नई दिल्ली: इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत ने अपनी साक्षरता दर में अच्छी-खासी प्रगति की है, जो आजादी के समय लगभग 14 प्रतिशत थी और 2011 की जनगणना के मुताबिक बढ़कर 74 प्रतिशत हो गई है. लेकिन, क्या स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में भी इसी तरह किसी सुधार का रुझान नजर आया है? एक नए अध्ययन के निष्कर्षों को मानें तो इसका जवाब स्पष्ट तौर पर कतई नहीं ही है.
डेवलपमेंटल इकोनॉमिस्ट एलेक्सिस ले नेस्टर, लौरा मोस्कोविज और जस्टिन सैंडफुर की तरफ से अमेरिका स्थित थिंक-टैंक सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट (सीजीडीईवी) के लिए किए एक अध्ययन के मुताबिक, 1990 के दशक में जन्मी महिलाओं की तुलना में 1990 के दशक में पैदा हुई भारतीय महिलाओं के मामले में पांच साल की स्कूली शिक्षा के नतीजे अपेक्षाकृत बेहतर रहे हैं, जो प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में एक तरह से गिरावट का ही संकेत है. यह वर्किंग पेपर इस साल की शुरुआत में अपलोड किया गया था.
स्टडी में कहा गया है, ‘अगर फेस वैल्यु के तौर पर देखें तो भारत के संदर्भ में अनुमानों से पता चलता है कि पांच साल की स्कूली शिक्षा वाली महिलाओं के साक्षर होने की संभावना 1960 के दशक में जन्म लेने वालों में लगभग 100 प्रतिशत थी, लेकिन 1990 के दशक के मध्य में यह गिरकर लगभग 40 प्रतिशत रह गई.’
यद्यपि इसमें पुरुषों और महिलाओं दोनों का डेटा शामिल था, लेकिन अध्ययन के सह-लेखक और सीजीडीईवी के सीनियर फेलो जस्टिन सैंडफुर ने ईमेल पर दिप्रिंट को बताया कि भारतीय महिलाओं के मामले में निष्कर्ष ‘अधिक विश्वसनीय’ थे क्योंकि इसका सैंपल साइज भी बड़ा था और देशभर की कवरेज के कारण यह राष्ट्रीय स्तर का प्रतिनिधित्व करने वाले भी हैं.
‘द लॉन्ग-रन डिक्लाइन ऑफ एजुकेशन क्वालिटी इन द डेवलपिंग वर्ल्ड’ शीर्षक वाले इस वर्किंग पेपर में 88 विकासशील देशों में कई दशकों में प्राथमिक शिक्षा के निष्कर्षों पर अध्ययन शामिल है.
शोधकर्ताओं के मुताबिक, अध्ययन के पीछे तर्क यह था कि ‘समय के साथ शिक्षा की गुणवत्ता के विश्वसनीय, दीर्घकालिक उपायों’ में कमी आई है. उन्होंने इस बात पर भी गौर किया कि भारत सहित तमाम विकासशील देशों में ‘लर्निंग क्राइसिस’ नजर आई, जहां स्कूल प्रणाली ‘विश्वसनीय तौर पर साक्षरता और संख्यात्मक कौशल प्रदान करने तक में विफल रही है.’
अध्ययन में कहा गया है, ‘शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के आर्थिक नतीजों को ठीक से समझा नहीं जाता है, लेकिन संभावित तौर पर इसका एक बड़ा असर पड़ता है.’
अध्ययन कैसे किया गया
सीजीडीईवी का यह अध्ययन जनसांख्यिकीय और स्वास्थ्य सर्वेक्षण (डीएचएस)—भारत का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) जिसका एक हिस्सा है—और यूनिसेफ की तरफ से स्थानीय स्तर पर चलाए जाने वाले डेटा प्रोग्राम मल्टीपल इंडीकेटर क्लस्टर सर्वेक्षण (एमआईसीएस) पर आधारित है
अध्ययन में बताया गया है कि दोनों सर्वेक्षण ‘महिलाओं की साक्षरता और स्कूली शिक्षा पर राष्ट्रीय स्तर पर जानकारी एकत्र करते हैं, और कुछ मामलों में 15 से 49 वर्ष की आयु के पुरुषों का भी डेटा जुटाते हैं.’ इन आंकड़ों का उपयोग करके अध्ययनकर्ताओं ने उन वयस्कों की ‘शिक्षा की गुणवत्ता’ का मूल्यांकन करने की कोशिश की, जिन्होंने बुनियादी वाक्यों को पढ़ने की क्षमता के आधार पर पांच साल की प्राथमिक शिक्षा हासिल की थी.
अध्ययन ने 20 वर्ष और उससे अधिक आयु के वयस्कों के साक्षरता स्कोर को स्कैन किया, जिन्होंने केवल पांच साल की स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी. लेखकों ने इस न्यूनतम आयु को यह कहते हुए उचित ठहराया कि स्कूल छोड़ने से पहले एक व्यक्ति को मिली शिक्षा की गुणवत्ता उसके बड़े होने पर प्रभाव डाल सकती है.
अध्ययन में कहा गया है, ‘हमारे हिसाब से उम्र साक्षरता के मामले में दीर्घकालिक असर डालती है, जो किसी व्यक्ति के स्कूल छोड़ने के बाद भी विकसित हो सकती है, अगर वे अपने पूरे करियर में ह्यूमन कैपिटल हासिल करें, या फिर समय के साथ साक्षरता कौशल घटता जाता है.’
इसे ध्यान में रखकर ही साक्षरता स्कोर व्यक्ति के जन्म के वर्ष के आधार पर तैयार किए गए.
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क्वांटिटी बनाम क्वालिटी—भारतीय महिलाओं की स्थिति
दिप्रिंट के आग्रह पर अध्ययन लेखकों की तरफ से उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, 1958 में पैदा हुई महिलाओं में से केवल एक-तिहाई (भारतीय संदर्भ में सबसे बड़ी उम्र) पांच साल की स्कूली शिक्षा पूरी करने में सक्षम थीं. इसके उलट, 1999 में जन्मी 90 फीसदी महिलाएं (सबसे कम उम्र वाली प्रतिभागी) पांच साल प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने में सक्षम थीं.
हालांकि, अगर लर्निंग के नतीजों की बात करें तो ये 90 के दशक में जन्मी महिलाओं की तुलना में 60 के दशक में जन्मी महिलाओं के मामले में ज्यादा बेहतर थे.
अध्ययन के मुताबिक, 1960 के दशक में जन्म लेने वाली 80 प्रतिशत से अधिक महिलाओं ने 20 या उससे अधिक उम्र की होने के दौरान एक पूरा वाक्य पढ़कर अपेक्षित साक्षरता परिणाम दिए.
दूसरी ओर, केवल पांच वर्ष की स्कूली शिक्षा के साथ 20 वर्ष और उससे अधिक आयु की 40 प्रतिशत महिलाएं बुनियादी साक्षरता परीक्षा पास कर सकीं.
ऐसे में, यदि प्राथमिक स्कूलों में शैक्षिक गुणवत्ता में गिरावट आई है, तो यह कैसे हो पाया कि भारत जैसे विकासशील देश अपनी साक्षरता दर में वृद्धि कर पाए? इस सवाल पर लेखकों की राय है कि ऐसे देशों में स्कूली शिक्षा के औसत वर्षों में वृद्धि करके शैक्षिक गुणवत्ता में कमी को पूरा किया गया.
अध्ययन में कहा गया है, ‘नीतिगत दृष्टिकोण से, यह तथ्य कि उच्च (बिना शर्त) साक्षरता दर वाले अधिकांश विकासशील देशों ने प्राथमिक रूप से स्कूल की गुणवत्ता के बजाये स्कूली शिक्षा के औसत वर्षों में वृद्धि करके उन्हें हासिल किया है, पिछड़े देशों के लिए यह सबक हो सकता है. स्कूली शिक्षा तक पहुंच बढ़ने से और कुछ खास तो नहीं लेकिन समग्र साक्षरता में उल्लेखनीय वृद्धि जरूर हुई है.’
लेखकों की तरफ से मुहैया कराया गया डेटा इसी के अनुरूप था. 1960 के दशक में जन्म लेने वाली केवल 25-30 प्रतिशत भारतीय महिलाओं ने माध्यमिक या उससे ऊपर के स्कूलों में पढ़ाई की. लेकिन 1990 के दशक में जन्मी लगभग 80 प्रतिशत महिलाओं ने माध्यमिक या उच्च स्तर की स्कूली शिक्षा हासिल की.
सैंडफुर ने कहा कि भारतीय महिलाओं के मामले में ‘जांच करने वाला स्पष्ट फैक्टर यह है कि स्कूली शिक्षा पर आधारित साक्षरता स्टूडेंट संख्या में वृद्धि के कारण घट गई है.
सैंडफुर ने यह भी संकेत दिया कि शिक्षा तक पहुंच ने साक्षरता को भले ही बढ़ावा दिया हो, लेकिन कुछ बच्चे स्कूल के पहले पांच वर्षों में उतना सीखने में सक्षम नहीं हो सकते.
उन्होंने कहा, ‘एक स्पष्ट फैक्टर ये है कि गरीब परिवार अपने बच्चों की शिक्षा में निवेश के लिए कम पूरक संसाधनों के बावजूद अब अपने बच्चों को स्कूल भेजने में सक्षम हैं—जो समग्र साक्षरता को तो बढ़ाता है, लेकिन पांच साल की स्कूली शिक्षा के आधार पर साक्षरता की क्वालिटी घटा सकता है. बेशक, इससे इतर भी कुछ अन्य फैक्टर इसमें अहम हो सकते हैं—हमारी तरह आप भी यह अनुमान लगा सकते हैं कि समय के साथ समग्र तौर पर पढ़ाई की गुणवत्ता क्या है.’
भारत में स्कूलों में ‘लर्निंग क्राइसिस’ अच्छी तरह से उल्लेखित है. उदाहरण के तौर पर, 2005 से ग्रामीण शिक्षा के वार्षिक सर्वेक्षण (असर) ने बार-बार दिखाया कि भारत में कक्षा 5 के बमुश्किल आधे छात्र कक्षा 2 का पाठ पढ़ सकते हैं. सीजीडीईवी अध्ययन लेखकों ने इस तथ्य का भी हवाला दिया कि भारत में छात्र ‘इंटरनेशनल लर्निंग असेसमेंट के मामले में उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में समान ग्रेड के छात्रों की तुलना में औसतन पर्सेंटाइल का लगभग 5वां हिस्सा स्कोर करते हैं.’
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