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Wednesday, 20 November, 2024
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राम मंदिर तो बहाना है, उन्हें भावनाओं को भुनाना है

यह नहीं कहा जा सकता कि अयोध्या में 25 नवंबर को जो कुछ हुआ, वह साधु-संतों का स्वतःस्फूर्त प्रयास था क्योंकि धर्मसभा के लिए भीड़ जुटाने में भाजपा नेता भी पूरी तरह सक्रिय थे.

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अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद द्वारा प्रायोजित धर्मसभा के समय ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान के अलवर में चुनाव सभा में कहा कि अयोध्या विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में कांग्रेस ही सबसे बड़ी बाधक है क्योंकि उसके वे नेता, जो बड़े वकील और राज्यसभा के सदस्य हैं, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राज्यसभा में महाभियोग की धमकी देकर डरा रहे हैं.

इधर, यह नहीं कहा जा सकता कि अयोध्या में उस रोज़ जो कुछ हुआ, वह साधु-संतों का स्वतःस्फूर्त प्रयास था क्योंकि धर्मसभा के लिए भीड़ जुटाने में भाजपा नेता भी पूरी तरह सक्रिय थे. सड़कों पर उनके नाम से लगे बैनर तक इसके गवाह हैं.

सवाल है कि इसमें हो रहे डराने-धमकाने के प्रयास किनके द्वारा और किसके लिए हो रहे थे? क्या उन अल्पसंख्यकों के लिए, जो 1992 में विहिप की जुटाई भीड़ का कुफल भोग चुके हैं? तब 264 घरों व दुकानों के साथ 16 अल्पसंख्यकों को ज़िन्दा जला दिया गया था या मार डाला गया था, जबकि उनकी बड़ी संख्या अपने घरों में ताला लगाकर भाग गयी थी.

यदि यह सब लोकसभा चुनाव को लेकर सरकारों को धमकी देने का मामला था, तो सरकारें भी गैरों की नहीं धमकाने वालों की अपनी ही हैं. उन्होंने ही इन केंद्र व राज्य सरकारों को बनाया है, जिनकी इच्छाओं के बगैर इस संबंध में कोई कार्रवाई हो ही नहीं सकती.

बहरहाल, अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि समेत कुल मिलाकर लगभग 70 एकड़ ज़मीन अधिग्रहीत है. सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के समक्ष इसे चुनौती देने वाले मुकदमे में, जिसे मो. इस्माइल फारुकी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के नाम से जाना जाता है, मुस्लिमों का यह तर्क खारिज किया जा चुका है कि धार्मिक स्थल व आस्थाओं से संबद्ध होने के कारण किसी मस्जिद की भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता.

अंग्रेज़ों के काल के अधिग्रहण कानून के तहत कलकत्ता में पहले भी एक मस्जिद का सार्वजनिक कार्यों के लिए अधिग्रहण किया जा चुका है, जबकि अयोध्या विशिष्ट क्षेत्र अधिग्रहण अध्यादेश 1993 में भी, जो अब कानून बन गया है, धार्मिक स्थलों को अधिग्रहणमुक्त रखने का प्रावधान नहीं है. इसी मामले में न्यायालय यह भी कह चुका है कि नमाज़ के लिए मस्जिद आवश्यक तत्व नहीं है और कहीं भी पढ़ी जा सकती है.

प्रसंगवश, बाबरी मस्जिद से जुड़े निर्मोही अखाड़ा के रामचबूतरे और सीतारसोई को भी अधिग्रहीत कर लिया गया है. हालांकि सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपने दावे में इनके स्वामित्व का दावा नहीं किया था. अब विवादित भूमि और उसके आसपास की लगभग 70 एकड़ भूमि केन्द्र सरकार के कब्ज़े में है, फैज़ाबाद {अब अयोध्या} के डिवीज़नल कमिश्नर जिसके रिसीवर हैं. सो, किसी अन्य द्वारा उसे किसी को नहीं दिया जा सकता.

उसे किसे और किन उद्देश्यों के लिए सौंपा जाये, यह निश्चय केंद्र सरकार ही अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के अनुसार कर सकती है. बहरहाल, विवादित भूमि का विवाद अब तक इसलिए अटका है क्योंकि पुराने मुकदमे खत्म करने के लिए उक्त कानून की धारा-4(1) में जो व्यवस्था दी गयी थी, उसमें वैकल्पिक सुनवाई का प्रावधान न होने के कारण न्यायालय ने उसे संविधानेतर घोषित कर दिया और मामले को स्वामित्व के निर्धारण के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पुरानी पीठ को सौंप दिया था.

उच्च न्यायालय के उसे तीन हिस्सों में बांटने के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने वाले विभिन्न पक्ष उसे अनुचित बता रहे हैं और कह रहे हैं कि बंटवारे की अर्ज़ी तो किसी पक्ष ने दी ही नहीं थी और न्यायालय को स्वेच्छा से ऐसा करने के बजाय पक्षों द्वारा विचार के लिए उठाये गये मुद्दों पर ही निर्णय देना चाहिए था. ज़ाहिर है कि अब अपील में भूमि के स्वामित्व का ही निर्धारण होना है. यानी यह कि साक्ष्यों के अनुसार वह किसे दी जानी चाहिए.

मुस्लिम पक्ष मानता है कि ‘राइट आफ एडवर्स पज़ेशन’, जो जाब्ता फौजदारी कानून की उपज है, उसके पक्ष में है. नज़ीर के तौर पर पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने लाहौर में एक मस्जिद गिराकर बनाये गये गुरुद्वारे को, वहां दो बार इस्लामी शासन रहने के बावजूद, इसी अधिकार के तहत बेदखल नहीं किया है.

दूसरे पक्ष की मानें तो 1528 में बाबर के निर्णय के अनुसार उसके सिपहसालार मीरबांकी ने मंदिर ढहाकर यह मस्जिद बनाई थी, जो फैज़ाबाद के तत्कालीन मजिस्ट्रेट श्री जयकरन नाथ उग्र द्वारा न्यायालय में दाखिल शपथ पत्र के अनुसार 22-23 दिसंबर, 1949 की रात उसमें मूर्ति रखे जाने के एक दिन पूर्व तक उसी रूप में प्रयुक्त होती रही थी. सवाल है कि क्या इस कब्ज़े पर विचार नहीं होगा, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी कह चुके हैं कि न्यायालय इसकी सुनवाई भूमि विवाद के रूप में ही करेगा.

आस्था की परिधि से मुक्त

ऐसे में यह विवाद आस्था, विश्वास और भावनाओं की परिधि से स्वतः मुक्त हो जाता है. इस सवाल पर विचार करें कि इस सारे विवाद के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाये, तो बाबर व मीरबांकी तो लगभग 500 वर्ष पहले ही दुनिया छोड़ चुके हैं और उन्हें किसी मुकदमे में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता.

सो, अब सकल प्रसंग केंद्र सरकार के पास ही है. बताने की आवश्यकता नहीं है कि केंद्र के साथ उत्तर प्रदेश में भी, जिसमें अयोध्या अवस्थित है, भाजपा ही सत्तारूढ़ है और इन दोनों ही सरकारों को अपने निर्णयों में संविधानेतर प्रयत्नों से बचना होगा.

इस समय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जिस तीन सदस्यीय पीठ में विवाद की सुनवाई हो रही है, उसे अधिग्रहीत क्षेत्र के संबंध में 24 अक्टूबर, 1994 के जस्टिस वेंकटचेलैया की पीठ द्वारा दिये गये निर्णय को प्रभावित, परिवर्तित या परिवर्धित करने का अधिकार नहीं है. रहा स्वामित्व का प्रश्न, तो वह किसी के भी पक्ष में निर्णीत हो, लेकिन क्या वह संसद द्वारा बनाये गये उक्त अधिग्रहण अधिनियम से मुक्त हो सकता है?

इधर बड़ा तूमार बांधा जा रहा है कि केंद्र सरकार अध्यादेश लाकर या कानून बनाकर मंदिर बनाने का रास्ता साफ करे. इस पर विचार करें तो अयोध्या की धर्मसभा में स्वामी रामभद्राचार्य का कथन है कि उन्हें एक बड़े मंत्री ने बताया है कि आगामी ग्यारह दिसंबर से 12 जनवरी के बीच राममन्दिर के संबंध में बड़ा महत्वपूर्ण निर्णय होगा. लेकिन 11 दिसंबर से ही संसद का शीतकालीन सत्र आहूत किया गया है और उसके सत्र के दौरान कोई अध्यादेश जारी नहीं किया जा सकता. तिस पर अयोध्या विशेषक्षेत्र भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की प्रस्तावना में कहा गया है कि अधिग्रहीत भूमि पर राममंदिर, मस्जिद, पुस्तकालय, वाचनालय, संग्रहालय और तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाओं का निर्माण किया जायेगा.

इस अध्यादेश को संसद द्वारा कानून के रूप में परिवर्तित किया गया तो उसका मूल उद्देश्य लंबे समय से चले आ रहे विवाद की समाप्ति था. इस कानून को परिवर्तित, परिवर्धित या निरस्त करने की शक्ति संसद के पास अवश्य है, लेकिन अभी तक इस प्रकार की कोई नोटिस नहीं दी गयी है, जबकि पहले इस कानून को निरस्त करना होगा, तभी दूसरा कानून अस्तित्व में आ सकेगा.

बहरहाल, इस कार्य में प्रमुख बाधा सर्वोच्च न्यायालय का यह दृष्टिकोण है, जिसका उसकी संविधान पीठ ने अपने फैसले में कई बार ज़िक्र किया है कि धर्मनिरपेक्षता और उसकी रक्षा संविधान के प्रमुख तत्व हैं. न इनका उल्लंघन किया जा सकता है और न इन्हें ठेस पहुंचाने वाला कोई कानून बन सकता है.

इस संबंधी जो संवैधानिक संकल्प व व्यवस्थाएं हैं, उनके खिलाफ़ आचरण भी संभव नहीं है. ऐसे में समस्त अधिग्रहीत भूमि विश्व हिंदू परिषद को सौंप दी जाये, यह संभव ही नहीं है क्योंकि इस संबंध में जो भी कानून बनेगा, संवैधानिक बाध्यताओं से मुक्त नहीं हो सकता.

अयोध्या विशेष क्षेत्र भूमि अधिग्रहण कानून में यह भी कहा गया है कि उसकी प्रस्तावना के अनुसार निर्माणों के लिए यह भूमि पुराने संगठनों के बजाय नये संगठनों को ही दी जा सकेगी. यह बात भी विहिप के दावे के विपरीत ही इस्तेमाल होगी.

अभी केंद्र तथा अधिकांश राज्यों में भले ही भाजपा की सरकारें हों, लेकिन संविधान को परिवर्तित कर धर्म पर आधारित राज्य का गठन नहीं हुआ है. सो, दूसरे पहलू पर जायें तो भावी चुनावों में भाजपा का यह संदेश देना भी कि वह मंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है, एक प्रकार से चुनाव में साम्प्रदायिकता का प्रयोग ही माना जायेगा, जो चुनाव कानून के अनुसार स्वीकार्य नहीं है.

ज़ाहिर है कि अभी इस बाबत जो कुछ भी हो रहा है, वह केवल भावनाओं को उभारने का खेल है, जो पहले भी चुनावों के अवसर पर होता आया है.

(शीतला सिंह फैजाबाद से निकलने वाले अखबार जनमोर्चा के प्रधान संपादक हैं.)

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