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Friday, 22 November, 2024
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राजीव गांधी ने प्रभाकरन से कहा था, ‘ख्याल रखें’, श्रीलंका समझौते से पहले दी थी बुलेटप्रूफ जैकेट

प्रभाकरन ने यह सोचकर समझौता किया था कि इससे उन्हें ईलम मिल जाएगा. जयवर्धने ने सोचा था कि इससे देश में हिंसा रुक जाएगी और राजीव गांधी की नीयत तमिलों के लिए अच्छी थी.

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पुरे कोलंबो में कर्फ्यू लगा हुआ था. दंगे भड़क चुके थे. शहर की कई इमारतों से धुंआ निकलने लगा था. यह 29 जुलाई 1987 का दिन था और यह साफ नजर आ रहा था कि भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी का वहां कोई स्वागत नहीं किया  गया था.

यह दौरा काफी तनावपूर्ण था: राजीव भारत-श्रीलंका शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए अपनी दो दिवसीय यात्रा में कोलंबो पहुंचे थे.

भारतीय प्रधानमंत्री ने काफी ‘गंभीरता’ और ‘विचारशील संयम’ दिखाया था2 लेकिन श्रीलंका के राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने अनिच्छुक और तनावग्रस्त लग रहे थे. उनके प्रधानमंत्री आर प्रेमदासा तो इस समझौते पर हस्ताक्षर के कार्यक्रम का बहिष्कार ही कर रहे थे. यह सब उस समय हुआ जब लिट्टे के दुर्दांत नेता प्रभाकरन नई दिल्ली के अशोका होटल के कमरा नंबर 518 में बंद पड़ा था और जहां से उसने कथित तौर पर बड़ी बेचैनी के साथ फोन करते हुए हजारों रुपए का बिल खड़ा कर दिया था.

इस सब के बीच केवल एक व्यक्ति खुश लग रहा था. राजीव और जयवर्धने जब लंच से थोड़े समय पहले आपस में बातें कर रहे थे, तभी श्रीलंका में अमेरिकी राजदूत ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की ओर से भारत को बधाई देने वाले साइन किए गए एक फैक्स संदेश के साथ उनसे संपर्क किया. राजीव भौचक रह गए. इस समझौते का मसौदा एक टीम ने इतने गुप्त रूप से तैयार किया था कि पीएम के सबसे करीबी सहयोगी मणिशंकर अय्यर भी उनकी सूची जगह नहीं बना पाए थे. जाहिर तौर पर, जयवर्धने अमेरिकियों को जानकारी देते आ रहे थे.

यह एकदम से ठंडी राजकीय यात्रा के दौरान राजीव को मिले कई आश्चर्यों में से पहला था. उनके लिए दूसरी हैरानी एक घंटे बाद सामने आई, जब जयवर्धने ने समझौते पर औपचारिक रूप से हस्ताक्षर किए जाने से पहले भारतीय प्रधानमंत्री से श्रीलंका में भारतीय सेना को तैनात करने की गुहार लगाई.

इसके बाद, जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल कोलंबो से निकलने ही वाला था तभी उन्होंने ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ के समापन के समय अपने ‘अंतिम आश्चर्य’ का सामना किया. एक श्रीलंकाई नौसैनिक ने राजीव गांधी के ऊपर अपनी बंदूक के कुंदे से प्रहार कर दिया था. उसने एक जोर की आवाज के साथ उनके कंधे पर जोरदार हमला किया था और उनकी गर्दन बस किसी तरह टूटने से बच गई थी. उनकी काली-नीली चोट को ठीक होने में महीनों लग गए.

चित्रण: मनीषा यादव | दिप्रिंट

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नाटकीय व्यक्तित्व

यह लगभग कुछ ऐसा था जैसे राजीव गांधी के समय में पीछे जाना चाहते थे और उन चीजों को पलट देना कहते थे जिन्हें वह अपनी मां का ‘दुस्साहस’ मानते थे. उनके प्रधानमंत्रित्व काल के पहले कुछ साल समझौतों के मौसम की तरह थे : उन्होंने अकाली दल के नेता हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ लोंगोवाल समझौते पर हस्ताक्षर करने के अलावा 1985 में असम समझौता और 1986 में मिजो समझौता भी किया था.

इसके बाद, वह श्रीलंका के साथ भारत की विरासत का मामला सुलझाना चाहते थे.

साल 1986 के मध्य काल से ही, राजीव गांधी के पास श्रीलंका वाले मसले को हल करने के लिए एक ‘कोर ग्रुप’ था. यह सलाहकारों का एक ऐसा समूह था जिसकी श्रीलंकाई तमिल समूहों और सिंहली श्रीलंकाई सरकार के बीच समझौता करने की ‘वास्तविक इच्छा’ थी. इसी इच्छा की अंतिम परिणति भारत-श्रीलंका शांति समझौते में हुई.

इस समझौते की पृष्ठभूमि में तमिल ईलम की राजनीति थी और तात्कालिक रूप से इस समझौते का उद्देश्य क्रमशः भारतीय और श्रीलंकाई सरकारों के लिए दो दुखती रगों का हल निकलना था, श्रीलंका सरकार जनवरी और जून 1987 के बीच तमिल आतंकवादियों के खिलाफ सैन्य अभियान चला रही थी – ऑपरेशन लिबरेशन मई 1987 में अपने चरम पर था – और इस बीच, जून 1987 में, भारत सरकार ने ऑपरेशन पूमलाई के तहत श्रीलंकाई तमिलों के लिए राहत सामग्री की एयर-ड्रॉपिंग (हवाई जहाज से सामान गिराया जाना) की थी.

भारत और श्रीलंका दोनों द्वारा अनुमोदित संशोधनों और अनुबंधों के साथ समझौते का अंतिम मसौदा 22 जुलाई 1987 तक तैयार हो गया था.

कोर ग्रुप के किसी भी सदस्य – मंत्री नटवर सिंह से लेकर संयुक्त सचिव रोनेन सेन तक – को राजीव गांधी के नेक इरादों पर कोई संदेह नहीं था और न ही राष्ट्रपति जयवर्धने ने कभी कोई संदेह किया था.

मगर जिन लोगों ने वाकई भारतीय प्रधानमंत्री पर संदेह किया वे थे श्रीलंका के तत्कालीन प्रधान मंत्री रणसिंघे प्रेमदासा और लिट्टे सुप्रीमो वेलुपिल्लई प्रभाकरन.

प्रेमदासा और श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री ललित अतुलथमुदाली, भारत के राजनयिक हस्तक्षेप के लिए तो तैयार थे लेकिन वे किसी भी तरह की भारतीय सैन्य उपस्थिति के पूरी तरह से खिलाफ थे. वे दोनों ही तमिल विरोधी भी थे. जनवरी 1987 तक, अथुलथमुदली ने तमिल उग्रवादी समूहों के खिलाफ एक सैन्य अभियान शुरू कर दिया था जिसकी वजह से लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) अपने घुटनों पर आ गया था. यह आक्रामक कार्रवाई जून 1987 में भारतीय हस्तक्षेप तक जारी रही थी. उसी साल, प्रेमदासा ने हरारे में हुए राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन के दौरान प्रेस के सामने भारत को बदनाम नहीं करने के अपने वादे से मुकरते हुए राजीव गांधी की एक झटका भी दिया था.

साल 1986 के अंत तक प्रभाकरन का भी भारत से मोहभंग हो चुका था. हालांकि वह खुद के भारत से प्यार करने – और पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की ‘पूजा’ करने – वाला होने का दावा करते थे. मगर वह भारतीय खुफिया तंत्र से नाराज थे जिन्हें उन्होंने लिट्टे को हुए कुछ नुकसानों के लिए जिम्मेदार भी ठहराया था.

उन्होंने जुलाई 1987 की शुरुआत में तत्कालीन फर्स्ट सेक्रेटरी और अब भाजपा सरकार में मंत्री हरदीप सिंह पुरी से कथित तौर पर कहा था, ‘यह एक मां और एक बच्चे के बीच का झगड़ा है. भारत के बिना लिट्टे का अस्तित्व संभव नहीं है और आपकी प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने हमारी मदद की थी. उन्होंने ही हमें वह बनाया जो आज हम हैं.’

समझौते की सफलता प्रभाकरन के सहयोग पर निर्भर थी और राजीव गांधी चाहते थे कि वह भी इसमें शामिल हों. मगर पी.वी. नरसिम्हा राव सहित उनके सलाहकारों की सोच थी कि इस समझौते पर श्रीलंका सरकार और लिट्टे के बीच हस्ताक्षर किए जाने चाहिए और भारत द्वारा इसकी गारंटी दी जानी चाहिए लेकिन प्रभाकरन को श्रीलंका सरकार पर शक था और वह नहीं चाहता था कि तमिल टाइगर्स इस समझौते पर हस्ताक्षर करें.

प्रभाकरन ने पुरी से कहा कि वह समझौते पर चर्चा करने के लिए भारत आने को तैयार है लेकिन उसने कई बार अपने विचार बदल दिए. अंततः उसने हार मान ली और उसे 24 जुलाई को पुरी के साथ भारत सरकार द्वारा नई दिल्ली ले जाया गया. कथित तौर पर वह इस समझौते की वजह से इतना घबरा गया था कि उसे उड़ान में ही उल्टियां हो रहीं थीं.

समझौते पर प्रभाकरन की प्रारंभिक आपत्तियों – मुख्य रूप से, एक जनमत संग्रह और श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी प्रांतों के अस्थायी विलय – के बारे में नई दिल्ली में उसे अन्य लोगों के अलावा तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमजीआर और प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा भी भरोसा दिलाया गया.

इन बैठकों में से कई में मौजूद रहे रोनेन सेन ने दिप्रिंट को बताया कि इस समझौते के अंतिम मसौदे के प्रति प्रतिक्रिया के मामले में प्रभाकरन काफी ‘भावनात्मक’ था और उसने इस पर हस्ताक्षर किए जाने से सिर्फ एक दिन पहले – 28 जुलाई 1987 – को अपनी पूर्ण स्वीकृति दी थी.

अन्य लोगों का कहना है कि प्रभाकरन ने समझौते को स्वीकार करने के लिए अपने ऊपर दबाव महसूस किया था. उसने कथित तौर पर एक भारतीय तमिल सांसद वी गोपालस्वामी से कहा था, ‘मुझे तो आत्महत्या करने का मन कर रहा है! हमें भारत सरकार, राजीव गांधी द्वारा धोखा दिया गया है. मेरी पीठ में छुरा घोंपा गया है.’

लिट्टे की सहमति और प्रभाकरन के लिए किसी भी तरह की मुसीबत न होने के साथ – भारतीय प्रतिनिधिमंडल 29 जुलाई 1987 को कोलंबो के लिए रवाना हुआ.

प्रभाकरन ने यह सोचकर समझौता किया था कि इससे उसे ‘ईलम’ मिल जाएगा. जयवर्धने ने इस उम्मीद में इस पर हस्ताक्षर किया कि यह श्रीलंका के उत्तर और पूर्व में हिंसा को समाप्त कर देगा और राजीव गांधी ने तमिलों के लिए नेक इरादों के साथ इस पर दस्तखत किए थे.

अंत में उन सभी को निराशा ही हाथ लगी.


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समझौते से पहले के ‘ऑपरेशन’

जून 1987 के पहले भारत काफी हद तक घरेलू श्रीलंकाई राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी से बाहर ही रहा था – इस सब में इसकी भूमिका का बड़ा हिस्सा भारतीय सीमाओं के भीतर था और इसमें लिट्टे का वित्त पोषण और प्रशिक्षण शामिल था.

फिर 3 जून 1987 की रात को हालात एकदम से बदल गए.

तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री के. नटवर सिंह को रात 11 बजे प्रधानमंत्री आवास पर बैठक के लिए बुलाया गया. वह आधी रात को वहां पहुंचे और तब तक राजीव गांधी का ‘श्रीलंका कोर ग्रुप’ पहले से ही इकट्ठा हो चुका था.

उन्होंने अपनी बगल में बैठे राजीव से पूछा, ‘क्या हो रहा है प्रधानमंत्री जी?’. जवाब मिला, ‘हम जाफना में खाद्य सामग्री गिराने जा रहे हैं.’

भारत भुखमरी का आरोप लगाते हुए दखलंदाजी करने और तमिल आबादी को भोजन सामग्री भेजने की तैयारी कर रहा था. उसी दिन कुछ समय पहले, भारत सरकार ने मछली पकड़ने वाली कुछ नौकाओं को 38 टन भोजन सामग्री के साथ भेजा था. अब, सरकार इसी काम के लिए भारतीय वायु सेना को बुलाने की तैयारी कर रही थी.

इस जवाब से हैरान सिंह ने पूछा, ‘क्या आपने श्रीलंका को इस बारे में बताया है?’ जवाब था ‘नहीं’ और फिर प्रधानमंत्री के सलाहकारों ने इस बारे में चर्चा करना शुरू कर दिया कि क्या उन्हें श्रीलंका सरकार को सूचित करना चाहिए?

ऑपरेशन पूमलाई (फूलों की माला), जैसा कि बाद में इस एयरड्रॉप को जाना गया, होने जा रहा था – चाहे यह राजनयिकों को रास आए या नहीं. राजीव गांधी ने बताया कि भारतीय वायु सेना अगली दोपहर, 4 जून को, दोपहर 2 बजे उड़ान भरेगी. सिंह ने अपनी घड़ी देखी. उस वक्त तक सुबह के 2 बजे चुके थे.

इन्हीं घटनाओं का एक और संस्करण – जो जे.एन. दीक्षित की किताब ‘असाइनमेंट कोलंबो’ में उद्धृत है – कहता है कि सिंह को 3 जून को रात 9 बजे तक पता चल चुका था कि यह एयरड्रॉप होगा और यह भी की वह कोलंबो स्थित भारतीय उच्चायुक्त दीक्षित को इस एयरड्रॉप के सही-सही समय के बारे में सूचित करने के लिए फोन करेंगे.

निश्चित रूप से, सिंह ने 4 जून को सुबह 4 बजे दीक्षित को फोन किया और यह अनुमान लगाया कि आसन्न एयरड्रॉप दोपहर 3 बजे से शाम 5 बजे के बीच किसी समय होगा. अगली सुबह दीक्षित खुद श्रीलंका के विदेश मंत्री को इसकी सूचना देने गए.

इस बीच, नई दिल्ली में, सिंह ने श्रीलंका के उच्चायुक्त बर्नार्ड तिलकरत्ने को राजीव गांधी की योजना से अवगत कराने के लिए 4 जून की सुबह तलब किया. तिलकरत्ने के पास राष्ट्रपति जयवर्धने को ठीक से सूचित करने का समय तक नहीं था. अलबत्ता सिंह ने उन्हें अपने कार्यालय से श्रीलंकाई राष्ट्रपति को फोन करने दिया. सिंह के अनुसार जयवर्धने ने कहा, ‘उन्हें यह करने दो’. श्रीलंकाई पक्ष को केवल 35 मिनट का नोटिस मिला था.

ऑपरेशन पूमलाई राजीव गांधी के श्रीलंका कोर ग्रुप द्वारा लिए गए भ्रमित, अक्सर परस्पर विरोधी, फैसलों का भी संकेतक था.

कहानी इतनी पेचीदा है कि हर किसी को पूरी पहेली के अलग-अलग टुकड़े याद रहते हैं. पैंतीस साल बाद, इसे एक साथ जोड़ने पर पूरी तरह से स्पष्ट तस्वीर सामने नहीं आती है. सेवानिवृत्त नौकरशाहों, राजनेताओं और सैन्यकर्मियों के संस्मरण में बहुत सी खामियां हैं.

केवल एक चीज जिस पर वे सब सहमत लगते हैं वह यह है कि राजीव गांधी को विरासत के एक वादे द्वारा निराश किया गया था – एक ऐसी विरासत जिसकी कीमत उन्होंने बाद में अपनी जान के साथ चुकाई.

भारतीय पक्ष में फैला भ्रम

हालांकि 1987 का साल भारत-श्रीलंका संबंधों के लिए काफी अहम था. मगर राजनयिकों और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के माध्यम से इस बढ़ते हुए जातीय संघर्ष को हल करने के लिए पिछले दरवाजे से बातचीत (बैक चैनल नेगोसीएशन) का रास्ता प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय से खुला था.

नटवर सिंह कहते हैं, ‘कई सारी एजेंसियां श्रीलंका के साथ काम कर रही थीं.’ और वे सब अपने-अपने साइलो (सीमित घेरे) में काम कर रहीं थीं.

हालांकि, इन विभिन्न भारतीय एजेंसियों के कई सदस्य एक बात पर सहमत होते दिखाई दिए कि हस्तक्षेप गलत तरीके से किया गया था.

रोहन गुणरत्न ने 1993 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘इंडियन इंटरवेंशन इन श्रीलंका’ में लिखा है, ‘आईबी, रॉ और तमिलनाडु पुलिस की क्यू शाखा के अधिकारी, जिन्होंने आतंकवादी समूहों – विशेष रूप से लिट्टे – के साथ मिलकर काम किया था, ने समझौते का विरोध किया क्योंकि यह भारतीय विदेश मंत्रालय और पीएमओ द्वारा तैयार किया गया था. आखिर क्षण तक, भारतीय खुफिया एजेंसियों, जो नई दिल्ली में बैठे इन समूहों के व्यवहार, चरित्र और विशेषताओं को अच्छी तरह से जानते थे, से परामर्श नहीं लिया गया था; खुफिया खेमे के लोगों को पता था कि समझौता ‘फ्लॉप’ साबित होगा.’ गुणरत्न सिंगापुर के नानयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं और पहले जयवर्धने के शोध सहायक रहे थे.

राष्ट्रपति जयवर्धने के पास भी इस समझौते के लिए बहुत कम समर्थन था. उनके खुद के बेटे ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से बस कुछ दिन पहले समझौते के कुछ खंडो को (बातचीत के लिए) फिर से खोलने की आखिरी कोशिश की थी.

श्रीलंकाई राष्ट्रपति ने 27 जुलाई को एक बार फिर पूछा कि क्या (समझौते पर) हस्ताक्षर स्थगित किया जा सकता है लेकिन समझौते से पीछे हटने का जोखिम अधिक था. इसका अर्थ होता श्रीलंकाई तमिलों और लिट्टे के लिए भी, भारतीय समर्थन और यह श्रीलंका की क्षेत्रीय अखंडता के लिए एक गंभीर खतरा होता.‘

इस बात की कभी उम्मीद ही नहीं थी कि भारत बड़े पैमाने पर कोई सैन्य हस्तक्षेप करेगा. भारतीय शांति रक्षा बल (इंडियन पीस कीपिंग फोर्स – आईपीकेएफ) भले ही इस अब समझौते का प्रतीक बन गया हो लेकिन यह कभी भी इसका मूल तत्व नहीं था.

जे.एन. दीक्षित लिखते हैं, ‘श्रीलंका में भारतीय सुरक्षा बलों का भेजा जाना श्रीलंका की राजनीतिक परिस्थितियों की मजबूरी के नतीजे में हुआ और तथ्य स्पष्ट रूप से रिकॉर्ड में लाया जाना चाहिए कि भारतीय सशस्त्र बल किसी आक्रामक उद्देश्य या अधिग्रहण की किसी प्रेरणा के साथ एक छोटे पड़ोसी देश में नहीं गए थे. वह पहल, जो उन्हें एक कठिन, जटिल और बिना किसी धन्यवाद वाले कार्य की तरफ ले गई, पूरी तरह से राष्ट्रपति जयवर्धने के नेतृत्व वाली श्रीलंका सरकार की ओर से हुई थी.’

‘टाइगर्स ऑफ लंका’ और प्रभाकरन की जीवनी, इनसाइड एन एल्युसिव माइंड जैसी किताबें लिखने वाले पत्रकार एमआर नारायण स्वामी ने कहा, ‘बहुत सी चीजें गलत हो गईं थी. हर कोई कुएं में बंद मेंढक की तरह था. अन्य एजेंसियों को दोष देना आसान है लेकिन स्थिति इतनी जटिल थी कि जो कोई भी स्पष्ट रूप से चीजों के गलत होने का कारण बताता है, वह या तो दैवीय व्यक्तित्व है या फिर झूठा है.’


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समझौते पर हस्ताक्षर

जिस दिन समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे उस दिन श्रीलंका के राष्ट्रपति के घर के लॉन में आयोजित हाई टी एक ढीला-ढाला मामला था.

रिसेप्शन में कई सारी खाली सीटें थीं और इनमें श्रीलंका की पूर्व प्रधानमंत्री सिरिमावो भंडारनायके की सीट भी शामिल थे, जिन्होंने (दीक्षित की किताब असाइनमेंट कोलंबो के अनुसार) राजीव गांधी को अपनी अनुपस्थिति की वजह बताते हुए एक रुखा सा पत्र लिखा था.

राजीव गांधी ने कथित तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि भंडारनायके ने पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से सत्तर के दशक में श्रीलंका की वामपंथी पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना द्वारा की जा रही हिंसा का मुकाबला करने के लिए सैन्य हस्तक्षेप के लिए कहने में संकोच नहीं किया था. जिस समय तक समझौते पर हस्ताक्षर होने वाले थे यानी कि दोपहर 3:30 बजे, तब तक कोलंबो में जारी विरोध प्रदर्शन दंगों में बदल चुके थे. दोपहर के भोजन के ठीक बाद जयवर्धने ने जे.एन. दीक्षित के जरिए से राजीव गांधी को कहलवाया कि वह भारतीय सैन्य मदद चाहते हैं.

गांधी ने इसका तुरंत जवाब दिया: उन्हें कहा कि इसके लिए जयवर्धने के लिखित अनुरोध की आवश्यकता होगी और वे समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद ही इस मांग को पूरा कर सकते हैं. वे दोनों दोपहर 3 बजे मिले और गांधी ने जयवर्धने से कहा कि उनके विशेष अनुरोध पर आईपीकेएफ को भेजा जा रहा है.

इसके नब्बे मिनट बाद उन्होंने भारतीय सेना की इकाइयों को श्रीलंका भेजने के निर्देश दिए. रात के खाने के समय तक, भारतीय सैनिक हवा में थे और जाफना की तरफ बढ़ रहे थे.

चित्रण: मनीषा यादव | दिप्रिंट

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तमिल टाइगर्स की प्रतिक्रिया

उधर जाफना में इस शांति समझौते पर हस्ताक्षर का तमिलों के बीच व्यापक उत्सव के साथ स्वागत हुआ. आईपीकेएफ का स्वागत मालाओं, पागलपन की हद तक जाने वाले आलिंगनों और चुंबनों के साथ किया गया. श्रीलंकाई तमिलों ने जमकर भारतीय सैनिकों की जय-जयकार की.

कोलंबो में इसका ठीक उल्ट हो रहा था. हिंसक विरोध प्रदर्शनों में अड़तीस लोग मारे गए, 14 करोड़ डॉलर से अधिक की आर्थिक नुकसान हुआ था और विपक्षी श्रीलंका फ्रीडम पार्टी ने इस समझौते को एक ‘विश्वासघात’ करार दिया था.

हालांकि, तमिलों का यह उत्साह बहुत थोड़े समय के लिए था. जब प्रभाकरन 2 अगस्त को इस द्वीपय राष्ट्र में लौटा, तो उसने आईपीकेएफ मिशन के ओवरआल कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल दीपिंदर सिंह से कहा था कि वह व्यक्तिगत रूप से अपनी सबसे भारी मशीन गन उन्हें सौंप देगा. इसके दो दिन बाद उसने आईपीकेएफ अधिकारियों और श्रीलंकाई राजनयिकों सहित विशाल दर्शक सनूह के सामने जो भाषण दिया, वह उसके भारत समर्थक रुख के और सख्त होने जैसा लग रहा था.

हर कोई इससे रजामंद हो गया. तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष कृष्णस्वामी सुंदरजी ने कथित तौर पर कोर ग्रुप की एक बैठक के दौरान कहा था कि वह ‘तीन सप्ताह में श्रीलंका पर विजय प्राप्त कर लेंगें.’ लेकिन आईपीकेएफ ने कभी कोई जीत हासिल नहीं की: इसके बजाए, वह सालों तक चले एक ऐसे लंबे युद्ध में फंस गई जिसके लिए इसे कभी तैयार नहीं किया गया था.

लिट्टे के प्रति -सहानुभूति रखने वाले तमिल समूह एरोस द्वारा आईपीकेएफ को पहले ही बताया गया था कि एक ‘युद्ध होने ही वाला है’ – तमिल टाइगर्स को समुद्र के जरिए हथियार मिल रहे थे और वे उनकी पीठ के पीछे भोजन और पॉलिथीन की प्राप्त आपूर्ति कर रहे थे.

दूसरी ओर, प्रतिद्वंद्वी तमिल समूहों – टेलो, इपीआरएलएफ, पीएलओटी, इएनडीएलएफ आदि – ने इस समझौते पर हस्ताक्षर को खुद के मजबूत होने के अवसर के रूप में देखा क्योंकि लिट्टे अपने हथियार डालने के लिए सहमत हो गया था.

पत्रकार नारायण स्वामी की किताब ‘टाइगर्स ऑफ लंका’ के अनुसार, अक्टूबर 1987 तक एक निर्णायक मुठभेड़ के लिए मंच निर्धारित कर दिया गया था. लिट्टे अपने तमिल प्रतिद्वंद्वियों और आईपीकेएफ से लड़ रहा था; जयवर्धने ने लिट्टे को दी गई आम माफी रद्द कर दी थी; तमिल टाइगर्स हथियारों के आत्मसमर्पण की बात से मुकर गए थे; भारतीय मीडिया की मांग थी कि टाइगर्स को ‘किसी भी कीमत पर’ काबू में लाया जाए; और युद्ध तेज हो गया.


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और फिर टाइगर्स ने पलटी मार दी

अगले कुछ महीनों में, प्रभाकरन अपनी बात से मुकर गया और भारतीयों के खिलाफ हो गया. तमिल टाइगर अब अपने ‘ईलम’ के लिए आईपीकेएफ से लड़ रहे थे. लिट्टे ने इस क्षेत्र से प्रसारित हो रहे समाचारों पर भी हावी होना शुरू कर दिया जिससे इस क्षेत्र में आईपीकेएफ की भूमिका की समझ में विषमता आ गई. भारत में तमिल लोग घटनाओं के लिट्टे द्वारा पेश किए गए संस्करण से प्रभावित हो रहे थे. इसके बाद, जी. पार्थसारथी, जिन्होंने राजीव गांधी के सूचना सलाहकार और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के रूप में काम किया थे, ने मीडिया की इस टीका-टिपण्णी में बदलाव लाने का दायित्व अपने ऊपर ले लिया.

वे पत्रकारों को पुरे सुरक्षा घेरे के साथ दो विमानों में भरकर तमिलनाडु से जाफना ले गए ताकि वे जमीनी हालत से अवगत हो सकें. वे रोजाना प्रेस ब्रीफिंग करते थे और यहां तक कि उन्होंने एक टेलीविजन टावर भी भिजवाया ताकि जाफना में बैठे पत्रकार दूरदर्शन तक अपनी पहुंच बना सकें.

इस बीच, प्रभाकरन लगातार अपने विश्वासपात्रों से कह रहा था कि उसे समझौते में कोई विश्वास नहीं है और वह आईपीकेएफ को और गहरे दलदल में धकेल देगा. उसने एक भारतीय पत्रकार से कहा कि वह श्रीलंकाई तमिल नागरिकों पर हमला करने के लिए आईपीकेएफ को उकसाने के लिए ‘राजनीति का दांव खेलेगा’.

‘टाइगर्स ऑफ लंका’ के अनुसार, प्रभाकरन ने एक भारतीय रिपोर्टर से कहा, ‘मैं समझौते को डुबो दूंगा और मैं इसे इस तरह से करूंगा कि उन्हें पता भी नहीं चलेगा. मैं अभी शिकंजा कस रहा हूं.’

जब यह खबर पहुंची कोलंबो में जे.एन. दीक्षित तक पहुंची तो पाइप से धूम्रपान करने वाले इस राजनयिक ने कहा, ‘उसे बता दो, भारत तैयार है.’

तमिलनाडु में बढ़ता आंतरिक क्लेश

जुलाई 1983 में सिंहलियों द्वारा तमिलों के नरसंहार से काफी पहले से ही या यूं कहें कि सत्तर के दशक से ही, तमिलनाडु में श्रीलंकाई तमिलों के लिए सहानुभूति पनप रही थी और इंदिरा गांधी के लिए तमिलनाडु रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था.

श्रीलंका के जातीय संघर्ष पर इंदिरा गांधी का रुख निश्चित रूप से तमिल समर्थक था. जयवर्धने के साथ उनके रिश्ते बेहद खराब थे और वह भी केवल इस वजह से नहीं कि जब तमिल-सिंहली संघर्ष तमिलनाडु के तटों तक फैल गया तो उन्होंने हस्तक्षेप किया. दूसरी ओर, उनका बेटा श्रीलंकाई सरकार के साथ अच्छे रिश्ते बनाने को उत्सुक था.

जहां केंद्र सरकार अपने रवैए को लेकर चर्चा कर रही थी. वहीं, तमिलनाडु के राजनेता हमेशा से स्पष्ट थे कि वे कहां खड़े हैं.

साल 1987 में, जब भारत के हस्तक्षेप से पहले लिट्टे और श्रीलंकाई सेना के बीच हिंसा अपने चरम पर थी तो एमजीआर (एम जी रामचंद्रन) ने मुख्यमंत्री के रूप में प्रभाकरन को फंड देने के लिए 4 करोड़ रुपए भी भेजे थे. यह मुद्दा उस बड़े राजनीतिक खेल का एक मोहरा था, जिसे तमिलनाडु के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों एमजीआर और करुणानिधि द्वारा बड़ी कुशलता से खेला गया था.

लेकिन राजनयिक जी. पार्थसारथी के अनुसार, एमजीआर पूरी तरह से इस समझौते के समर्थन में थे. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के रूप में, एमजीआर पर लिट्टे की सहायता करने का जबरदस्त दबाव था. लेकिन, मणिशंकर अय्यर के अनुसार, राजीव गांधी के साथ उनके संबंध इतने करीबी थे कि वे व्यापक राष्ट्रीय हित के साथ जाने को तैयार हो गए थे.

लिट्टे पर चर्चा करने और आईपीकेएफ के लिए तमिलनाडु के समर्थन को सुनिश्चित करने समेत पार्थसारथी ने बाल्टीमोर (अमेरिका) – जहां एमजीआर अपना इलाज करवा रहे थे – में दो बार एमजीआर से मुलाकात की थी. एमजीआर ने जवाब में कहा था, ‘कृपया प्रधानमंत्री जी को बताएं कि मैं इसे समझता हूं और जो भी जरूरी होगा मैं करूंगा.’

दिसंबर 1987 में एमजीआर की मौत के बाद उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी करुणानिधि ने मुख्यमंत्री का पदभार संभाला. उन्होंने लिट्टे को जाफना में ईंधन और दवाओं की तस्करी करने की अनुमति दी और यहां तक कि लिट्टे द्वारा की चेन्नई में गई एक हत्या को भी नजरअंदाज कर दिया. अंततः उनकी इसी निष्क्रियता के कारण 1991 में केंद्र की चंद्रशेखर सरकार द्वारा तमिलनाडु में उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था.

पार्थसारथी ने कहा, ‘करुणानिधि के लिट्टे के महान हिमायती (चैंपियन) बनने का स्वांग राजनीतिक अवसरवाद का सबसे खराब स्वरूप था.’

लिट्टे का समर्थन करने वाले तमिल लोग भी लिट्टे के प्रचार से प्रभावित होकर उग्र होते जा रहे थे. समझौते को ‘एक अपराधी और एक विश्वासघाती के बीच’ का करार बताते हुए, वाइको जैसे तमिल राजनेताओं ने राजीव गांधी की कूटनीति की आलोचना की और समझौते को एक खाली खोल – ‘ईलम की जीवित भावना को मारने का एक प्रयास – बताया.’

वाइको ने विलाप करते हुए कहा, ‘लेकिन लिट्टे ने कौन से पाप किए हैं? उनका शिकार किया जा रहा है. उन्होंने भारत सरकार के खिलाफ कौन से पाप किए हैं? क्या प्रभाकरन ने श्रीमती इंदिरा गांधी के हत्यारों से हाथ मिलाया था?’

वाइको का श्रीलंका में तमिल नागरिकों के खिलाफ आईपीकेएफ की कथित हिंसा के प्रति भी अडिग रुख था. उन्होंने 1988 में कहा था, ‘किसी न किसी दिन, आईपीकेएफ द्वारा किए गए इन नृशंस अपराधों को दुनिया के सामने उसी तरह से उजागर किया जाएगा जैसे न्यूर्नबर्ग में नाजी सेना के सैनिकों के अपराधों का निपटारा किया गया था!’


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‘भारत का वियतनाम’ बनने से बमुश्किल बचा जाना

भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) के कुछ ही स्थानीय सहयोगी थे. लेफ्टिनेंट जनरल ए.एस. कालकट (सेवानिवृत्त), जो इस समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के हफ्तों बाद से ही सैन्य अभियानों की देखरेख के प्रभारी थे, के अनुसार शुरू-शुरू में अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए आईपीकेएफ के आगमन का उपयोग करने की कोशिश करने के बाद सिंहला समर्थक और तमिल समर्थक समूह उसके खिलाफ हो गए.

कर्नल (सेवानिवृत्त) विवेक चड्ढा जिन्होंने 8 मराठा लाइट इन्फैंट्री के हिस्से के रूप में 1989 से 1990 तक श्रीलंका में आईपीकेएफ में अपनी सेवा दी थी, के अनुसार, शांति स्थापना के प्रयास सुरक्षा बल की तैनाती के लिए रातोंरात लिए गए फैसले की प्रकृति और कमांड की एक अस्पष्ट श्रृंखला से पीड़ित थे.

चड्ढा ने अपने स्वयं के अनुभव और उनसे पहले वहां तैनात एक मराठा लाइट इन्फैंट्री बटालियन के लिखित विवरण का हवाला देते हुए कहा, ‘बहुत ही स्पष्ट रूप से यह तैनाती रातोंरात की गई थी. आम तौर पर, जब आप किसी विशेष क्षेत्र में सुरक्षा बलों को स्थानांतरित करते हैं तो बहुत सारी तैयारी वाली गतिविधि की आवश्यकता होती है. खासतौर सेृ मानचित्रों से लेकर सहायता पहुंचाने के लिए की गई व्यवस्था तक. आप एकदम अंधेरे में नहीं जा सकते हैं, या फिर क्षेत्र की नगण्य खुफिया जानकारी होना सहन नहीं कर सकते हैं. किसी भी सशस्त्र बल के लिए, कमांड की एक नियमित श्रृंखला होती है. इस बारे में स्पष्टता की कमी थी कि कालकट और उन जैसे अन्य वरिष्ठ अधिकारी उस श्रृंखला में कहां आते थे.’

आईपीकेएफ के श्रीलंकाई धरती पर कदम रखने के एक साल के भीतर ही स्थानीय तमिल आबादी, जिन्होंने कभी इस बल का स्वागत किया था, उसके प्रति संदेह और भय के साथ जी रहे थे. आईपीकेएफ सख्त कर्फ्यू लगाती थी और स्थानीय गुप्त सूचना के आधार पर, विशेष रूप से उत्तरी प्रांत में, लिट्टे के सदस्यों या मुखबिरों की नियमित तलाशी करती थी.

साल 1991 तक, भारत और श्रीलंका दोनों के पास नए शासन प्रमुख थे. जयवर्धने के बाद प्रेमदासा श्रीलंका के राष्ट्रपति बने, और आईपीकेएफ के प्रति उनका मौलिक विरोध जारी रहा. अब भारत के नए प्रधान मंत्री वी.पी. सिंह भी उनसे सहमत थे.

कालकट ने कहा, ‘राष्ट्रपति प्रेमदासा ने श्रीलंकाई सेना प्रमुख वानासिंघे से मुझे यह बताने के लिए कहा कि आईपीकेएफ को 48 घंटे या ऐसे ही किसी असंभव समय काल के भीतर श्रीलंकाई धरती को छोड़ देना चाहिए. नहीं तो वह श्रीलंकाई सेना को आईपीकेएफ पर हमला करने का आदेश दे देंगें.’ साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें मेहरोत्रा की तरफ से प्रेमदासा के एक ‘आधिकारिक’ पत्र में ऐसी ही चेतावनी देने की बात बताने के साथ एक फोन आया.

कालकट स्थिति की पूरी तस्वीर जानकारी न रखने वाले लोगों से आदेश लेने और जमीन पर दबदबा बनाने के बीच फंस गए थे.

उन्होंने कहा, ‘मैंने उनसे कहा कि मैं वियतनाम जैसी स्थिति या अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी – जब लोग हेलीकॉप्टरों से चिपके रहते थे – की तरह की वापसी के लिए तैयार नहीं हूं. इसलिए मैं अपनी शर्तों पर चरणों में वापसी करूंगा, जिसके लिए श्रीलंका सहमत हो गया था.’

कालकट ने मार्च 1990 में अपने 80,000 सैनिकों की वापसी का समन्वय किया. वह इस द्वीपीय देश को छोड़ने वाले आईपीकेएफ के अंतिम सदस्य थे.

‘शांति स्थापना के खतरे’

आखिरकार इस समझौते की विवादास्पद विरासत में श्रीलंका के संविधान में 13वां संशोधन किया जाना भी शामिल था.

रोनेन सेन कहते हैं, ‘भारत-श्रीलंका शांति समझौता दोनों देशों के बीच एकमात्र ऐसा द्विपक्षीय समझौता है जिसने वास्तव में श्रीलंका में संवैधानिक परिवर्तन किया है.’

13वें संशोधन ने सिंहल और तमिल को संयुक्त आधिकारिक भाषाओं के रूप में निर्धारित किया गया, जिनके बीच अंग्रेजी लिंक के रूप में थी. इसने सिंहली और तमिल दोनों समूहों द्वारा विरोध किए जाने के बावजूद, देश की शासन प्रणाली का विकेंद्रीकरण करते हुए प्रांतीय परिषदों की स्थापना को भी अनिवार्य बनाया.

विदेशी मामलों के संवाददाता पद्म राव सुंदरजी ने कहा, ‘इस शांति समझौते की जिन चीजों को जीवित रखा गया है उनमें से एक 13वां संशोधन है, जिसका उपयोग अक्सर भारतीय और श्रीलंकाई सरकारों द्वारा एक राजनीतिक उपकरण के रूप में किया जाता है, खासकर तब जब उन्हें एक-दूसरे से कुछ चाहिए होता है.’

इस समझौते की विरासत श्रीलंका को तबाह करने वाली हिंसा को रोकने में इसकी विफलता की वजह से दागदार है – एक ऐसी हिंसा जिसने 1991 में राजीव गांधी की हत्या के लिए पाक समुद्र-संधि के बीच से अपना रास्ता बना लिया.

गिरना और उसके नतीजे

अय्यर ने कहा, ‘सैन्य बलों से लेकर खुफिया तंत्र और राजनयिक प्रतिष्ठान तक, सभी ने राजीव को नीचा दिखाया और इस तरह सद्भावपूर्वक किए गए एक समझौते को एक भारी भरकम विफलता में बदल दिया. सरकार में बदलाव के बाद राजीव आईपीकेएफ की वापसी के लिए आवश्यक शर्तों पर काम करने में लगे हुए थे. फिर भी उन्हें उन दूसरे लोगों की गलतियों की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी जिन्होंने आईपीकेएफ मिशन को एक दुखद तमाशा बना दिया था.’

सेन कहते हैं, ‘मैं अपने हाथ ऊपर कर के कह सकता हूं कि मैं और बेहतर संवाद कर सकता था.’

ऐसा लगता है कि एकमात्र व्यक्ति जिसने अपने इरादों को ठीक से बताया था, वह वही शख्स था जो इसका भुक्तभोगी बना यानी कि राजीव गांधी. आखिरकार उन्हें प्रभाकरन सहित उन सब लोगों ने निराश किया जिन पर उन्होंने भरोसा किया.

अय्यर के शब्दों में, जुलाई 1987 में गांधी और प्रभाकरन के बीच की मुलाकात एक ऐसा प्रसंग था जिसमें ‘प्रभाकरन का छल और राजीव की भरोसेमंद मासूमियत’ साफ दिखती है. पुरी से लेकर दीक्षित और एमजीआर तक सभी ने प्रभाकरन को शांति समझौते को स्वीकार करने के लिए मनाने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन आखिर में गांधी के साथ उसकी मुलाकात ने ही उसे इस समझौते पर हस्ताक्षर करने का विश्वास दिलाया.

प्रभाकरन की अनिच्छा भरी सहमति का इतना स्वागत किया गया कि राजीव गांधी ने तुरंत जश्न मनाने के लिए डिनर मंगवाने का आदेश दे दिया. उनके सलाहकार इस बात से चकित थे कि भारत के प्रधानमंत्री ने प्रभाकरन जैसे व्यक्ति को एक निजी मुलाकात का समय दिया था लेकिन राजीव गांधी उसके सहयोग और समझौते की सफलता को लेकर उत्साहित थे. राजीव जब वह वापस जा रहे थे तो उन्होंने अपने बेटे राहुल को कुछ लाने के लिए वापस भेजा. राहुल राजीव की बुलेटप्रूफ जैकेट के साथ लौटे.

फिर राजीव ने अपनी बुलेटप्रूफ जैकेट प्रभाकरन की पीठ पर रख दी और अपनी आमतौर पर मोहक मुस्कान के साथ कहा, ‘अपना ख्याल रखना.’

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