नई दिल्ली: 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सत्ता में आने के बाद से आठ सालों में संसद के दोनों सदनों से निलंबित सांसदों की संख्या पिछले आठ वर्षों की तुलना में लगभग तीन गुना बढ़ गई है. दिप्रिंट को लोकसभा और राज्य सभा सचिवालयों से मिले डेटा में यह जानकारी सामने आई है.
जहां 2006 में मानसून सत्र से फरवरी 2014 (लोकसभा चुनाव अप्रैल 2014 में हुए थे) के बीच दोनों सदनों से कम से कम 51 सांसद निलंबित किए गए थे, वहीं अगस्त 2015 में मानसून सत्र से लेकर अब तक कम से कम 139 सांसदों को कदाचार और गैर-मर्यादित व्यवहार के लिए निलंबित किया जा चुका है.
सोमवार को चार विपक्षी सांसदों को लोकसभा से निलंबित कर दिया गया था और इसके बाद 20 सांसदों को कार्यवाही में बाधा डालने के लिए मंगलवार और बुधवार को राज्य सभा से निलंबित किया गया.
संसदीय मामलों के विशेषज्ञ और विपक्षी दलों के सांसद इस बात से सहमत हैं कि पिछले कुछ सालों में निलंबन के मामले काफी ज्यादा बढ़े हैं, जबकि पहले इस तरह के उदाहरण बहुत कम मिलते थे.
लोकसभा के पूर्व महासचिव पी.डी.टी. आचारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हालिया स्थिति देखें तो सांसदों के निलंबित के मामले दोगुने से अधिक बढ़े हैं. यह दर्शाता है कि सत्ता पक्ष और विपक्षी बेंच के बीच वैमनस्य कितना ज्यादा बढ़ गया है, जहां दोनों एक-दूसरे को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के बजाये दुश्मन के तौर पर देखते हैं.’
आचारी ने कहा कि इससे संसद का सुचारू कामकाज तो बाधित होता ही है, जहां बिना किसी चर्चा के विधेयक पारित हो रहे हैं, बढ़ता वैमनस्य संसदीय लोकतंत्र के लिए भी अच्छा नहीं है.
उन्होंने आगे कहा, ‘यह एक गंभीर संकट का संकेत है…संसद इस तरह नहीं चल सकती. पहले दोनों पक्षों के सदस्यों के बीच स्वस्थ बातचीत होती थी. उनमें काफी सद्भाव था. यह एक परिपक्व लोकतंत्र का प्रतीक था. बातचीत की वो परंपरा अब टूट रही है.’
राज्य सभा सांसद और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने दिप्रिंट से कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार संसद में किसी चर्चा या बहस की अनुमति न देकर ‘लोकतंत्र का गला घोंट रही है.’
उन्होंने कहा, ‘अगर बहस की अनुमति नहीं है और विरोध की अनुमति नहीं है, तो लोकतंत्र, चुनाव और संसद है ही क्यों? सरकार लोकतंत्र का गला घोंट रही है. यह धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. सभी नागरिकों को इस खतरे का आभास होना चाहिए.’
चिदंबरम ने मंगलवार को राज्य सभा से 19 विपक्षी सांसदों के निलंबन का जिक्र करते हुए कहा, ‘उपसभापति ने कहा कि 19 सांसदों को सदन में उनके ‘कदाचार’ के कारण निलंबित किया गया है. उन्हें यह पूछना चाहिए था कि सरकार के किस ‘आचरण’ के कारण ये कथित ‘कदाचार’ हुआ.’
उन्होंने कहा, ‘सरकार ने बढ़ती महंगाई, जांच एजेंसियों के दुरुपयोग और गुजरात में शराब त्रासदी पर सदन में चर्चा की अनुमति न देकर संसदीय नियमों और परंपराओं को गंभीर नुकसान पहुंचाया है. ऐसा रुख अपनाए जाने के खिलाफ विपक्ष के पास सदन के बाहर और अंदर विरोध प्रदर्शन के अलावा और क्या चारा है.’
हालांकि, सत्तारूढ़ भाजपा इस बात से असहमत है. राज्य सभा सांसद और भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अनिल बलूनी ने दिप्रिंट से बातचीत के दौरान आरोप लगाया कि सरकार के सभी मामलों पर चर्चा के लिए तैयार होने के बावजूद विपक्ष जानबूझकर सदन चलने नहीं देता है.
उन्होंने कहा, ‘सदन का कामकाज नियमित रूप से बाधित हो रहा है और यहां तक कि जो सदस्य जनता से जुड़े मुद्दों को उठाने की कोशिश कर रहे हैं, कुछ सांसद हो-हल्ला करके उन्हें ऐसा नहीं करने दे रहे. सीधी-सी बात है कि ये स्वीकार्य नहीं है. वे सदन के अंदर तख्तियां लेकर आ जाते हैं, जिसकी अनुमति नहीं है. हमने कई बार संपर्क की कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. संसद लोगों से जुड़े मुद्दों, उनकी समस्याओं को उठाने और नीतिगत मुद्दों पर चर्चा करने की जगह है लेकिन इतने दिनों से पूरी तरह ठप पड़ी है.’
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मोदी सरकार के आने के बाद से निलंबन के मामले 170% बढ़े
2006 से फरवरी 2014 के बीच पांच ऐसे मामले सामने आए जिनमें करीब 51 सांसदों को निलंबित किया गया था, उसके बाद से दोनों सदनों में इस तरह के निलंबन की संख्या लगभग तीन गुना बढ़ गई है.
राज्य सभा में, खासकर 2019 में मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल शुरू होने के बाद से निलंबन के मामलों में वृद्धि हुई है.
संसदीय प्रक्रिया और कार्य संचालन संबंधी नियम पुस्तिका के मुताबिक, सदन (लोकसभा और राज्य सभा) को अपने सदस्यों को कदाचार के लिए सदन में या सदन के बाहर दंडित करने का अधिकार है.
सदस्यों के कदाचार या अवमानना के मामलों में सदन चेतावनी, फटकार, सदन से हटाने, सदन की सेवाएं निलंबित करने के अलावा कारावास और सदन से निष्कासन जैसी सजाएं भी दे सकता है.
राज्य सभा में नियम 256 सदस्यों के निलंबन को नियंत्रित करता है. इसके तहत सदस्य को सत्र की बाकी अवधि के लिए निलंबित करने के लिए सभापति की तरफ से एक प्रस्ताव पेश किया जाता है और सदन इसे मंजूरी देता है. तथापि, सदन किसी अन्य प्रस्ताव के जरिये निलंबन खत्म भी कर सकता है.
राज्य सभा में नियम 255 के तहत भी एक प्रावधान है, जिसमें सभापति किसी भी सदस्य को उनकी राय में जिसका आचरण पूरी तरह नियम विरुद्ध है, को शेष दिन की बैठक से तुरंत हटाने का निर्देश दे सकता है.
राज्य सभा में कई सांसदों को नियम 255 के तहत एक दिन के लिए सदन से अनुपस्थित रहने का निर्देश दिया गया है लेकिन इसे निलंबन की तरह गंभीर सजा नहीं माना जाता है.
लोकसभा में निलंबन नियम 374 और 374 (ए) के तहत किया जाता है, जो अध्यक्ष को किसी सदस्य को या तो प्रस्ताव पेश करके या अपने विवेकाधिकार पर निलंबित करने का अधिकार देता है.
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मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में राज्य सभा से निलंबन बढ़ा
दिप्रिंट ने राज्य सभा और लोकसभा सचिवालयों और उनकी संबंधित वेबसाइटों से भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से पहले आठ वर्षों 2006 से 2014 और 2014 से अब तक के जो आंकड़े देखें हैं, उससे पता चलता है कि सांसदों का निलंबन अब एक अपवाद बनता जा रहा है.
उदाहरण के तौर पर राज्य सभा में 2006-2014 की अवधि के बीच मार्च 2010 में सिर्फ एक ऐसा मामला सामने आया जब संसदीय मामलों के तत्कालीन राज्य मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने 9 मार्च को सात सांसदों को 219वें सत्र की बाकी अवधि के लिए निलंबित करने का प्रस्ताव रखा.
सांसदों ने एक मंत्री से महिला आरक्षण विधेयक छीन लिया था और विधेयक की प्रतियां सदन के अंदर फेंक दी थीं. तथापि, केवल एक सदस्य डॉ. एजाज अली को छोड़कर बाकी सभी का निलंबन खत्म करने के लिए 15 मार्च को एक अन्य प्रस्ताव पेश किया गया.
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल (2014-2019) के दौरान राज्य सभा में कोई निलंबन नहीं देखा गया, जब सत्ताधारी पार्टी के पास इस उच्च सदन में कम सीटें थीं. हालांकि, 2020 के बाद से निलंबन की बाढ़ आ गई, जो सत्ता पक्ष और विपक्षी बेंच के बीच बढ़ते तनाव का संकेत है.
सितंबर 2020 में दो विवादास्पद कृषि विधेयकों के पारित होने के दौरान आठ विपक्षी सांसदों को निलंबित किया गया था. निलंबित सांसद दोनों विधेयकों के विरोध में संसद परिसर के अंदर रात भर धरने पर बैठे रहे लेकिन अगले दिन बाकी बचे मानसून सत्र के बहिष्कार की मांग कर रहे विपक्षी सदस्यों का साथ देने के लिए उन्होंने यह प्रदर्शन बंद कर दिया.
जुलाई 2021 में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के राज्य सभा सदस्य शांतनु सेन को आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव से कागजात छीन लेने पर निलंबित कर दिया गया. फिर अगस्त 2021 में कथित पेगासस जासूसी कांड को लेकर विरोध कर रहे छह टीएमसी सांसद एक दिन के लिए निलंबित कर दिए गए.
निलंबन का यह सिलसिला 2021 के शीतकालीन सत्र के दौरान भी जारी रहा. नवंबर में पिछले मानसून सत्र के अंतिम दिन 11 अगस्त को 12 विपक्षी सांसदों को ‘अभूतपूर्व कदाचार’ के लिए पूरे सत्र के लिए ऊपरी सदन से निलंबित कर दिया गया. यह पहला मौका था जब पिछले सत्र के दौरान अभद्र व्यवहार के लिए इतनी बड़ी संख्या में सांसदों को निलंबित किया गया.
आचारी ने कहा, ‘यह संसद के इतिहास में अभूतपूर्व है. सांसदों को पिछले सत्र में हंगामा करने के लिए सदन से निलंबित किया गया था.’
फिर, दिसंबर 2021 में राज्य सभा में तृणमूल कांग्रेस के संसदीय दल के नेता डेरेक ओ’ब्रायन को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया.
लेकिन मंगलवार और बुधवार को राज्य सभा से 20 विपक्षी सांसदों के निलंबन ने नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया है. अब तक कुछ ही दिनों में उच्च सदन से निलंबित सांसदों की यह सबसे बड़ी संख्या है.
ओ’ब्रायन ने कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार संसद को एक ‘गहरे, अंधेरे कक्ष’ में बदल रही है, जहां किसी को भी यह पता नहीं चल पाए कि अंदर क्या हो रहा है.
उन्होंने कहा, ‘विपक्षी सांसदों को विरोध करने और तख्तियां लेने के लिए पूरे सत्र के लिए निलंबित किया जा रहा है. एक जीवंत लोकतंत्र में यदि विपक्षी सदस्य विरोध नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? हाल के दिनों में संसद के दोनों सदनों में निलंबन का सिलसिला दिखाता है कि कैसे भारत में लोकतंत्र और संसद दोनों को ऐसे लोग ताक पर रख रहे हैं जो मूल्य वृद्धि और आर्थिक नाकेबंदी जैसे प्रमुख मुद्दों पर चर्चा से दूर भाग रहे हैं. जरा सोचिए, संसद न चलने पर किसे फायदा होता है.’
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2014 के बाद से लोकसभा से निलंबन में जबर्दस्त तेजी
लोकसभा में सांसदों का सबसे उल्लेखनीय और बड़े पैमाने पर निलंबन का पहला मामला तीन दशक पहले मार्च 1989 में सामने आया था. जब करीब 63 सांसदों को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की जांच से संबंधित ठक्कर आयोग की रिपोर्ट पर सदन की कार्यवाही बाधित करने के कारण तीन दिनों के लिए निलंबित कर दिया गया था. लेकिन एक दिन बाद जब सांसदों ने सदन की पीठ से माफी मांगी तो निलंबन वापस ले लिया गया.
आंकड़े बताते हैं कि मई 2014 मोदी सरकार के पहली बार कार्यभार संभालने के बाद से तकरीबन हर साल जब सदन का सत्र चल रहा होता है तो लोकसभा सांसदों के निलंबन का सिलसिला शुरू हो जाता है.
लोकसभा सचिवालय के रिकॉर्ड के मुताबिक, 2006 और 2014 के बीच चार मामले सामने आए— अप्रैल 2012, अगस्त 2013, सितंबर 2013 और फरवरी 2014 और, इसमें कुल 44 सांसदों को अमर्यादित व्यवहार के लिए लोकसभा से निलंबित किया गया. जबकि 2014 में केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए सरकार के आने के बाद से 91 सांसदों को निलंबित किया गया है.
अगस्त 2015 में एक दिन में सबसे अधिक सांसदों को निलंबित किया गया, जब तत्कालीन स्पीकर सुमित्रा महाजन ने 25 सांसदों को पांच दिनों के लिए निलंबित किया था. उस समय, विपक्षी सांसद व्यापम घोटाले और ललित मोदी मामले को लेकर विरोध जताने के लिए तख्तियां लेकर सदन के वेल में पहुंच गए थे. उनकी तरफ से मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान की तत्कालीन सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया और तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग की जा रही थी.
जुलाई 2017 में छह लोकसभा सांसदों को पांच दिनों के लिए निलंबित किया गया. फिर, 2019 में लोकसभा में बड़ी संख्या में निलंबन देखे गए. दो दिनों के भीतर अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, तेलुगु देशम पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के करीब 45 सांसदों को कार्यवाही बाधित करने, आंध्र प्रदेश के लिए विशेष दर्जे की मांग करने और कावेरी नदी पर प्रस्तावित बांध का विरोध करने के लिए निलंबित किया गया. 2 जनवरी 2019 को लोकसभा ने 24 सांसदों को पांच दिनों के लिए निलंबित कर दिया और एक दिन बाद, 21 अन्य सांसद चार दिनों के लिए निलंबित कर दिए गए.
भारत में संसदीय कामकाज पर नजर रखने वाली दिल्ली स्थित संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च में आउटरीच प्रमुख चक्षु रॉय ने दिप्रिंट को बताया कि ‘सदस्यों की तरफ से संसद की कार्यवाही को बाधित करना और सदन से उनका निलंबन अब आम बात होती जा रही है, जिससे हमारे संसदीय लोकाचार को अपूरणीय क्षति पहुंच रही है.’
रॉय ने कहा, ‘राजनीतिक दलों के लिए जरूरी है कि राष्ट्रीय विधायिका के कामकाज को बाधित किए बिना विधायी कक्ष के बाहर अपने मतभेदों को सुलझाएं. कार्यवाही में व्यवधान और निलंबन संसद की छवि धूमिल करते हैं और इसके कामकाज की परिपक्वता पर गंभीर सवाल उठते हैं.’
भाजपा नेता बलूनी से जब विपक्ष के इस दावे के बारे में पूछा गया कि इस तरह के निलंबन भाजपा के शासनकाल में एक मानक बन गए हैं, तो उन्होंने कहा, ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके कार्यकाल में कैसे काम होता था, संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनके मन में कोई भी सम्मान नहीं था. अगर मैं गिनाना शुरू कर दूं तो उनके लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा.’
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