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Monday, 25 November, 2024
होमराजनीतिसभी राज्यों के MLA नहीं करोड़पति, दिल्ली में हर महीने 90 हजार रु और तेलंगाना में मिलते हैं 2.3 लाख

सभी राज्यों के MLA नहीं करोड़पति, दिल्ली में हर महीने 90 हजार रु और तेलंगाना में मिलते हैं 2.3 लाख

इस माह के शुरू में दिल्ली ने 11 साल बाद अपने विधायकों के वेतन में संशोधन किया है. विधायकों का वेतन बढ़ना अक्सर ही सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन जाता है, और सियासी तबके को वेतनवृद्धि की मांग को लेकर तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है.

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नई दिल्ली: आम आदमी पार्टी (आप) नेता सोम दत्त ने 2013 में राजनीति के मैदान में उतरने के लिए अपनी बैंक की नौकरी छोड़ दी थी. उस समय उन्हें हर माह 45,000 रुपये वेतन मिलता था.

अब, नौ साल बाद 45 वर्षीय सोम दत्त दिल्ली की सदर बाजार विधानसभा सीट तीसरी बार जीतकर विधानसभा के सदस्य बने हुए हैं और बतौर विधायक 53,000 रुपये प्रति माह पाते हैं.

इसी में उन्हें तीन लोगों के परिवार का पालन-पोषण करना है, जिसमें उनका एक 3 साल का बेटा भी शामिल है. उसे वह अगले साल सरकारी स्कूल में भर्ती कराने की योजना बना रहे हैं क्योंकि निजी स्कूल महंगे हैं. वह अपने पिता के दो मंजिला घर में रहते हैं और उनके पास अपना कोई वाहन नहीं है—यहां तक कि दोपहिया वाहन भी नहीं. बैंक की नौकरी के समय भी उनके पास कोई वाहन नहीं था.

हालांकि. अब उनकी वित्तीय स्थिति जल्द ही बेहतर हो सकती है, क्योंकि 5 जुलाई को दिल्ली विधानसभा ने विधायकों का वेतन 66 प्रतिशत तक बढ़ाकर 90,000 रुपये प्रति माह करने के लिए एक विधेयक पारित किया है. राष्ट्रीय राजधानी में विधायकों का वेतन आखिरी बार 11 साल पहले बढ़ा था.

सांसदों-विधायकों के वेतन में वृद्धि अक्सर सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन जाती है और राजनीतिक तबके को वेतन बढ़ाने के प्रयासों को लेकर आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है.

भारत में विधायकों के वेतन के विश्लेषण से पता चलता है कि विभिन्न राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में न केवल मूल वेतन के मामले में बल्कि जनप्रतिनिधियों को मिलने वाले भत्तों में भी व्यापक असमानता है.

केरल के कुंदरा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे कांग्रेस विधायक पी.सी. विष्णुनाध ने दिप्रिंट को फोन पर बताया, ‘कई लोग सोचते हैं कि विधायक अमीर और भ्रष्ट हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि 90 प्रतिशत मामलों में, पत्नी या परिवार का कोई अन्य सदस्य बच्चों की स्कूल फीस जैसे घरेलू खर्च वहन कर रहा होता है.’

2006 में 28 साल की उम्र में पहली बार विधायक बने विष्णुनाध ने बताया, ‘मैं कॉलेज के दिनों से छात्र राजनीति में शामिल रहा हूं, इसलिए पार्टी ने मुझ पर भरोसा किया और मुझे टिकट दिया. लेकिन मेरे पास परिवार के लिए पैसे कमाने और बचाने का समय नहीं है. मेरी पत्नी केरल में एक प्ले स्कूल चलाती है और इसी तरह हम अपने घर का खर्च चलाते हैं.’

विधायकों के वेतन-भत्तों पर विभिन्न राज्यों के कानूनों के विश्लेषण के साथ-साथ न्यूज रिपोर्टों से पता चलता है कि तेलंगाना (सकल वेतन 2.7 लाख रुपये/माह), महाराष्ट्र (2.3 लाख रुपये), हिमाचल प्रदेश (2.1 लाख), झारखंड (2.08 लाख), और उत्तराखंड (2 लाख रुपये से अधिक) अपने विधायकों को उच्च वेतन-भत्तों का भुगतान करते हैं.

इसके विपरीत, दिल्ली, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल सबसे कम वेतन वाले राज्य/केंद्र शासित प्रदेश हैं, जहां विधायकों का कुल वेतन 50,000 रुपये से 90,000 रुपये के बीच है.

फिर भी, सबसे कम वेतन वाले राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के कई विधायकों का कहना है कि वेतन वृद्धि की मांग करना अनुचित होगा.

पश्चिम बंगाल के मालदा स्थित इंग्लिश बाजार से भाजपा विधायक श्रीरूपा मित्रा चौधरी ने कहा कि इस तरह की मांग ‘असामान्य’ होगी.

उन्होंने फोन पर बातचीत में कहा, ‘पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार को सरकारी कर्मचारियों को वेतन और डीए (महंगाई भत्ते) का भुगतान करना ही मुश्किल लगता है. वह (राज्य) कर्ज में भी दबा है. आर्थिक स्थिति चुनौतीपूर्ण है. इसलिए, एक विधायक के तौर पर मैं यह कहने की हिम्मत नहीं रखती हूं कि हमारा वेतन बढ़ाया जाना चाहिए.’

विष्णुनाध ने भी यह कहते हुए इससे सहमति जताई कि ऐसे समय में जब उनका राज्य ‘गंभीर वित्तीय संकट’ से गुजर रहा है, वेतन वृद्धि की मांग करना अनुचित होगा.

आरबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल, पंजाब, राजस्थान, बिहार और केरल देश के सबसे ज्यादा कर्ज वाले राज्य हैं.

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक संजय सिंह का मानना है कि वेतन असमानता का कोई औचित्य नहीं है ‘क्योंकि विधायक हर जगह समान कार्य करते हैं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘यह धारणा कि विधायक अन्य माध्यमों से कमा सकते हैं (ऐसे) कम वेतन का आधार नहीं हो सकती.’

विधायकों को इस पद के साथ अन्य व्यवसाय करने की अनुमति है, लेकिन वे लाभ के पद पर आसीन नहीं रह सकते. 2018 में एक जनहित याचिका, जिसमें विधायकों के वकीलों के तौर पर काम करने से रोकने की मांग की गई थी, खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधायकों को ‘पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों के तौर पर नहीं माना जा सकता है.’ 2017 में भी शीर्ष कोर्ट ने विधायकों को अन्य व्यवसायों को अपनाने से रोकने की मांग करने वाली एक याचिका को विचार योग्य नहीं पाया था.


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विधायकों को कितना मिलता है वेतन

आम तौर पर किसी विधायक के वेतन में फिक्स (जैसे मूल वेतन, जो बिना भत्ते के मानक वेतन है) और वैरीएबल कंपोनेंट (जैसे भत्ते) होते हैं. यही दोनों घटक मिलकर सकल वेतन बनाते हैं—यानी कुल मासिक वेतन जो किसी व्यक्ति को बिना कटौती के मिलता है.

टेलीफोन और वाहन जैसे मानक भत्तों के अलावा कई बार विधायकों को निर्वाचन क्षेत्र भत्ता भी मिलता है, जिसका इस्तेमाल वे अपने कार्यालय के रखरखाव, यात्रा और अपने निर्वाचन क्षेत्र पर होने वाले विविध आधिकारिक खर्चों के लिए करते हैं.

कुछ राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में निर्वाचन क्षेत्र भत्ते में स्टेशनरी, टेलीफोन और बिजली के बिल और अन्य ऐसे खर्च शामिल होते हैं जो वेतन में शामिल नहीं हैं.

एक विधायक के वेतन में यात्रा भत्ते (निर्वाचन क्षेत्र के अंदर और बाहर दोनों), निजी सचिव और आवास किराया भत्ता शामिल हो सकते हैं. इनमें से कुछ, जैसे एचआरए, की भरपाई बाद में की जाती है.

तमिलनाडु में, विधायकों का मासिक मूल वेतन 55,000 रुपये है, लेकिन भत्ते—टेलीफोन, डाक, वाहन और अन्य प्रतिपूरक भत्ते—मिलाकर सकल वेतन 1 लाख रुपये से अधिक हो जाता है.

वेतन में संशोधन के बाद दिल्ली में विधायकों को 90,000 रुपये प्रति माह का सकल वेतन मिलेगा—जिसमें मूल वेतन के तौर पर 30,000 रुपये के अलावा निर्वाचन क्षेत्र भत्ते के 10,000 रुपये और अन्य भत्तों के तौर पर 50,000 रुपये शामिल हैं.

विधायकों के वेतन संशोधन अधिनियमों से पता चलता है कि कई राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में एक टाइपिस्ट या एक निजी सहायक के लिए भी भत्ता निर्धारित है.

विधायकों का मूल वेतन भी कई राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में व्यापक स्तर पर असमान है.

केरल के एक विधायक का मूल वेतन 20,000 रुपये है, हालांकि भत्तों को जोड़ने से सकल वेतन 50,000 रुपये से 70,000 रुपये के बीच पहुंच जाता है. असम में विधायकों का मूल वेतन 80,000 रुपये है, लेकिन निर्वाचन क्षेत्र भत्ता जोड़ने से उनका सकल वेतन 1.2 लाख रुपये हो जाता है.

वेतन संशोधन अधिनियम दर्शाते हैं कि भत्ते भी भिन्न होते हैं. कुछ राज्य/केंद्र शासित प्रदेश, जैसे महाराष्ट्र, ड्राइवर के लिए भत्ता देते हैं. वहीं, अन्य ने किसी विधायक को मासिक या वार्षिक आधार पर ईंधन पर खर्च की प्रतिपूर्ति की सीमा तय कर रखी है.

उदाहरण के तौर पर हिमाचल प्रदेश में कोई विधायक अपने खुद के वाहन के साथ 18 रुपये प्रति किलोमीटर की दर से ईंधन की प्रतिपूर्ति का हकदार है. इसके अतिरिक्त, उन्हें बस, टैक्सी या निजी वाहनों से यात्रा करने के लिए प्रति किलोमीटर 2 रुपये का भत्ता दिया जाता है.

छत्तीसगढ़ में विधायकों को यात्रा के लिए अपना खुद का वाहन उपयोग करने पर प्रति किलोमीटर 10 रुपये दिए जाते हैं. इसके अतिरिक्त, रेलवे पास और हवाई यात्रा राज्य सरकार की तरफ से प्रायोजित होती है.

लेकिन विधायकों का कहना है कि उनका ईंधन भत्ता अक्सर अपर्याप्त होता है, खासकर बढ़ती कीमतों को देखते हुए.

विष्णुनाध ने कहा, ‘उदाहरण के तौर पर डीजल कूपन भत्ता जो सभी (केरल के) विधायकों को मिलता है, तब निर्धारित किया गया था जब डीजल की कीमतें 60 रुपये थीं, लेकिन (ईंधन की कीमतों में) वृद्धि के बाद यह अपर्याप्त है.’ उन्होंने कहा, ‘मेरे मामले में, मैंने अपने निर्वाचन क्षेत्र की बार-बार यात्रा करके अपना डीजल भत्ता लगभग खत्म कर लिया है, और अभी साल का अधिकांश समय बाकी है.’

नाम न छापने की शर्त पर दिल्ली के एक विधायक ने भी इससे सहमति जताई.

विधायक ने कहा, ‘अगर हम अपने वाहन का उपयोग करते हैं तो हमें यात्रा भत्ते के रूप में 2,000 रुपये प्रति माह मिलने चाहिए. इतना तो दो दिन में ही खत्म हो जाएगा.’

यहां तक कि सबसे ज्यादा भुगतान करने वाले राज्य तेलंगाना में भी विधायकों का कहना है कि उन्हें जो पैसा मिलता है वह अक्सर उनके खर्चों के लिहाज से अपर्याप्त होता है.

जगतियाल के तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) विधायक संजय कुमार ने कहा कि विधायकों को अपने मतदाताओं से जुड़े रहने के लिए अक्सर अपने निर्वाचन क्षेत्र का दौरान करना होता है. उन्होंने कहा, ‘हमें सरकार से मिलने वाली राशि एक सप्ताह भी नहीं चलती. एक विधायक के तौर पर हमें अपनी जेब से भी काफी खर्च करना पड़ता है.’

दिल्ली के सुल्तानपुर माजरा के विधायक मुकेश अहलावत ने कहा कि उनका वेतन अकेले उनके खर्चों को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त नहीं होता है.

उन्होंने आगे कहा, ‘जब मैं विधायक नहीं था, तो मुझे (एक विधायक के) वेतन के बारे में गूगल करना याद है. इससे पता चला कि विधायक को सकल मासिक वेतन के रूप में 2.10 लाख रुपये मिलते हैं. हालांकि, जब मैं इस पद पर आया तो एहसास हुआ कि वास्तविकता एकदम अलग ही है. मैं अपना खुद का स्कूल और एक पेइंग गेस्ट आवास चलाता हूं, इसलिए मुझे अपने परिवार के खर्चे की ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन यह राशि अपर्याप्त है.’


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‘अधिक वेतन की मांग करना अनुचित’

पश्चिम बंगाल में हर विधायक को प्रति माह के शुरुआत में 21,870 रुपये मिलते हैं—जिसमें मूल वेतन के 10,000 रुपये, निर्वाचन क्षेत्र भत्ते के 4,000 रुपये, प्रतिपूरक भत्ते के तौर पर 3,000 रुपये और टेलीफोन भत्ते के रूप में 5,000 रुपये शामिल है—और बाकी घटकों के साथ उनका वेतन कुछ दिन बाद खाते में क्रेडिट हो जाता है.

लेकिन विधायकों का कहना है कि भत्तों में अक्सर देरी होती है. मदारीहाट से भाजपा विधायक मनोज तिग्गा ने कहा कि विधायकों को मार्च और अप्रैल का भत्ता जुलाई में मिला था.

हालांकि, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे कम वेतन वाले राज्यों के विधायक इस बात को लेकर एकमत नहीं हैं कि क्या वेतन वृद्धि की मांग की जानी चाहिए. दिप्रिंट से बातचीत में कई विधायकों ने स्वीकारा कि उनके वेतन में खर्च चलाना कठिन है लेकिन वेतन वृद्धि की मांग के पक्षधर नहीं दिखे.

चौधरी ने कहा कि विधायकों ने जब चुनाव लड़ने का फैसला किया तभी उन्हें पता था कि उन्हें क्या मिलने वाला है.

उन्होंने कहा, ‘विधायकों की नौकरी 24×7 है. हमने इसे राष्ट्र की सेवा के रूप में चुना है. हमने सोच-समझकर चुनाव लड़ा और इन चुनौतियों का सामना करने का फैसला किया है’

पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार में श्रम मंत्री और आसनसोल उत्तर के विधायक मोलॉय घटक ने भी इस बात से सहमति जताई.

उन्होंने कहा, ‘यह कम हो सकता है, लेकिन हम वेतन के लिए काम नहीं करते. हमारे लिए आवास, यात्रा, भोजन आदि सब कुछ मुफ्त है. मैं पहले एक वकील था. मैंने मोटी रकम कमाने का मौका छोड़ दिया और चुनाव लड़ने यहां आया. यह कोई पेशा नहीं है, यह एक सामाजिक कार्य की तरह है.’

हालांकि, कुछ विधायक असहमत हैं. सिक्किम में सत्तारूढ़ एनडीए के एक विधायक ने कहा कि राज्य के विधायकों के लिए एक निर्धारित विकास कोष की कमी का नतीजा यह होता है कि उन्हें अक्सर अपनी जेब से भुगतान करना पड़ता है.

उन्होंने कहा, ‘हमें लगभग 1,65,000 रुपये मिलते हैं, जिसमें आवास, यात्रा भत्ते और एक ड्राइवर का वेतन शामिल है. लोग सोचते हैं कि हम सत्ताधारी पार्टी से हैं इसलिए हमें केंद्र से पैसा मिलता है, लेकिन यह सच नहीं है. हमें सारा इंतजाम इसी राशि के भीतर करना होता है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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