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Sunday, 17 November, 2024
होमदेश‘फ्लड जिहाद' - हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस को असम में आई जलप्रलय में भी दिख रही है 'जिहादी साजिश'

‘फ्लड जिहाद’ – हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस को असम में आई जलप्रलय में भी दिख रही है ‘जिहादी साजिश’

पेश है दिप्रिंट का इस बारे में राउंड-अप कि पिछले कुछ हफ्तों में हिंदुत्व समर्थक मीडिया ने किस तरह से समाचारों और समसामयिक मुद्दों को कवर किया और उनपर किस तरह से टिपण्णियां की.

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नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध हिंदी पत्रिका ‘पांचजन्य’ के नवीनतम अंक में छापे गए एक लेख का आरोप लगाया है कि मुस्लिम पुरुषों के एक समूह ने जानबूझकर असम के सिलचर में एक नदी पर बना तटबंध तोड़ दिया, जिससे वह विनाशकारी बाढ़ आई, जिसने पूरे शहर को तबाह कर दिया है.

‘बाढ़ जिहाद’ (फ्लड जिहाद) शीर्षक वाली इस खबर में दावा किया गया है कि यह विनाशकारी बाढ़ काबुल खान के नेतृत्व में ‘चार कट्टरपंथियों के एक गिरोह’ की कारस्तानी के वजह से आई थी. इन चारों में से काबुल खान को बेथुकंडी में तटबंध के टूटने के संबंध में गिरफ्तार किया गया था.

‘ऑर्गनाइज़र’ के वरिष्ठ पत्रकार दिब्या बोरदोलोई द्वारा लिखे गए इस लेख में कहा गया है, ‘सीआईडी की जांच से पता चल जायेगा कि जिहादियों ने इस तटबंध को नुकसान पहुंचाने की सोची थी, लेकिन गिरफ्तार धार्मिक कट्टरपंथी काबुल खान और उसके सहयोगियों के इस दुस्साहस का खामियाजा शहर भर के उन लाखों लोगों को उठाना पड़ा, जिनमें से ज्यादातर हिंदू हैं.’

लेख में यह भी दावा किया गया है कि खान और उनके साथियों ने तटबंध के ‘एक हिस्से को खोद डाला था’ ताकि उनके घरों में प्रवेश करने वाला बाढ़ का पानी नदी में वापस जा सके.

इसमें आरोप लगाया गया है, ‘इसी विनाशकारी कृत्य की वजह से बारिश के पानी से लबालब भरी बराक नदी ने क्षतिग्रस्त तटबंध को तोड़ दिया. इसके बाद, नदी का पानी बाढ़ की दूसरी लहर के साथ सिलचर में प्रवेश कर गया, जिससे 20 जून के बाद पूरा शहर जलमग्न हो गया.‘

हालांकि, 6 जुलाई को मीडिया से बात करते हुए, कछार की पुलिस अधीक्षक (एसपी) रमनदीप कौर ने इस बाढ़ के पीछे किसी भी तरह के ‘सांप्रदायिक पहलू’ की संभावना से इनकार किया था.

इसके अलावा, भाजपा के भीतर मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व, जनसंख्या नियंत्रण पर व्याप्त चिंता, यूक्रेन में चल रहा युद्ध और श्रीलंका में उपजा आर्थिक संकट उन कुछ अन्य मुद्दों में से हैं जिनका उल्लेख पिछले सप्ताह हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस में हुआ था.


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‘मुसलमानों को पराया करना’

20 जुलाई को फ़र्स्टपोस्ट के लिए लिखे एक ओपिनियन पीस (विचार आलेख) में दक्षिणपंथी पत्रकार मिन्हाज मर्चेंट ने कहा कि बीजेपी के भीतर मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व होना एक ‘लक्षण है, न कि किसी बीमारी का कारण’.

यह ओपिनियन पीस अपना कार्यकाल पूरा कर रहे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के तीन मुस्लिम राज्यसभा सांसदों, जिनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी भी शामिल हैं, के रिटायरमेंट की पृष्ठभूमि में लिखा गया था. भाजपा के पास अब संसद के किसी भी सदन में कोई मुस्लिम सांसद नहीं है.

मर्चेंट ने तर्क दिया कि भाजपा को ‘मुसलमानों की अदरिंग (पराया करने)’ के लिए दोषी ठहराया गया है, लेकिन यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने भाजपा के गठन से दशकों पहले भारत में जड़ें जमा ली थीं.

वे लिखते हैं, ‘धर्मनिरपेक्ष और उदारवाद के मुखौटे के नीचे ये राजनीतिक दल चुनावी स्वार्थ के लिए झूठ बोलते रहते हैं. मुसलमानों को निशाना बनाने वाली तथाकथित ‘सांप्रदायिक’ पार्टियों का डर पैदा कर ये ‘धर्मनिरपेक्ष’ दल अपने लिए एक बड़ा और वफादार वोट बैंक सुनिश्चित करने में सफल रहे हैं. इस प्रक्रिया में उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया है कि मुसलमान गरीब और पिछड़े बने रहें. ‘

उन्होंने आगे लिखा है कि पिछले 70 से अधिक वर्षों से इन राजनीतिक दलों, जो दिन के दौरान एक धर्मनिरपेक्ष और उदार मुखौटा पहनते हैं, ने मुसलमानों को केवल मुस्लिम माना है.

मर्चेंट ने लिखा, ‘यह एक घातक त्रुटि है. उन्हें (मुस्लिमों को) एक अलग साइलो में रखकर, उन्होंने पुरे मुस्लिम समुदाय को सफलतापूर्वक ‘पराया’ बना दिया है.’

साथ ही उनका यह भी कहना है कि मुसलमान कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के लिए सिर्फ एक ‘वोट बैंक’ हैं जो उनकी पांच साल के चुनावी चक्र के बीच ‘अनदेखा’ करते रहते हैं और चुनाव नजदीक आने पर ही उनकी तरफ खास तवज्जो देते हैं.‘

उन्होंने आगे लिखा है, ‘एक तरफ जहां शीर्ष 100 भारतीय स्टार्टअप में से किसी का भी संस्थापक कोई मुस्लिम नहीं हैं, वहीँ भारत के लगभग 35 प्रतिशत कैदी इसी वर्ग से आते हैं. दो तरह के राजनीतिक दलों, एक जो धर्मनिरपेक्ष मुखौटे पहनते हैं लेकिन उन्हें लगातार गरीब बनाते हैं और दूसरी भाजपा जो उनकी उपेक्षा करती है, के बीच के पाटे में फंसे मुसलमानों को कार मैकेनिक, एयर-कंडीशनर मरम्मत करने वाले और खाना पहुंचाने वाले लड़कों (फ़ूड डिलीवरी बॉयज) के रूप में कम वेतन वाली छोटी-मोटी नौकरियां ही मिलती हैं. जिन्हें इस तरह की नौकरी भी नहीं मिलती, वे बुरी संगत में पड़ जाते हैं, जैसे कि: हवाला, तस्करी, छोटी-मोटी चोरी और कॉन्ट्रैक्ट किलिंग (पैसों के लिए हत्या को अंजाम देना).’

मर्चेंट ने आगे लिखा कि ‘इस त्रासदी के मुख्य खलनायक राजनीतिक और धार्मिक मुस्लिम नेता हैं’, साथ ही, उनका यह भी कहना है कि ये नेता ‘कट्टरपंथ को प्रोत्साहित करते हैं और पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) जैसे इस्लामी आतंकवादी संगठनों को प्रोत्साहित करते हैं’.

‘जनसंख्या नियंत्रण – स्वास्थ्य संबंधी चिंता है, धार्मिक नहीं’

जनसंख्या नियंत्रण के बारे में चिंता को एक बार फिर से आवाज देते हुए, ‘पांचजन्य’ ने अपने एक संपादकीय ने जोर देकर कहा कि भारत में ‘बढ़ती इस्लामी आबादी’ पर अंकुश लगाए जाने की आवश्यकता है. इस संपादकीय में कहा गया है कि इस मुद्दे को ‘स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, न कि किसी धार्मिक दृष्टिकोण से’.

‘पांचजन्य’ के संपादक हितेश शंकर ने दावा किया, ‘पिछले एक दशक में भारत में मुस्लिम आबादी 2.5 गुना बढ़ी है. यह शिक्षा, स्वास्थ्य, उग्रवाद और अपराध पर नई चिंताओं और चर्चाओं का केंद्र बिंदु है. विश्व जनसंख्या दिवस पर एक वर्ग विशेष की बढ़ती जनसंख्या के बारे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा व्यक्त चिंता भी इसी संदर्भ में है. उनकी चिंता को स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, न कि किसी धार्मिक दृष्टिकोण से.’

इस संपादकीय में आगे लिखा गया है, ‘उनकी [योगी आदित्यनाथ की] यह चिंता जायज है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए सभी वर्गों की जनसंख्या को नियंत्रित करना आवश्यक है, अन्यथा, यदि किसी विशेष वर्ग की जनसंख्या असामान्य रूप से बढ़ती रहती है, तो देश में आबादी के घनत्व, स्वच्छता, संसाधनों का उचित वितरण आदि से संबंधित समस्याएं उत्पन्न होंगी.. इससे अराजकता की स्थिति भी पैदा हो सकती है.’


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‘भारत को यूक्रेन युद्ध खत्म करने के लिए अपनी साख का इस्तेमाल करना चाहिए’

आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य राम माधव ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ द्वारा प्रकाशित एक ओपिनियन कॉलम में लिखा है कि भारत को यूक्रेन में चल रहे युद्ध के संदर्भ में तटस्थता, रोमांटिक सिद्धांतों और यथार्थवाद के बीच अंतर करना चाहिए.

माधव ने लिखा है कि भारत को इस युद्ध को समाप्त करने के लिए अपनी तटस्थता को यथार्थवादी कार्रवाई में बदलने हेतु दुनिया भर में बनी अपनी साख का उपयोग करना चाहिए.

वे लिखते हैं, ‘भारतीय दृष्टिकोण से, इस युद्ध के दोष को दोनों पक्षों के बीच विभाजित करने की आवश्यकता है. लेकिन समय की मांग है कि अब इस युद्ध को खत्म करने के रास्ते तलाशे जाएं. यथार्थवादी लोग यह भी तर्क देते हैं कि बड़ी शक्तियों के बीच के युद्ध अक्सर सिर्फ युद्ध नहीं रह जाते बल्कि वे उनकी प्रतिष्ठा के मुद्दे बन जाते हैं.’

यह लिखते हुए कि इस युग में कोई भी युद्ध न्यायपूर्ण नहीं होता, माधव ने तर्क दिया कि इस युद्ध को समाप्त करने के तरीके खोजना ही इस समय की आवश्यकता है.

उनका कहना था, ‘पुतिन किसी भी कीमत पर विलय चाहते हैं, जबकि पश्चिमी शक्तियां लंबे समय के संघर्ष को रूस को आर्थिक और सैन्य रूप से उलझाने और उसे अपंग करने के अवसर के रूप में देखती हैं. इनमें से कोई भी इस युद्ध की मानवीय लागत को लेकर बहुत परेशान नहीं लगता है.’

उन्होंने कहा कि भारत को इस वास्तविकता को ध्यान में रखना चाहिए.

माधव लिखते हैं, ‘इसे एक रोमांटिक सिद्धांत के रूप में अपनी तटस्थता बनाम यथार्थवाद के रूप में तटस्थता के बीच स्पष्ट अंतर करना चाहिए. भारत की तटस्थता को पहली बड़ी चुनौती का सामना 1950 के दशक में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा करने में करना पड़ा था, जिसने इसकी उत्तरी सीमाओं के लिए सीधा खतरा पैदा कर दिया था.‘

वे बताते हैं, ‘अमेरिकियों को तब उम्मीद थी कि भारत को अपनी इस गलती का एहसास होगा और वह बगदाद पैक्ट वाले उन देशों में शामिल हो जाएगा जिसमें अमेरिका के अलावा यूके, पाकिस्तान और ईरान शामिल थे. लेकिन एक रोमांटिक आदर्शवादी के रूप में नेहरू ने तर्क दिया कि किसी को भी अपने सिद्धांतों से इस वजह से समझौता नहीं करना चाहिए क्योंकि कोई और उसके सिद्धांतों से दूर चला गया है. दुर्भाग्य से,यथार्थवाद का यह घोर अभाव भारत के लिए तब काफी महंगा साबित हुआ, जब चीन ने कुछ ही साल बाद बड़ी आक्रामक कार्रवाई की और भारतीय क्षेत्र के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया.‘

‘कट्टरता को धर्मनिरपेक्षता की सेवा के रूप में पेश किया जा रहा है’

बीजेपी के पूर्व सांसद बलबीर पुंज ने हिंदुस्तान टाइम्स के लिए लिखे गए एक ओपिनियन पीस में लिखा है कि नूपुर शर्मा का मामला ‘आखिरकार एक ऐसी मिसाल बन जाएगा, जिससे हर पक्ष के भीड़तंत्र और कट्टरता को तर्कसंगतता और विवेक बुद्धि को कुचलने की अनुमति मिल जाएगी.’

यह कहते हुए कि ‘विवेक, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ जैसे मूल्य, जिन्हें उन्होंने ‘भारतीय सभ्यता की धुरी’ के रूप में वर्णित किया, फ़िलहाल खतरे में हैं; पुंज ने सवाल किया कि ‘क्या भारत लंबे समय तक एक उदार समाज बना रह सकता है.’

उन्होंने लिखा, ‘ईमानदार बहस के लिए जगह अब सीमित होती जा रही है, और कट्टरता को धर्मनिरपेक्षता की सेवा के रूप में पेश किया जा रहा है.’

पुंज ने नूपुर शर्मा मामले के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ द्वारा की गई टिप्पणियों की भी आलोचना करते हुए लिखा, ‘ शीर्ष अदालत ने न केवल ईशनिंदा के आरोपों को दोहराया है, बल्कि कन्हैया कुमार की भीषण हत्या के लिए भी इसी चौतरफा घिरी महिला पर आरोप मढ दिया है .’

‘हिंदू एकता ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एकमात्र गारंटी है’

9 जुलाई को दिल्ली में आयोजित ‘हिंदू संकल्प मार्च’, जिसमें हिन्दू समुदाय के खिलाफ हो रहे ‘हमलों’ को उजागर किया गया था, के बारे में आरएसएस से संबद्ध पत्रिका ‘ऑर्गनाइज़र’ में एक संपादकीय में लिखा गया है कि हिंदू एकता ही ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता और अन्य संवैधानिक अधिकारों की एकमात्र गारंटी’ है.

विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल जैसे संगठनों द्वारा आयोजित मंडी हाउस से जंतर मंतर तक चले इस मार्च में भाजपा नेता कपिल मिश्रा और तजिंदर पाल सिंह बग्गा भी शामिल थे.

‘ऑर्गनाइज़र’ के संपादक प्रफुल्ल केतकर के द्वारा लिखे गए इस संपादकीय में कहा गया है, ‘राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद, शायद यह पहली बार था कि राष्ट्र ने सड़कों पर इस तरह की हिंदू ताकत की उपस्थिति देखी.’

इसमें आगे यह भी जोड़ा गया है कि: ‘नूपुर शर्मा द्वारा उनके खिलफ दर्ज सभी प्राथमिकियों को एक साथ जोड़ने के लिए दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए की गई न्यायिक टिप्पणियों को इस्लामवादियों को प्रोत्साहित करने वाला माना गया, क्योंकि उन्होंने सिर कलम करने की घटना के लिए भी नूपुर शर्मा को ही जिम्मेदार ठहराया. आक्रोश और हताशा का माहौल था. सभी का मानना था कि इस्लामी कट्टरपंथ का खतरा वास्तविक और उनके अस्तित्व से जुड़ा है.‘

संपादकीय कहता है, ‘एकता के इस प्रदर्शन तथा तख्तियों और नारों के माध्यम से चिंता व्यक्त किये जाने से देश भर में एक संदेश गया.’


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‘श्रीलंका ने स्वयं आपने आप को चॉपिंग ब्लॉक पर रखने की अनुमति दी’

आरएसएस से संबद्ध साप्ताहिक पत्रिका ‘ऑर्गनाइज़र’ ने डिजिटल समाचार आउटलेट ‘द रायसीना हिल्स’ के रणनीतिक मामलों के संपादक मनीष आनंद द्वारा लिखित अपनी आवरण कथा (कवर स्टोरी) में श्रीलंकाई आर्थिक संकट पर ध्यान केंद्रित किया.

यह टिप्पणी करते हुए कि ‘इस्लामी कट्टरपंथ’ और ‘चीन पर निर्भरता’ उन कारणों में से हैं जिन्होंने इस द्वीपीय राष्ट्र को आर्थिक पतन के कगार पर धकेल दिया है, आनंद ने लिखा: ‘चीन के साथ बीआरआई [बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव] परियोजना पर हस्ताक्षर करके, श्रीलंका ने खुद को चॉपिंग ब्लॉक (गर्दन काटे जाने की तख्ती) पर रखने की अनुमति दी.’

इस कवर स्टोरी में लिखा गया है, ‘कर्ज के संकट, सामाजिक अशांति, इस्लामी कट्टरपंथ और एकतरफा आर्थिक और कृषि नीतियों ने एक साथ मिलकर इस द्वीपीय द्वीप राष्ट्र को अपने घुटनों पर ला दिया.’

‘ऑर्गनाइज़र’ के इसी अंक में श्रीलंका मामले पर लिखे गए एक अन्य लेख में कहा गया है : ‘हाल ही में कोलंबो में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और प्रधान मंत्री रानिल विक्रमसिंघे के आधिकारिक और निजी आवासों पर धावा बोला जाना, कई ऐसी चीजों की बानगी हो सकती है जो उसके पड़ोसी भारत में भी घटित हो सकती हैं.’

आलेख में कहा गया है कि यह गोटबाया राजपक्षे का आकलन था कि 2015 के आम चुनाव में उनके भाई महिंदा की चुनावी हार के लिए ‘गलत सूचना अभियानों को फ़ैलाने में महारत रखने वाली फैक्ट्रियां’ जिम्मेदार थीं.

इसमें आगे कहा गया है, ‘वे नागरिक अधिकारों और मानवाधिकार संगठनों, गैर सरकारी संगठनों, वामपंथियों, शहरी नक्सलियों, ईसाई प्रचारकों, इस्लामी चरमपंथी संगठनों और निश्चित रूप से वाम-प्रभुत्व वाले मीडिया की आड़ में संचालित और काम करते हैं.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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