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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतरौद्र शेर हों या पॉलिस्टर का तिरंगा, न्यू इंडिया में राष्ट्र के प्रतीक बेमानी हो रहे हैं

रौद्र शेर हों या पॉलिस्टर का तिरंगा, न्यू इंडिया में राष्ट्र के प्रतीक बेमानी हो रहे हैं

अशोक-स्तंभ पर उत्कीर्ण शेर धर्मचक्र पर प्रतिष्ठित हैं, उनकी ताकत का स्रोत धर्म है. लेकिन मोदी के सेंट्रल विस्टा पर कायम शेर धर्मचक्र पर चढ़े हुए हैं; वे स्वयं ही शक्ति-स्वरुप हैं.

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चूंकि भारत का पहला गणतंत्र अब चोला बदलकर अपने नये अवतार को राह दे रहा है तो फिर उस पहले वाले गणतंत्र के प्रतीक क्योंकर बने रहें, उन्हें भी बदलना ही है. लेकिन, ऐसे किसी बदलाव की कोई आधिकारिक घोषणा हुई तो नहीं है, इसलिए प्रतीकों में हुए बदलाव का दाखिला पिछले दरवाजे से किया जा रहा है, कपट और कुचाल से किया जा रहा है मतलब रूप बिगाड़ देंगे, कहीं कुछ तोड़-मरोड़ देंगे, बन पड़ा तो प्रतीक के किसी चिन्ह को मिटा देंगे या प्रतीक पर अपनी तरफ से कुछ लाद देंगे ! लेकिन इस किस्म की सेंधमारी के पीछे बड़ा स्पष्ट सिद्धांत काम कर रहा है देश की आजादी की लड़ाई ने जिस राष्ट्रवाद को रचा था, जो मान-मूल्य संविधान में दर्ज हैं और जिन ऐतिहासिक स्मृतियों ने हमारी बीसवीं सदी को आकार दिया- उन सबसे हमें अलग किया जा रहा है. इस दूरी से जो खाई पैदा हो रही है से जो समस्या पैदा हो रही है उसे भव्य तमाशों, नये मूल्यों और ताजातरीन यादों के सहारे भरा जा रहा है.

आजादी की पचहत्तरवीं सालगिरह यानी आगामी अमृत-महोत्सव का मकसद हमें स्वतंत्रता की देवी की तरफ हमारे प्रयाण की याद दिलाना नहीं बल्कि उसे भुला देने का है, यह जताने-बताने का कि भाग्यवधू से पूर्व-निश्चित भेंट का वह क्षण कोई और था लेकिन अब एक `नया भारत` बन चुका है और इन दोनों के बीच एक सीमा-रेखा खींची जा चुकी है.


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प्रतीकों के अर्थ में बदलाव

प्रतीकों की जो नयी व्यवस्था गढ़ी जा रही है उसी का एक छोटा सा हिस्सा है नये संसद-भवन के शीर्ष पर स्थापित नया अशोक-स्तंभ. सारनाथ वाले मूल अशोक-स्तंभ और उसके इस नये अवतार के बीच बड़ा जाहिर सा अन्तर है और ऐसा भी नहीं कि यह अन्तर सिर्फ कैमरा एंगल का हो. मूल अशोक-स्तंभ `धर्मप्रवण गणतंत्र` का प्रतीक थाः एक ऐसी राज-व्यवस्था का प्रतीक जिसमें सत्ता अपनी  सोच में धीर और प्रशांत तथा भंगिमा में प्रभावशाली हुआ करती है, एक ऐसी सत्ता जिसका पथ-प्रदर्शन धर्मचक्र से होता है. प्रोफेसर भीखू पारेख ने अपने लेखचूजिंग दि नेशनल सिम्बल ऑफ इंडिया’ में इस प्रतीक-चिन्ह की व्याख्या करते हुए लिखा है: ‘एक-दूसरे की तरफ पीठ किये बैठे, चार दिशाओं को देखते सिंहों को सत्ता के महत्व को दिखाने के लिए चुना गया. माना जाता है कि सत्ता स्थिर होनी चाहिए और यह तभी कामयाब होती है जब वह सत्याचरण के नियमों से निर्दिष्ट हो जिसका प्रतीक धर्मचक्र है.’

लेकिन अशोक-स्तंभ के नये अवतार में शेर जाहिर तौर पर कहीं ज्यादा डरावने, उग्र एवं आक्रामक हैं. ये शेर कहीं ज्यादा हट्टे-कट्टे और ज्यादा चौड़े- सीने वाले हैं. अशोक-स्तंभ का नया संस्करण अपने आकार में भी बहुत बड़ा है — मूल अशोक-स्तंभ 1.6 मीटर का है जबकि उसका नया संस्करण 65 मीटर का है. संस्कृति के इतिहासकार एवं राज्यसभा के सदस्य जवाहर सरकार ने दोनों की तस्वीर ट्वीट किया है: हमारे राष्ट्रीय प्रतीक राजसी अशोक सिंह का अपमान. मूल बाईं ओर वाला है, भव्य, आत्मविश्वास से भरपूर. जो दाहिनी तरफ है वो मोदी का संस्करण है, जिसे नए संसद भवन के ऊपर रखा गया है – गुर्राता, अनावश्यक रूप से आक्रामक और बेडौल. शर्मनाक! इसे तुरंत बदलें!

मेरी चिन्ता का सबब ये नहीं कि अशोक-स्तंभ के नये संस्करण से हमारे राष्ट्रीय प्रतीक-चिन्ह की कोई बेइज्ज़ती होती है या नहीं. मेरी दिलचस्पी ये देखने में है कि नये संस्करण के जरिए किस तरह प्रतीक-चिन्ह के अर्थ में बदलाव हो रहा है. अशोक-स्तंभ पर उत्कीर्ण शेर धर्मचक्र पर प्रतिष्ठित हैं यानी उनकी ताकत का स्रोत धर्म है. लेकिन मोदी के सेंट्रल विस्टा पर कायम शेर धर्मचक्र पर चढ़े हुए हैं; वे स्वयं ही शक्ति-स्वरुप हैं. मूल प्रतीक के शेरों के जैसी उसकी प्रतिकृति के शेर कुछ वैसे ही हैं जैसे कि हनुमान की पहले की तस्वीरों की जगह आजकल की रौद्र हनुमान वाली तस्वीर या यों कहें कि विधि-सम्मत राज-व्यवस्था और बुलडोजरी राजसत्ता के बीच जो अन्तर है वैसा ही अन्तर अशोक-स्तंभ के शेरों और उसकी प्रतिकृति के शेरों के बीच है.

तिरंगा झंडा की संहिता में बदलाव

अशोक-स्तंभ के अर्थ में किये गये इस बदलाव के साथ ही साथ हमारे एक और राष्ट्रीय प्रतीक में बदलाव किया है लेकिन उसपर लोगों की नजर कम गई है. हाल में, सरकार ने फ्लैग कोड ऑफ इंडिया (भारतीय ध्वज संहिता),2002 में बदलाव किया और मशीन से बने पॉलिस्टर के तिरंगे के इस्तेमाल को मंजूरी दी. इस बदलाव के साथ वह अंतिम कड़ी भी टूट गई जो हमारे तिरंगे को महात्मा गांधी से जोड़ती थी. जैसा कि हम सब जानते हैं—गांधीजी ने भारत के राष्ट्रीय झंडे के पूर्ववर्ती रूप में कुछ सुधार किया था और इस सुधार के बाद ही हमारा आज का तिरंगा झंडा बनाया जा सका. झंडे के निर्माण में गांधीजी का एक विशिष्ट योगदान ये है कि उन्होंने इसके बीच चरखा रखा. संविधान-सभा ने चरखा को हटाकर वहां चक्र रखा जिसे अशोक-स्तंभ के धर्मचक्र का आधार लेकर बनाया गया. लेकिन झंडा-संहिता में अभी तक एक गांधीवादी बात चली आ रही थी कि : ‘राष्ट्रीय झंडा हाथ से काते और बुने ऊन /रेशम/खादी के धागों से बनाया जायेगा.’

लेकिन जैसा कि ज्यादातर आचार-संहिताओं के साथ होता आया है, राष्ट्रीय ध्वज संहिता के इस नियम का भी पालन कम उल्लंघन ज्यादा होता रहा. देश में अब चहुंओर प्लास्टिक के बने तिरंगे की भरमार दिखायी देती है जिनमें ज्यादातर तो चीन के बने होते हैं. मिल के कपड़ों से बना तिरंगा झंडा भी बहुतायत में प्रचलित है जो निश्चित ही जीन-संवर्धित बीटी कॉटन के रेशों से बनाया जाता होगा. फिर भी, राष्ट्रीय ध्वज संहिता में नियम के रहते सरकार खादी से बने तिरंगे का इस्तेमाल करने को मजबूर थी. इसके लिए खादी का उपार्जन कर्नाटक ग्रामोद्योग संयुक्त संघ से किया जाता था जिसे राष्ट्रीय झंडे के निर्माण और आपूर्ति के लिए मान्यता मिली हुई है. इसका एक प्रतीकात्मक और भावनात्मक महत्व तो था ही, साथ ही, इस व्यवस्था से हजारों परिवारों को जीविका का जरिया मिला हुआ था. इंडिया हैंडमेड कलेक्टिव ने सिन्थेटिक के राष्ट्रीय झंडे के इस्तेमाल की मंजूरी देने के निमित्त नियम में हुए बदलाव का विरोध भी किया.

लेकिन इस मामले में भी हम कानूनी नुक्तों तथा आर्थिक और व्यावहारिक तकाजों को एक तरफ करते हुए सिर्फ इसी बात पर विचार करें कि संहिता में बदलाव से प्रतीकात्मकता की दुनिया में क्या-क्या घटित हुआ. पिछले कुछ सालों से मोदी सरकार ने महत्वपूर्ण स्थानों पर विशाल रुपाकृति के राष्ट्रीय झंडे लगाने के चलन को बढ़ावा दिया है. दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस चलन की नकल कर ली. इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कभी राष्ट्रीय झंडे को दिल से नहीं अपनाया—ठीक वैसे ही जैसे कि जन-गण-मन उसे रास नहीं आता. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तकरीबन पचास सालों तक अपने नागपुर मुख्यालय में तिरंगा नहीं लगाया.

लेकिन, अब चूंकि इन लोगों ने तिरंगे के तीन रंगों को अपना लिया है तो देश के नये शासक तिरंगे की बुनवट-बिनवट को बदलकर उसके अर्थ में बदलाव करने पर तुले हैं. खादी का अपना एक सौन्दर्यशास्त्र है, यह हमारे राष्ट्रीय झंडे को लोगों के नजदीक ले जाता है. खादी के धागे एक तो रुखड़े होते हैं फिर एक ही कपड़े में कहीं मोटे तो कहीं पतले लेकिन खादी अपनी इस बिनवट में एकदम वास्तविक होती है—ठीक वैसे ही जैसे की आम लोगों की जिन्दगी. खादी अपने इस रूप में उपनिवेशवाद से चले संघर्ष के कठिन अनुभवों की याद दिलाती थी. और, अगर दार्शनिक अर्थों के धरातल पर देखें तो खादी श्रम की महिमा का प्रतीक है. खादी के धागों से बने राष्ट्रीय झंडे के बदले चिकने, चमकीले और सिन्थेटिक विशाल तिरंगे दरअसल उस राष्ट्रवाद की नुमाइंदगी करते हैं जो आपकी आंखों में अंगुली डालकर कहता है- मुझे देखो, मैं ऐसा हूं. सिन्थेटिक के इस झंडे का खादी के उस पुराने झंडे से कुछ वैसा ही नाता है जैसा कि बंगलुरु के आईटी-वीरों का अपने गंवई भाई-बंधुओं से.


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सत्ता के प्रतीकवाद की रचना

अधुनातन प्रधानमंत्री संग्रहालय (पीएम म्यूजियम) की समीक्षा करते हुए दिप्रिन्ट ओपिनियन की संपादक रमा लक्ष्मी ने इस म्यूजियम की रचना-दृष्टि का खुलासा करते हुए लिखा हैः देखने में जो जितना बड़ा वो उतना अच्छा, ढेर सारे मशीनी ताम-झाम और भरपूर चकाचौंध! यही बात मोदी के हाथों रची जा रही सत्ता की नई प्रतीक-व्यवस्था के लिए भी कही जा सकती है. नेशनल वॉर मेमोरियल स्मृतियों में फेरबदल का ही उद्यम है. यह स्वतंत्रता के लिए हुए संग्राम की यादों को नहीं बल्कि स्वतंत्रता के बाद होने वाले संग्रामों को प्रतिष्ठित करता है.  विशालकाय स्टैच्यू ऑफ यूनिटी और आंबेडकर मेमोरियल सत्ता की नई प्रतीक-व्यवस्था का ही हिस्सा हैं और देश के वर्तमान शासकों की इस कोशिश का पता देते हैं कि भारत की आजादी के पहले के वक्तों में जो कुछ महत्वपूर्ण है उसे कैसे वे अपने हितों के अनुकूल साध लें. सेंट्रल विस्टा का उद्घाटन होना अभी शेष है लेकिन हम अभी से अनुमान लगा सकते हैं कि उद्घाटन जब भी होगा— अपने रूप और आकार में विराट होगा और विस्मय-विमुग्ध कर देने की मंशा से होगा.

शायद वाल्टर बेंजामिन का `राजनीति के सौन्दर्यीकरण`(एस्थेटिसाइजेशन ऑफ पॉलिटिक्स) की अवधारणा से यही आशय था. उन्होंने लिखा है कि राजनीति के सौन्दर्यीकरण की अवस्था में : जनता के स्वर को अभिव्यक्ति तो मिलती है लेकिन बिना किसी वास्तविक प्रभाव के. इस अवस्था में कला का इस्तेमाल तमाशे बनाने और दिखाने के लिए होता है, ऐसे तमाशे जो अपनी चकाचौंध से विस्मय-विमुग्ध कर दें और लोग अपनी जिन्दगी के असली हालात भूल जायें.

प्रतीक-रचना के महत्व को मोदी से ज्यादा शायद ही कोई राजनेता समझता हो. उन्हें पता है कि वास्तुशिल्प, मूर्तिशिल्प, पेंटिंग और व्याख्यान का इस्तेमाल कैसे करना है कि लोगों को सत्ता के सांचे में ढाला जा सके. जब कोई चीज बड़े विशाल फलक पर पसार दी जाती है तो वह विस्मय जगाती है, हम अपनी विस्मय-विमुग्धता में रोजमर्रा की जिन्दगी छोटी-छोटी डिटेल को भूल जाते हैं. तिलिस्माती और कारामाती तकनीक के जोर से बनी मशीनों से लदे-फंदे होने पर हमें आगे बढ़ते जाने का अहसास होते रहता है भले ही हमने जिन्दगी की जैसी भी राह चुन ली हो. रंग-रोगन से चमकाये-बनाये चेहरों की चिकनई के आगे असल जिन्दगी का झुर्रियां ढंक जाती हैं. आक्रामकता आत्मविश्वास का एक सामुदायिक बोध गढ़ती है जिसके आगे कहीं बहुत गहरे में बैठी हीनता-ग्रंथि छिप जाती है. शांत-रस की जगह अब रौद्र रस ले रहा है, अभ्यन्तर की ओर चलने वाली यात्रा अब बाहर की तरफ मुड़ रही है और ये सब एक नया राजनीतिक समुदाय बनाने की कवायद है— इस नये राजनीतिक समुदाय का नाम `न्यू इंडिया` है.

(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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