के लिए इतिहास का सहारा लिया. ऐतिहासिक लेखन के माध्यम से भविष्य की संभावनाएं तलाशना आधुनिक भारत के राजनीतिक चिंतन की एक विलक्षण पहचान है. एक सदी से, भारत में राजनीतिक विचारों को मुख्यत: इतिहास के पन्नों पर दर्ज किया गया है. पूर्वाभासी या भविष्यसूचक और किसी कालखंड का मिजाज बताने वाला ऐतिहासिक लेखन राजनीतिक नायकों को पेशेवर इतिहासकारों से अलग करता है. हालांकि, मूलत: विरोधी होने पर भी सावरकर और नेहरू की कृतियों में कल्पनाशीलता के निशान नजर आते हैं, भले ही सकारात्मक हों या नकारात्मक.
आश्चर्यजनक ढंग से और नेहरू और सावरकर दोनों के विपरीत, आंबेडकर ने ऐसा विचार अपनाया, जो उनके विरोधी-नायक गांधी से बहुत ज्यादा अलग नहीं था. विभाजन के पक्ष-विपक्ष में आवेग और आलोच्य विषयों की पड़ताल करते हुए वह भी अतीत की गहन गलियों से गुजरे. आंबेडकर लिखते हैं कि अतीत भूलने की अक्षमता ने ही हिंदुओं और मुसलमानों के बीच मौजूदा हिंसक संघर्षों को जन्म दिया. नेहरू और सावरकर की राय के विपरीत, कुछ हद तक विस्मृति भी भारत में राष्ट्रीयता के निर्माण के लिए आवश्यक थी.
इतिहास के युद्ध प्रभावी तौर पर भविष्य को नियंत्रित करने के साधन रहे हैं. न सही और न ही गलत, इतिहास तो मौजूदा एवं सक्रिय टेम्पलेट है और यह राजनीतिक विचारों की अभिव्यक्ति और उन पर अमल का एक माध्यम भी है. आश्चर्यजनक रूप से, सभी राजनीतिक योद्धाओं और नायकों के विपरीत गांधी ने इतिहास को कहीं पीछे छोड़ दिया ताकि भारत के पुनर्निर्माण के लिए निडर होकर भविष्य का सामना किया जा सके. और ऐसा करके गांधी ने निश्चित तौर पर एक इतिहास ही रचा है.
(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इंडियन हिस्ट्री और ग्लोबल पॉलिटिकल थॉट की प्रोफेसर हैं. वह @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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