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Friday, 22 November, 2024
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गलत तरीके से फंसे आरोपियों की लड़ाई लड़ने वाले शाहिद को खुद की हत्या के मामले में कोर्ट से मिली निराशा

372 सुनवाई, 109 गवाह और 15 से अधिक न्यायाधीशों ने की सुनवाई, शाहिद आजमी की हत्या का मुकदमा उन्हीं न्यायिक दांवपेंचों में उलझा है, जिन्हें सुलझाने में उन्हें महारत हासिल थी.

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मुंबई: मुंबई के मारे जा चुके एंटी-टेरर वकील शाहिद आजमी के दफ्तर में हर शाम 7:30 से 7:40 बजे के बीच फोन की घंटी बजती है. 12 साल पहले यही वह समय था जब शाहिद को पांच गोलियां मारी गई थीं और उसकी मां रेहाना तबसे हर दिन इस समय फोन नंबर डायल करती आ रही हैं.

मुंबई के कुर्ला स्थित टैक्सीमेंस कॉलोनी में भूतल पर छोटे से दो कमरों वाले दफ्तर में शाहिद की कुर्सी पर बैठे उनके भाई खालिद आजमी फोन उठाते हैं और अपनी मां को आश्वस्त करते हैं, ‘हां मां, मैं संभालकर काम करूंगा. मैं अभी यहीं पर हूं.’

आलोचकों की काफी सराहना हासिल करने वाली हंसल मेहता की फिल्म शाहिद (2012) ने आतंकी मामलों में गलत तरीके से फंसे आरोपियों की अथक लड़ाई लड़ने वाले एडवोकेट शाहिद आजमी को अमर बना दिया है. लेकिन एक दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस उत्साही वकील की हत्या का मुकदमा उन्हीं न्यायिक दांव पेंचों में उलझा है, जिन्हें सुलझाने में उन्हें महारत हासिल थी. इस मामले में अब तक 370 से अधिक बार सुनवाई हो चुकी है, मामले में सुनवाई करने वाले न्यायाधीश 15 बार बदल चुके हैं, अभियोजन पक्ष और अभियुक्तों ने कई बार स्टे की मांग की है, 109 में से केवल 12 गवाहों के बयान लिए गए हैं जांच की गई है और निचली अदालत ने कलाई घड़ी और जेल में ‘विशेष बेड’ की मांग समेत अभियुक्तों के तमाम आवेदनों के निपटारे में एक अच्छा-खास समय बिताया है.

इस बीच, शाहिद के परिवार ने जहां इंतजार में एक लंबा वक्त बिताया है, वहीं उस संगठन की तरफ से ‘विश्वासघात’ भी झेला है, जो पहले उन मामलों में लड़ने में शाहिद की मदद करती की थी जिनके लिए वह जाने जाते थे.

अब खालिद भी वकील हैं, लेकिन वह अपने भाई की तरह ‘लाइमलाइट’ में नहीं आना चाहते और कहते हैं, ‘मैंने अपने भाई को इतना सब करते देखा है. लेकिन बदले में उसे क्या मिला?’

उसका सवाल बाईं ओर स्टील स्टोरेज रैक में रखीं दर्जनों पीली, गुलाबी और हरे रंग की केस फाइलों के साथ जुड़ा था. इन केस फाइलों के बीच काले रंग में लिपटी एक फाइल है, जो शाहिद की हत्या के केस से जुड़ी है.

शाहिद के कार्यालय का एक स्केच, यह अदालत के रिकॉर्ड का एक हिस्सा था | अपूर्व मंधानी/दिप्रिंट

विश्वासघात

जो लोग शाहिद को जानते थे, वे बताते हैं कि गलत तरीके से जेल में बंद लोगों के लिए लड़ने का उनका जुनून कानूनी व्यवस्था के साथ उनके अपने संघर्षों से उपजा था. शाहिद ने 1990 के दशक में गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के पुराने और अधिक कड़े रूप आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (टाडा) के तहत गिरफ्तार होने के बाद पांच साल तिहाड़ जेल में बिताए थे. उस वक्त शाहिद 17 साल के थे.

खालिद को याद है कि रिहा होने पर शाहिद का फोन आया था. इसमें उन्होंने दो चीजें मांगीं—एक फॉर्म एलएलबी में एडमिशन के लिए और दूसरा दूसरा पत्रकारिता के लिए.

एक वकील के तौर पर अपने सात साल के कार्यकाल के दौरान शाहिद ने जमीयत-उलमा-ए-हिंद के साथ मिलकर काम किया, जिसने अक्सर उन्हें हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ताओं की सेवाएं लेने के लिए अच्छा-खासा चंदा दिया. यही वह संगठन था जिसके माध्यम से शाहिद ने 7/11 मुंबई लोकल ट्रेन विस्फोट, 2006 मालेगांव बम विस्फोट, 2006 औरंगाबाद हथियार बरामदगी मामला, और 26/11 मुंबई आतंकी हमले के मामले सहित कई हाई-प्रोफाइल मामलों में सरकारी मशीनरी के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी.

जमीयत-उलेमा-ए-हिंद की महाराष्ट्र इकाई के सचिव गुलजार आजमी आज भी शाहिद की तारीफ करते नहीं थकते हैं. उन्होंने बताया कि शाहिद का नजरिया कैसे हमेशा ‘फॉरवर्ड लुकिंग’ रहता था और 2006 के मालेगांव विस्फोटों में नौ मुस्लिम पुरुषों सहित कई आरोपियों को बरी कराने का श्रेय वह उनकी कानूनी रणनीतियों को देते हैं. उन्होंने बताया कि 2007 में मकोका प्रावधान की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का आइडिया शाहिद का ही था. इस याचिका का तात्कालिक असर यह हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2008 से अप्रैल 2010, जब फैसला सुनाया गया, के बीच मालेगांव बम धमाके मामले में सुनवाई पर रोक लगा दी थी. आजमी ने कहा कि चुनौती असफल रही, लेकिन स्टे ने उन्हें समय दे दिया. जनवरी 2011 में स्वामी असीमानंद ने सीबीआई हिरासत में मालेगांव विस्फोटों में हाथ होना कबूला, जिसके बाद आखिरकार अप्रैल 2016 में आरोपियों की रिहाई का रास्ता साफ हुआ. गुलजार यह भी कहते हैं कि कैसे शाहिद ने खुद ये मुकदमे लड़ने के लिए कभी पैसे नहीं मांगे.

उन्होंने कहा, ‘इसमें कोई शक नहीं कि शाहिद आजमी सहानुभूति के कारण ही ये मुकदमे लड़ रहे थे. हम उसे (पैसे) कभी-कभी देते थे, लेकिन उसने कभी नहीं मांगा. उन्हें गलत आरोपों में फंसे आरोपियों से सहानुभूति थी क्योंकि वह खुद उस दौर से गुजर चुके थे.

बहरहाल, शाहिद की यह जंग 11 फरवरी 2010 को खत्म हो गई, जब कथित तौर पर मुवक्किल बनकर उनके दफ्तर पहुंचे तीन लोगों ने उनकी हत्या कर दी थी. खालिद उनकी लड़ाई को आगे बढ़ाने के स्वाभाविक उत्तराधिकारी नजर आ रहे थे और खालिद ने इसकी कोशिश भी की.

उन्होंने कुछ मामलों में जमीयत के साथ काम किया जो शाहिद के पास पहले से ही लंबित थे. हालांकि, उनका यह जुड़ाव 2015 में खत्म हो गया, जिसकी वजह खालिद अब संगठन की तरफ से ‘विश्वासघात’ को बताते हैं. उनका कहना है कि उनके भाई की हत्या के बाद जमीयत ने उन्हें आश्वस्त किया था कि वे मुकदमा लड़ने के लिए एक वरिष्ठ वकील नियुक्त करेंगे. खालिद का दावा है कि जब भी उन्होंने जमीयत से शाहिद के केस के बारे में बात की तो सिर्फ आश्वासन और वादे मिले. उन्होंने कहा, ‘उनकी तरफ से हमेशा मुझसे यही कहा गया कि आप केस की चिंता न करें, हम इस पर पूरा ध्यान दे रहे हैं. इसलिए मैंने सिर्फ अपने काम पर फोकस किया.’ हालांकि, 2014 में खालिद ने पाया कि केस में केवल सरकारी वकील पैरवी कर रहा था और जमीयत ने अपनी तरफ से कोई वकील नियुक्त नहीं किया था.

वे बताते हैं, ‘इसने मुझे और मेरे परिवार को थोड़ा नाराज और भावुक कर दिया. इसने हमें बहुत परेशान कर दिया क्योंकि हमने अपना सब कुछ इस संगठन को दे दिया, और अब, यह पीछे हट रहा था.’ इसके बाद खालिद ने जमीयत से दूरी बना ली.

इस पर, गुलजार आजमी का कहना है कि जमीयत के पास इसका कोई अधिकार नहीं था और वकील नियुक्त करना परिवार का विशेषाधिकार था.

उन्होंने कहा, ‘चूंकि यह पुलिस केस था, हम इसमें ज्यादा दखल नहीं दे सकते थे. इसलिए मेरे हिसाब से यह कहना गलतबयानी है कि जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.’

हालांकि, खालिद के मन में अभी भी एक सवाल गूंजता रहता हैं. वह कहते हैं, ‘मेरा भाई जीवित रहते उनके लिए एक महत्वपूर्ण व्यक्ति था, फिर उन्होंने उसकी मौत के बाद मुझसे और मेरे परिवार से वादे क्यों किए? वे मुझे पांच साल के लिए अपने संगठन में क्यों रखा?’


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372 सुनवाई, 109 गवाह, और 15 से अधिक जज बदले

खालिद अब स्वतंत्र रूप से काम करते हैं और क्रिमिनल लॉ प्रैक्टिस करते हैं. वह यौन अपराधों से बच्चों को संरक्षण (पोक्सो), घरेलू हिंसा और बीमा से संबंधित केस देखते हैं. 2015 तक उन्होंने शाहिद के मुकदमे और सुनवाई को लेकर जमीयत पर भरोसा किया. लेकिन कोई भी नतीजा न निकलने के बाद से वह खुद इस पर नजर रख रहे हैं.

कुर्ला के टैक्सीमेंस कॉलनी में खालिद आज़मी का ऑफ़िस, मुंबई | अपूर्व मंधानी/दिप्रिंट

शाहिद की हत्या के बाद पिछले 12 सालों में मामले में 372 बार सुनवाई हुई है और न्यायाधीशों को एक दर्जन बार बदला गया है. 109 में से केवल एक दर्जन गवाहों के बयान हुए हैं. इस मामले में मुख्य गवाह शाहिद का क्लर्क इंदर सिंह है, जो उनकी गोली मारकर हत्या किए जाने के समय कार्यालय में मौजूद था.

खालिद के मुताबिक, आरोपपत्र मई 2010 में 90 दिनों की वैधानिक अवधि के भीतर दायर किया गया था. इसमें चार आरोपियों- विनोद विचारे, पिंटू देवराम दगले, देवेंद्र जगताप और हसमुख शंकर सोलंकी का नाम था. छोटा राजन गैंगस्टर के पूर्व सहयोगी भरत नेपाली समेत छह अन्य आरोपी फरार बताए गए थे. इन सभी पर शस्त्र अधिनियम और महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम, 1999 (मकोका) की विभिन्न धाराओं के तहत हत्या और आपराधिक साजिश का आरोप लगाया गया था.

ट्रायल कोर्ट ने जनवरी 2011 में मकोका के तहत आरोपों को हटा दिया. राज्य की तरफ से बॉम्बे हाई कोर्ट में एक अपील दायर की गई, जिसमें आरोप हटाने को चुनौती दी गई. यद्यपि यह अपील अभी लंबित है, हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि उसने मुकदमे पर रोक नहीं लगाई है.

चार्जशीट दायर होने के बाद कोर्ट को अभियुक्तों के खिलाफ आरोप तय करने होते हैं और उन वह आरोपों को हटा देती है जिसके पक्ष में पर्याप्त सबूत नहीं हैं. हालांकि, शाहिद के मामले में आरोप अगस्त 2017 में सात साल बाद तय किए गए थे- यह ऐसा घटनाक्रम है जिसे बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी अपने आदेश में ‘आश्चर्यजनक’ पाया.

एक कलाई घड़ी, एक ‘विशेष’ बेड

अगस्त 2014 में पारित एक आदेश में निचली अदालत ने देरी पर अपनी निराशा जाहिर की थी. आदेश में कहा गया है कि जब अदालत आरोपों के साथ तैयार थी, लेकिन हाई कोर्ट में मकोका आरोप पर लंबित अपील का हवाला देते हुए आरोपी और उनके वकील नहीं चाहते कि उन पर आरोप तय किए जाएं.

खालिद ने केस में देरी के लिए कोविड और जजों के बदलने के अलावा आरोपियों की ओर से दायर कई आवेदनों को भी जिम्मेदार ठहराया है. जमानत अर्जी के साथ-साथ आरोपियों ने जेल में कलाई घड़ी और अलग बेड की मांग करते हुए भी अर्जी दाखिल की थी.

2011 में हसमुख सोलंकी ने कोर्ट के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें जेल में अपने निजी इस्तेमाल के लिए कलाई घड़ी उपलब्ध कराने की मांग की गई थी. एक अन्य आवेदन में देवेंद्र जगताप ने अदालत को बताया कि उन्हें गठिया है और उन्हें जेल में एक खास तरह के बिस्तर की जरूरत है. विशेष न्यायाधीश वी.वी. वीरकर ने दिसंबर 2011 में इन दोनों आवेदनों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उनकी मांगों को मंजूर करने का कोई औचित्य नहीं है.

और उसके बाद से मुकदमे में देरी के कारण तीन आरोपी जमानत पाने में भी सफल रहे.

विनोद विचारे को 2012 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने जमानत दे दी थी. जुलाई 2015 में पिंटू दगले को भी जमानत दी गई थी—वह पांच साल से अधिक समय से हिरासत में थे और मुकदमा अभी तक शुरू नहीं हुआ था.

जगताप और सोलंकी ने ट्रायल कोर्ट, बॉम्बे हाई कोर्ट और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट से जमानत पाने के कई असफल प्रयास भी किए. सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में जगताप की जमानत याचिका इस आधार पर खारिज कर दी, कि उसने अदालत से झूठ बोला था कि उसका कोई पिछला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने अदालत को बताया कि उसके खिलाफ करीब 10 अलग-अलग मामले चल रहे हैं.

सोलंकी को आखिरकार अप्रैल 2022 में जमानत मिल गई—और एक बार फिर मुकदमे में देरी को आधार बनाया गया.
हालांकि, पूर्व में एक आरोपी की तरफ से पेश होने वाले वकीलों में से एक का कहना है कि कोविड और मामले में न्यायाधीशों के लगातार बदलने को देरी के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.

उन्होंने कहा, ‘हर बार जब कोई नया न्यायाधीश आता है तो उसकी तरफ से आम तौर पर कम से कम एक या दो बार तो मामला स्थगित किया ही जाता है, ताकि वह मामले को समझ सके.’ उनका यह भी कहना है कि जब वह मामले में पेश हो रहे थे तो अभियोजन पक्ष गवाही के लिए गवाहों को लाने में कतराने लगता था.

उन्होंने कहा कि जगताप की बहन सुमिता भी देरी के लिए अभियोजन पक्ष को दोषी ठहराती है और कहती है कि यह सब ‘मेरे भाई को परेशान करने वाला है.’

वह टिप्पणी करती हैं, ‘वह बेवजह ही सलाखों के पीछे है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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