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Friday, 22 November, 2024
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धर्मनिरपेक्ष राजनीति अपने ही पापों का ख़ामियाज़ा भुगत रही है

सेक्युलर होने से ही भारत का होना है, लेकिन सेक्युलर सिद्धांतों को बचाने के लिए ज़रूरी है कि हम सेक्युलर राजनीति के पाखंडों का पर्दाफ़ाश करें.

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हर पंचायत में गोशाला, राज्य में गो-अभ्यारण्य, गोमूत्र का व्यावसायिक उत्पादन, नर्मदा परिक्रमा का निर्माण और राम वनगमन पथ…

ऐसा लगता है मानो गोपालन का कोई ककहरा पढ़ रहे हों! यह ककहरा मध्य प्रदेश में कांग्रेस के मेनिफेस्टो में आया है. ककहरे को पढ़कर ठीक ही माना जा रहा है कि कांग्रेस ने हिंदुत्व की राजनीति के आगे घुटने टेक दिये हैं. लेकिन ध्यान रहे कि ये वादे उतने हास्यास्पद या प्रतिगामी नहीं जितना कि उन्हें मान लिया गया है.

पशु-कल्याण का दायित्व निभाना चाहते हैं तो गोशालाओं का संचालन ठीक-ठाक होना ही चाहिए. इसी तरह, अगर आप सांस्कृतिक पर्यटन को बढ़ावा देना चाहते हैं तो फिर नर्मदा परिक्रमा का वादा जायज़ जान पड़ेगा. लेकिन कांग्रेस निश्चित ही नज़र के इस नुक्ते से नहीं सोच रही. यह कांग्रेस की एक बेचैन कोशिश है- हिंदुत्व की पिच पर हाथ-पांव मारने की! हिंदुत्व की इस पिच को बीजेपी ने तैयार किया है और वही इसपर खेलती भी आयी है.

कांग्रेस की मेनिफेस्टो कमिटी के चेयरमैन ने बड़ी साफगोई मगर हथियार डालने वाले अंदाज़ में स्वीकार किया कि कांग्रेस अपने ऊपर लगे ‘मुस्लिम पार्टी’ का ठप्पा धो डालना चाहती है. ‘नरम हिंदुत्व’ की तरफ कांग्रेस ने कोई पहली दफे रुख नहीं किया है. राहुल गांधी गुजरात और कर्नाटक में रणनीति की इस राह पर चल चुके हैं. और फिर, इकलौती कांग्रेस ही कोई ‘सेक्युलर’ पार्टी नहीं जो इस राह की मुसाफिर हो. अखिलेश यादव ने एक विशाल विष्णुमंदिर बनाने का वादा किया है.

नरम हिंदुत्व की इस राजनीति को लेकर ‘धर्मनिरपेक्षता’ के पैरोकारों ने दो रुख अपनाया है. इनमें जो बात-बात पर सिद्धांतों की दुहाई देने वाले हैं वे अफसोस में हैं. उन्हें लग रहा है कि यह तो बहुसंख्यकवादी राजनीति के पाले में सरकने जैसा है. वे सोचते हैं कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति ने सांप्रदायिकता से आमने-सामने की लड़ाई मोल लेने का मुश्किल मगर व्यावहारिक रास्ता तज दिया.


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धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों में कुछ प्रयोजनवादी नज़रिये से सोचने वाले हैं. उन्हें लगता है कि कांग्रेस के पास कोई और विकल्प था ही नहीं. वे इसे हिंदुत्व से उसी के अखाड़े में निपटने के कांग्रेसी पैंतरे के रूप देखते हैं, ऐसा पैंतरा जो बस कुछ वक्त के लिए है. सो, जिन्हें कांग्रेस का नरम हिंदुत्व अफसोसनाक लग रहा है उनका तर्क है कि रणनीति की इस राह को अपनाने से बचा जा सकता था. और, जो लोग सोच रहे हैं कि कोई और विकल्प बचा ही नहीं था वे नरम हिंदुत्व के कांग्रेस के पैंतरे को जायज़ मान रहे हैं. यह दुविधा और बहस आगे लोकसभा चुनाव के दौरान भी जारी रहेगी और, शायद उसके बाद भी जारी रहे.

सच्चाई का कुछ अंश दोनों ही की बातों में है. बहुसंख्यकवादी भावनाओं के उभार से जी लगाना निश्चित ही चिंताजनक है. आज की तारीख में भले ही यह वक्ती पैंतरा जान पड़े लेकिन कल को यही मानक बन सकता है. लेकिन साथ ही ये भी सच है कि कांग्रेस सरीखी पार्टी के सामने कोई और रास्ता नहीं. अगर चुनाव जीतने की आस जलाये रखनी है तो फिर आज के माहौल में कांग्रेस घनघोर धर्मनिरपेक्षतावादी रवैया अख्तियार नहीं कर सकती. तो फिर यों कहें कि नरम हिंदुत्व की राह अफसोसनाक तो है मगर ज़रूरी हो चली है.

धर्मनिरपेक्षता की राजनीति ने जो ज़मीन तैयार की है उसमें अब ठोस सैद्धांतिक दुहाइयों की जगह नहीं बची. जनमत का धर्मकांटा पुरज़ोर सेक्युलर नीतियों और राजनीति की तरफ झुकने को अभी तैयार नहीं. बात को बेधड़क और बेलौस होकर यों कहें कि धर्मनिरपेक्ष राजनीति अपने ही पापों का ख़ामियाज़ा भुगत रही है.

चले थे मनमीत की गली को और पहुंच गये बेमेल ब्याह के मंडवे में-राजनीति में यह फिसलन कोई अचानक का वाकया नहीं है. मेरे जानते चार मरहलों से कदम-दर-कदम गुज़रते हुए सेक्युलर राजनीति आज के ‘कहां जाऊं-क्या करूं’ के मुकाम तक पहुंची है. आपको शायद यह भी लगे कि ये चार प्रवृतियां सेक्युलर राजनीति में शुरू से ही मौजूद थीं.

सेक्युलर राजनीति ने अपनी शुरुआत आस्था और संकल्प से की थी. देश के बंटवारे के बाद के वक्त में इस सोच की टेक पर चलना कि भारत कोई हिंदू पाकिस्तान नहीं है, बड़ी दिलेरी की बात थी- ऐसी दिलेरी जो किसी नायक का ही गुण होती है. महात्मा गांधी की शहादत और नेहरू की लोकप्रियता के बीच एक गैर-मामूली माहौल पैदा हुआ था और यह माहौल हिंदू कोड बिल के पास होने में मददगार रहा.

यह बात तो तय ही है कि सेक्युलर राजनीति और एक आम, धर्मभीरु हिंदू के मन-मिजाज़ के बीच वैसा कोई मेल नहीं था. हिंदुओं, खासकर बंटवारे के बाद आये शरणार्थियों के मन में एक बैचैनी थी. इन शरणार्थियों ने हिंसा झेली थी. गांधी की शहादत और नेहरू की लोकप्रियता के उस दौर में हिंदुओं के मन की इस बेचैनी को इज़हार का मौका नहीं था. मुसलमान भी सदमे में थे, बिखर चुके थे. भारत का धर्मनिरपेक्ष होना उन्हें जंचा- लगा कि इस नवोदित राष्ट्र से निष्ठा जोड़ने की एक ठोस वजह मौजूद है.


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लेकिन फिर जल्दी ही आस्था और संकल्प की इस राजनीति ने अपने लिए सुविधा के मोड़ तलाश लिये. कांग्रेस की धाक को जैसे-जैसे चुनौतियां मिलीं, मुस्लिम जनता की बड़ी और बढ़ती हुई तादाद इस दबदबे वाली पार्टी के लिए उपयोगी साथी साबित हो गई. कांग्रेस के नेताओं को लगा कि मुस्लिम वोटों को मुट्ठी में करना कहीं ज़्यादा आसान है. इसके लिए आपको बस ठीक-ठीक जुमले उछालने की ज़रूरत है, कुछ प्रतीकात्मक सुविधाएं देनी हैं और मौलानाओं की जमात को खुश रखना है.

मुसलमान को वोट-बैंक मानने और मौलानाओं की जमात को तुष्ट रखने की मंशा से नीति गढ़ने की राजनीति इसी मौके पर पैदा हुई. आम मुसलमान को इससे कुछ खास नहीं मिला लेकिन एक आम हिंदू को लगने लगा कि मुसलमानों के साथ तरजीही बरताव हो रहा है.

तीसरा मरहला और भी खराब था क्योंकि इस मरहले पर सेक्युलर राजनीति के लिए सुविधापरस्ती ने चुनावी और राजनीतिक अनिवार्यता का रूप ले लिया. कांग्रेस चुनाव हारने लगी क्योंकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सरीखे बड़े समूह विपक्षी खेमे की तरफ खिसकने लगे. अब कांग्रेस के वजूद के लिए मुस्लिम वोट को हर हाल में अपने लिए बचाये रखना ज़रूरी हो गया.

ऐसा करने का सबसे भरोसेमंद तरीका था मुसलमानों को असुरक्षित महसूस करवाना. मुसलमानों में भय-भावना कायम रहे, उन्हें हिफाज़त की ज़रूरत महसूस होती रहे, इस गरज से थोड़े-थोड़े अंतराल पर दंगे होते रहें. कांग्रेस ने एक मॉडल इजाद कर लिया था और बाकी सेक्युलर पार्टियों ने इसकी नकल की. अन्य जाति या समुदायों के उलट मुस्लिम वोट बटोरने के लिए आपको शिक्षा, नौकरी, बिजली, सड़क और पानी की पेशकश करने की ज़रूरत नहीं रही. बस मुसलमानों को असहाय बनाये रखिए और उन्हें हिफाज़त परोसते रहिए.

मुस्लिम सेक्युलर राजनीति के एकदम से बंधक बन गये. सेक्युलर राजनीति का नेतृत्व तय करता था कि मुस्लिम भावनाओं को फलां बात माफिक पड़ेगी और इसे जायज़ मान लिया जाता था क्योंकि सेक्युलर राजनीति का अर्थ ही हो गया था अल्पसंख्यकों की तरफदारी करना. सामाजिक न्याय के नाम से परोसी जा रही जाति की राजनीति के साथ हिंदू दूर खिसकते चले गये. नतीजा विध्वंसक रहा: मुसलमान पिछड़ेपन की गर्त में जाते रहे जबकि हिंदुओं में अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण से खीझ बढ़ती रही.

आज जो मंजर हम देख रहे हैं वह इसी मरहले से तैयार हुआ है जब सेक्युलर राजनीति आत्म-समर्पण की मुद्रा में है. अयोध्या आंदोलन ने सेक्युलर राजनीति के दोमुंहेपन को उजागर कर दिया था. चुनावों ने नफरत की राजनीति और संघ-परिवार के प्रचारित झूठ के सुलगने के लिए पर्याप्त गोला-बारूद जुटा दिया था. जनमत से विलगाव और लंबे अरसे तक उससे पीठ फेरे रहने के कारण सेक्युलर राजनीति के पास ऐसे औजार नहीं बचे थे कि वह इस झूठ का प्रतिकार करती. जनमत का धर्मकांटा हिंदुत्व की तरफ झुक चला.

सेक्युलर राजनीति की गति सांप-छछूंदर की हो गई कि ना उगलते बन रहा है ना निगलते: वह सिद्धांत बचाती है तो चुनावी मैदान में हाशिए पर रहने को मजबूर होगी और नरम हिंदुत्व की राह पर चलती है तो उसका अपना ही संकल्प थोथा साबित होता है. सेक्युलर राजनीति की कुछ धाराओं ने जातिगत बंटवारे का पत्ता खेलकर जनता से अपना आमना-सामना एक हद तक टाले रखा लेकिन होनी को अब कोई टाल नहीं सकता था और 2014 में वह होकर रहा. कोई अचरज नहीं कि कांग्रेसी काट की सेक्युलर राजनीति अब आत्म-समर्पण की मुद्रा में है.

अभी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि नरम हिंदुत्व की राजनीति तात्कालिक तौर पर फायदे का सौदा साबित होगी या नहीं. लेकिन हम ये ज़रूर जानते हैं कि लंबे सफर पर निकलने के लिए यह रास्ता ठीक नहीं. ज़रूरत सेक्युलरवाद को संकट से उबारने और उसे नये धज में गढ़ने की है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता भारतीय गणराज्य की पवित्र आस्थाओं में से एक है. सेक्युलर होने से ही भारत का होना है, सेक्युलर नहीं तो भारत भी नहीं. लेकिन सेक्युलर सिद्धांतों को बचाने के लिए बहुत ज़रूरी है कि हम सेक्युलर राजनीति के पाखंडों का पर्दाफ़ाश करें.

(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)

(इस लेख का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है. मूल लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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