नई दिल्ली: अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) के भीतर चल रही लड़ाई ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के खिलाफ विपक्ष के रूप में और अधिक सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया है.
एडप्पादी के पलानीस्वामी (ईपीएस) और अन्नाद्रमुक की जनरल काउंसिल (आम परिषद) के सदस्यों ने इस सोमवार को पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेल्वम (ओपीएस) को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित कर दिया. अब, अपनी इस कमजोर स्थिति में, पार्टी भाजपा की सहयोगी होने के बावजूद उसके आक्रामक विस्तारवादी रवैये के प्रति पहले से कहीं अधिक असुरक्षित हो सकती है. अब संभावना इस बात की है कि यह तथ्य 2024 के आम चुनाव से पहले अन्नाद्रमुक और भाजपा के बीच पहले से ही तनावपूर्ण संबंधों को और खराब कर सकता है.
लेकिन तमिलनाडु अकेला ऐसा राज्य नहीं है, जहां बीजेपी अपनी राजनैतिक उपस्थिति को बढ़ाने के लिए जोर लगा रही है. महाराष्ट्र में भी भाजपा पर शिवसेना के तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ एकनाथ शिंदे की बगावत का शह देकर शिवसेना में विभाजन करवाने का आरोप लगाया गया है.
बिहार में, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जद (यू) का भाजपा के साथ असहज गठबंधन अब कोई राज की बात नहीं है. 1990 के दशक के अंत में जो गठबंधन फूला-फला था, आज वह अविश्वास और संदेह का घर बन गया है.
भाजपा की इन कारगुजारियों ने कई राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक परिदृश्य को एकदम बदल दिया है और अन्य दलों को – चाहे वे सहयोगी हों या नहीं – उसकी हर हरकत को संदेह की नजर से देखने को छोड़ दिया है. भाजपा के खिलाफ सबसे आम शिकायत यह है कि यह पार्टी गठबंधन धर्म का सम्मान नहीं करती है.
दिप्रिंट के साथ बात करते हुए, बिहार भाजपा के नेता और प्रवक्ता गुरु प्रकाश पासवान ने कहा, ‘कई बार, छोटे दल कई सारी चीजों की मांग करते हैं और उनका दबाव अनुचित होता है. उनकी अपनी चुनावी संभावनाओं के बारे में उनकी गणना भी यथार्थवादी नहीं होती है. इसलिए गठबंधन टूट जाता है. हमारे दल को उन क्षेत्रों में अपने आप को बढ़ाना है जहां हम कमजोर हैं, इसलिए यह कभी-कभी अन्य गठबंधन सहयोगियों की संभावनाओं को बाधित कर सकता है, लेकिन यह कहना कि हम विश्वासपात्र सहयोगी नहीं हैं, गलत बात होगी.‘
भाजपा नेता ने उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का उदाहरण दिया, जिसने भाजपा को अपना समर्थन जारी रखने के लिए 2019 के चुनावों में आठ लोकसभा सीटों की मांग की थी. उन्होंने कहा, ‘अमित शाह जरा भी नहीं डिगे और राजभर का साथ छोड़ दिया, पर हमने अपना दल के साथ गठबंधन नहीं तोड़ा, जिसने भाजपा के साथ विधानसभा चुनाव में 12 सीटें हासिल की हैं.‘
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक शोध कार्यक्रम ‘लोकनीति’ के सह-निदेशक प्रोफेसर संजय कुमार के मुताबिक बीजेपी ने गठबंधन की कई रणनीतियों में महारत हासिल कर ली है.
कुमार ने कहा, ‘भाजपा ने जातिगत गठबंधनों को जोड़कर क्षैतिज और लंबवत दोनों रूप से अपना विस्तार किया है. इसे लम्बे समय के लिए गठबंधन सहयोगियों की दरकार नहीं है. इसे नए क्षेत्रों में प्रवेश करने के लिए केवल चुनाव-उन्मुख भागीदारों की आवश्यकता होती है. इसलिए सहयोगियों पर इसकी निर्भरता कम हो जाती है. अतीत में इसने अपने-अपने राज्यों में ताकतवर उपस्थिति रखने वाले विरोधी दलों का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं को शामिल करके प्रयोग किया हुआ है.’
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तमिलनाडु
साल 2016 में, भाजपा ने इस राज्य की सभी 232 सीटों से विधानसभा चुनाव लड़ा था और उसे कोई भी सीट नहीं मिली थी, जबकि अन्नाद्रमुक ने 136 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था. पांच साल बाद, 2021 में, भाजपा ने फिर से विधानसभा चुनाव लड़ा. इस बार वह अपने एनडीए गठबंधन के हिस्से के रूप में अन्नाद्रमुक के साथ थी और इसने चार सीटों पर जीत हासिल की, जबकि अन्नाद्रमुक को 65 सीटें मिलीं.
हालांकि, इसके बाद भी अन्नाद्रमुक सत्तारूढ़ द्रमुक के खिलाफ प्रमुख विपक्ष के रूप में उभरी, लेकिन भाजपा के साथ अन्नाद्रमुक के गठबंधन ने इसको कोई फायदा नहीं पहुंचाया. दूसरी तरफ इसने भाजपा को राज्य विधानसभा में पैर जमाने में मदद जरूर की.
फिर भी, भाजपा ने पिछले महीने अन्नाद्रमुक की खिंचाई की और खुद को तमिलनाडु में ‘सर्वश्रेष्ठ विपक्ष’ होने का दर्जा दे दिया. भाजपा उपाध्यक्ष वी.पी. दुरईसामी ने कहा कि उनकी पार्टी के चार विधायक ‘राज्य विधानसभा में 65 अन्नाद्रमुक विधायकों की तुलना में बेहतर काम कर रहे हैं.’
उन्होंने कहा, ‘अन्नाद्रमुक विपक्ष के तौर पर अपना काम करने में विफल रही है. इसे डीएमके के भ्रष्टाचार को सामने लाना चाहिए था. लेकिन इसके नेता छापेमारी के डर से चुप हैं.’
विगत 2 जून को, अन्नाद्रमुक के संगठन सचिव सी. पोन्नईयन ने कावेरी नदी के जल और मुल्लापेरियार बांध से सम्बंधित अंतर-राज्यीय विवादों में तमिलनाडु के साथ ‘विश्वासघात’ करने के लिए भाजपा पर पलटवार किया था, मगर बाद में अन्नाद्रमुक ने पोन्नईयन की इस टिप्पणी से खुद को अलग कर लिया था.
इस बीच, ‘मंदिरों को राज्य के नियंत्रण से मुक्त करने‘ की भाजपा के हिंदुत्ववादी प्रचार अभियान ने सत्तारूढ़ द्रमुक को भी चिंतित कर दिया है.
दरअसल, पिछले हफ्ते ही भाजपा के राज्य प्रमुख के. अन्नामलाई ने तमिलनाडु और महाराष्ट्र की राजनीति के बीच समानताएं बतायीं थीं और दावा किया कि थे इस राज्य में भी एक ‘एकनाथ शिंदे का उदय होगा.’
अन्नाद्रमुक के एक सूत्र ने दावा किया था कि भाजपा की योजना इस राज्य में मुख्य विपक्ष की भूमिका ‘हथियाने’ की है.
उन्होंने आगे कहा कि आईपीएस अधिकारी से राजनेता बने अन्नामलाई का आक्रामक रुख, हिंदुत्व को बढ़ावा देना और साथ ही ‘डीएमके का क्षेत्रीय पहचान वाला कार्ड’ अन्नाद्रमुक को तमिलनाडु में अपनी जगह बचाने के लिए संघर्ष हेतु मजबूर कर सकता है.
अन्नाद्रमुक के सूत्र ने कहा, ‘यह बात भाजपा, जो 2014 के बाद से अपने 19 गठबंधन सहयोगियों को पहले ही खो चुकी है, के साथ ईपीएस के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक के संबंध खराब कर सकता है.’
सूत्र ने कहा, ‘अन्य गठबंधन सहयोगियों के साथ बीजेपी के संबंध हमेशा से नाजुक रहे हैं, यहां तक कि पार्टी अपने हितों की रक्षा के लिए सही समय आने पर साझेदारियां भी तोड़ती रही है.’
इस बारे में बात करने पर बीजेपी के सूत्रों ने दिप्रिंट से कहा कि पार्टी 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी के दौरान सावधानी बरतेगी, क्योंकि उसे अन्नाद्रमुक के दम पर ही खुद को मजबूत करना है, लेकिन वह खुद को द्रमुक के लिए मुख्य चुनौती के रूप में पेश करने के किसी अवसर की अनदेखी भी नहीं करेगी.
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महाराष्ट्र
भाजपा द्वारा कथित तौर पर राज्य में सत्तारूढ़ महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन सरकार का हिस्सा रहे शिवसेना के भीतर बगावत की योजना बनाये जाने के साथ ही पिछले एक महीने में महाराष्ट्र के राजनैतिक नेतृत्व में बड़ी उथल-पुथल देखी गयी है.
इस राज्य में भाजपा और शिवसेना साल 1989 से ही स्वाभाविक सहयोगी रहे हैं. शिवसेना-भाजपा गठबंधन ने राज्य में पहली बार साल 1990 में संयुक्त रूप से विधानसभा चुनाव लड़ा था. उस चुनाव में शिवसेना ने 183 सीटों पर चुनाव लड़ा और 52 सीटों पर विजय हासिल की, जबकि भाजपा ने गठबंधन के कनिष्ठ सहयोगी के रूप में चुनाव लड़ते हुए 105 सीटें लड़ीं और 42 पर जीत हासिल की.
हालांकि, इन वर्षों के दौरान भाजपा दोनों दलों में से अधिक मजबूत दल हो गई है. शिवसेना ने 2019 में राज्य की 288 सीटों में से 126 सीटों पर चुनाव लड़ा और 55 पर जीत हासिल की और भाजपा ने 162 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए और 106 पर विजय हासिल की थी.
हालांकि, उद्धव ठाकरे द्वारा भाजपा को बारी-बारी से मुख्यमंत्री पद बांटने और सत्ता के समान बंटवारे के लिए कहे जाने और भाजपा द्वारा इसके लिए साफ़ इंकार किये जाने के बाद दोनों दलों की राहें जुदा हो गईं.
भाजपा पर अब शिवसेना के एकनाथ शिंदे की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ाने का आरोप लगाया गया है ताकि उद्धव ठाकरे को सीएम पद से हटाने के लिए बगावत का रास्ता अपनाया जा सके.
इसी साल जनवरी में उद्धव ने बीजेपी पर हमला बोलते हुए कहा था, ‘उन दिनों को याद कीजिए जब बीजेपी प्रत्याशी चुनाव में अपने जमानत भी गंवा देते थे? उस समय उन्हें हमारी और अकाली दल, टीएमसी और शिवसेना जैसी अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की जरूरत थी…लेकिन अब ये नव-हिंदुत्ववादी सिर्फ अपने फायदे के लिए हिंदुत्व का इस्तेमाल कर रहे हैं.‘
दिप्रिंट से बात करते हुए, शिवसेना सांसद अरविंद सावंत ने उस समय की बात की जब शिवसेना और बीजेपी एक साथ मिलकर काम किया करते थे. उन्होंने कहा, ‘उदाहरण के लिए कि जब भाजपा ने (वाजपेयी-आडवाणी) युग के दौरान कभी भी शिवसेना नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल होने की अनुमति नहीं दी थी या तब जब बाला साहेब ठाकरे ने गोपीनाथ मुंडे और केशु भाई पटेल को शिवसेना में शामिल नहीं किया था, जब की दोनों हमारी पार्टी में शामिल होने के इच्छुक थे. इसी तरह की विश्वास और परिपक्वता के साथ गठबंधन चलाए जाते थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा इसे भूल गई है.‘
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बिहार
पिछले लगभग दो दशकों के अधिकांश समयकाल में जद (यू) और भाजपा एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं और नीतीश कुमार ने इस अवधि के एक बड़े भाग में राज्य का नेतृत्व किया है.
2020 के विधानसभा चुनाव के बाद, भाजपा जद (यू) की 43 सीटों के मुकाबले में 74 सीटों के साथ दोनों सहयोगियों में से ज्यादा मजबूत दल बनकर उभरी. लेकिन उसने एनडीए सरकार के नेता के रूप में नीतीश को अपना समर्थन देना जारी रखा.
हालांकि, पिछले कुछ सालों में इस गठबंधन में खटास आ गई है.
जद (यू) के एक वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट को बताया कि उनकी पार्टी के अब ‘कई मुद्दों’ पर मतभेद हैं, जिसमें गठबंधनों के इर्द-गिर्द बने ‘कुछ नियम’ भी शामिल हैं.
उन्होंने कहा, ‘हर पार्टी को अपना विस्तार करने का अधिकार है … लेकिन कुछ नियम ऐसे हैं जिन्हें राजनीति में गठबंधनों का सम्मान करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए. हम उन वर्षों को याद करते हैं जब आडवाणी और (अरुण) जेटली नियमित रूप से नीतीश के साथ बातचीत किया करते थे. वह एक पारिवारिक मामला जैसा था, लेकिन अब चीजें अलग हो गई हैं.’
इस महीने की शुरुआत में, भाजपा ने कथित तौर पर आर.सी.पी. सिंह, जो राज्य में उसके एनडीए सहयोगी जद (यू) के सदस्य हैं, को जुलाई में अपनी पार्टी की सहमति के बिना मंत्री पद हथियाने में मदद करने की कोशिश की थी. इससे पहले, मार्च 2022 में, इसने सीएम नीतीश को कैबिनेट मंत्री और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी), जिसे 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान एनडीए के पाले में लाया गया था, के संस्थापक सदस्य मुकेश साहनी को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने के लिए कहा था.
साल 2021 में, भाजपा ने लोजपा प्रमुख चिराग पासवान, जिन्होंने भाजपा को नीतीश को कमजोर करने में मदद की थी, के बदले लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के टूटे हुए गुट के नेता पशुपति कुमार पारस को नरेंद्र मोदी कैबिनेट में शामिल किया था.
नीतीश कुमार अभी भी 2020 के विधानसभा चुनाव से जुड़े एक अपमान को नहीं भूले हैं, जब भाजपा ने लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान को जद (यू) के खिलाफ वोट-कटवा के रूप में काम करने वाले 137 उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए कथित तौर पर परोक्ष समर्थन दिया था.
इसी ‘चिराग फैक्टर’ के कारण, जद (यू) को लगभग 30 सीटों का नुकसान हुआ, जबकि भाजपा 74 सीटों के साथ 243 सदस्यीय विधानसभा में एनडीए की सबसे बड़ी भागीदार पार्टी बन गई, जबकि जद (यू) को सिर्फ 43 सीटें मिलीं.
यह 2005 के विधानसभा चुनाव से बहुत दूर का आंकड़ा था, जब जद (यू) ने 139 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 88 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 55 सीटों पर जीत हासिल की थी.
इसी तरह, 2004 के लोकसभा चुनाव में, जद (यू) ने बिहार की 26 सीटों पर और भाजपा ने 14 पर चुनाव लड़ा था, लेकिन 2019 में यह अंकगणित पूरी तरह से बदल गया था, जब दोनों दलों ने 17-17 सीटें लड़ी थी.
ध्यान देने की बात है कि साल 2020 में, अरुणाचल प्रदेश में जद (यू) के छह विधायक नीतीश को एक और झटका देते हुए भाजपा में चले गए थे.
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असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश
असम में, भाजपा ने 2020 के बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) चुनाव में अपने पूर्व गठबंधन सहयोगी, बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) का साथ छोड़ते हुए हाग्रामा मोहिलरी के नेतृत्व वाली यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) से हाथ मिलाया और और पूर्ण बहुमत हासिल किया.
मणिपुर में, यह साल 2017 में नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) जैसी छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन में सत्ता में आई. राज्य में बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार बनाने के लिए भाजपा को मिला एनपीपी के चार विधायकों का समर्थन काफी महत्वपूर्ण था.
लेकिन उनके रिश्ते में तब खटास आ गई जब भाजपा ने बीरेन सिंह के साथ चले एक सत्ता संघर्ष के बाद एनपीपी के उपमुख्यमंत्री जॉयकुमार सिंह से उनका विभाग छीन लिया था और एनपीपी ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और असम के सीएम हिमंत बिस्वा सरमा द्वारा हस्तक्षेप किये जाने बाद ये चारों विधायक गठबंधन में लौट आए थे.
हालांकि, 2022 के चुनाव में बीजेपी ने एनपीपी को साथ छोड़ दिया और विधानसभा चुनावों में 32 सीटों पर जीत हासिल करते हुए अपने दम पर बहुमत हासिल किया.
आंध्र प्रदेश में, तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने 2019 के विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा के साथ अपना गठबंधन इस वजह से तोड़ दिया क्योंकि उसे इस बात का डर था कि अल्पसंख्यक वोट उससे छिटक सकते हैं. इन चुनावों में अपमानजनक हार का सामना करने के बाद, तेदेपा को एक और बड़ा झटका तब लगा जब भाजपा ने उसके चार राज्यसभा सांसदों को अपने पाले में ले लिया.
दिप्रिंट के साथ बात करते हुए, बीजेपी प्रवक्ता गुरु प्रकाश पासवान ने कहा कि इन सभी मामलों में बीजेपी द्वारा की गई कार्रवाई बाद में जायज साबित हुई है.
उन्होंने कहा, ‘हमारे पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 24 से अधिक दलों के साथ गठबंधन किया और उन्हें अच्छी तरह से निभाया भी. एनडीए के पास अभी भी कई गठबंधन सहयोगी हैं. कभी-कभी कुछ भ्रम हो जाता है या अनुचित मांगें की जाती हैं, लेकिन हम विश्वासघाती बिल्कुल नहीं हैं.’
ओडिशा : जहां नहीं चला बीजेपी का दांव
ओडिशा के नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली बीजू जनता दल (बीजद) साल 1998 से लेकर 2009 तक भाजपा के साथ गठबंधन में थी. इसके बाद इस क्षेत्रीय पार्टी ने वैचारिक असहमति और विधानसभा चुनावों में सीट-बंटवारे को लेकर हुए विवाद के बाद यह गठबंधन छोड़ दिया था. दोनों दलों ने वह चुनाव अलग-अलग लड़ा, जिसमें बीजेडी ने 147 सदस्यीय विधानसभा में 109 सीटें जीतीं और भाजपा को केवल छह सीटें मिलीं.
उसके बाद से, पटनायक ने ओडिशा की राजनीति पर एक मजबूत पकड़ बनाए रखी है. 2019 के राज्य विधानसभा चुनावों में बीजेडी ने 112 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा को केवल 23 पर जीत मिली.
2000 के विधानसभा चुनावों में, जब भाजपा और बीजद ने एक साथ चुनाव लड़ा था, बीजद ने 68 और भाजपा ने 38 सीटें जीती थीं. 2004 में, विधानसभा में बीजद की विधायक संख्या 61 थी और भाजपा के पास 32 सीटें थीं.
गठबंधन के टूटने के बाद से ही ओडिशा में भाजपा की पैठ काफी कम हो गई हैं, जो इस बात को रेखांकित करता है कि पार्टी को पहले मिली सफलता काफी हद तक उसके तत्कालीन साथी की दम पर हासिल हुई थी.
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