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Monday, 9 December, 2024
होममत-विमतमोदी जी की देन है लोजिक की बजाय मोजिक, यह अग्निपथ नहीं अज्ञानपथ है

मोदी जी की देन है लोजिक की बजाय मोजिक, यह अग्निपथ नहीं अज्ञानपथ है

अग्निपथ को लेकर चल रही मौजूदा बहस में मोजिक से काम लिया जा रहा है वैसे ही जैसे कि नोटबंदी, लॉकडाउन और 2020 के कृषि कानून के मामले में लिया गया था.

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एक होता है लॉजिक. और इन दिनों चल रहा है ‘मोजिक’-इसे पेटेंट किया है हमारे प्रधानमंत्री ने जो उनका विशेष प्रकार का तर्क है. अग्निपथ को लेकर चल रही मौजूदा बहस में मोजिक से काम लिया जा रहा है वैसे ही जैसे कि नोटबंदी, लॉकडाउन और 2020 के कृषि कानून के मामले में लिया गया था.

मोजिक को अमल में लाने के तरीके हैं. इसके लिए, पहले तो हमें ये बताया जाता है कि हमारे सामने बड़ी समस्या आन खड़ी हुई है. यह बड़ी समस्या कुछ भी हो सकती है जैसे कि कालाधन, महामारी या फिर हमारे कृषि मंडियों की दशा-दुर्दशा.

मोजिक को अमल में लाने का दूसरा चरण सीधा-सादा हैः हमसे कहा जाता है कि समस्या चूंकि बहुत बड़ी है सो कुछ ना कुछ करना जरुरी है. अब इससे कोई कैसे इनकार कर सकता है ? फिर आता है तीसरा चरण- प्रधानमंत्री अपने जादुई पिटारे में हाथ डालते हैं और चहुंओर शोर मचता है कि ये देखो, ये रहा समाधान ! समाधान के नाम पर यह नोटबंदी भी हो सकता है, राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन भी हो सकता है या फिर समाधान के नाम पर कृषि-कानून भी हो सकता है. इसके पहले कि आप कायदे से समझ पायें कि दरअसल समाधान के नाम पर लाया क्या गया है, आपको झटपट आखिरी चरण में पहुंचा दिया जाता है कि समाधान आ गया है तो चलिए, आजमा कर देखा जाये, हम वक्त जाया नहीं कर सकते.

मोजिक का जादू इस बात में है वह अपने देखनहार-सुननहार को गच्चा देता है, मोजिक के जादू के चक्कर में पड़ा आदमी तीसरे और चौथे चरण के बीच के अन्तराल को एक झटके में लांघ जाता है. मोजिक अपने जादू के जोर से चिन्ता और उत्साह का एक मिला-जुला परिवेश तैयार करता है और इस परिवेश के मायाजाल में बंधी जनता यह पूछ ही नहीं पाती कि समस्या से निपटने के लिए जो उपाय करने जरुरी हैं क्या ‘समाधान’ बताकर वही उपाय हमारे सामने पेश किये गये हैं ? क्या जो उपाय बताये जा रहे हैं उनसे वह समस्या सुलझ जायेगी जिसे सुलझाने का हमने जी में ठाना है ? आखिर नोटबंदी का उपाय कालाधन को कैसे रोक लेगा ? क्या महामारी से निपटने के लिए इस हद दर्जे का लॉकडाऊन ही एकमात्र विकल्प है ?

मोजिक की ताकत ऐसे सवालों को गोल कर जाने में है- मोजिक के आगे ऐसे सवाल गोल ही नहीं होते बल्कि अलग किस्म के सवालों में बदलकर सिर उठाते हैं, जैसे– क्या आपको समस्या की फिक्र नहीं है? क्या आपको लगता नहीं कि कुछ ना कुछ करना जरुरी है? कोई आदमी कुछ उपाय बता रहा है तो इसमें मीन-मेख क्या निकालना? आखिर पॉजिटिव होकर क्यों नहीं सोचते’? आप नेता पर विश्वास क्यों नहीं करते ? या फिर जरुरी सवालों को शब्दजाल यानी तथ्य, तथ्यों की तोड़-मरोड़ और गप के सहारे ढंक दिया जाता है. हमें कहा जाता है कि जो समाधान सुझाया गया है कि उसके वास्तविक और काल्पनिक फायदों पर बहस-मुबाहिसा कीजिए जिसका समस्या से कोई रिश्ता ही नहीं. इससे पहले कि आप ऐसे झटके से ऊबरकर अपने होश संभाले, बहस खत्म हो जाती है. फिर, हम अगला बड़ा समाधान लेकर फिर से किसी बड़ी समस्या की खोज में चल निकलते हैं.


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समस्या और वह समाधान जिसका नाम `अग्निपथ` है

मोजिक कैसे काम करता है- इसे समझना हो तो ‘अग्निपथ’ सबसे अच्छा उदाहरण है.

पहला चरण: एक सचमुच की समस्या मौजूद है. सशस्त्र बलों के वेतन और पेंशन का बिल बीते सालों में बढ़ता गया. अपने वित्तीय कुप्रबंधन और महामारी के कारण केंद्र सरकार धन की कमी से जूझ रही है. चीन की ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा है. इस नाते, रक्षा, प्रौद्योगिकी तथा हथियारों के मोर्चे पर बेहतर तैयारी कर रखने की जरुरत आन पड़ी है. समस्या को आगे के दिनों के लिए टाला नहीं जा सकता. इसके बाद आता है दूसरा चरण कि: ‘हमें कुछ करने की जरुरत है ’.

इस समस्या के कई संभावित समाधान हो सकते हैं. सरकार चाहे तो राजस्व जुटा और बढ़ा सकती है. सरकार सशस्त्र बलों के सिविलियन तबके पर खर्च होने वाले वेतन और पेंशन के बिल का वजन घटाने के तरीके ढूंढ़ सकती है. एक उपाय यह भी हो सकता है कि सरकार सैनिकों और अधिकारियों का कार्य-काल कम कर दे. लेकिन, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लागत में कमी का सबसे कठोर तरीका चुना. शायद इस तरीके के बारे में किसी बाबू(नौकरशाह) ने मसले पर सेना के सबसे बेहतर मशविरे के उलट मोदीजी को रजामंद कर लिया होगा. और फिर, अपनी शैली के अनुरुप प्रधानमंत्री ने उस कठोर तरीके को सबके हलक में उतार दिया — ना कोई परामर्श, ना कोई होमवर्क और हद तो ये कि तरीका कारगर हैं या नहीं, इसको लेकर कोई पायलट भी नहीं. तो, इस तरह हम तीसरे चरण को बड़ी तेजी से लांघ जाते हैं और फिर चौथा चरण आ जाता है किः ये रहे उपाय, आईए, इनपर अमल करते हैं.

हालांकि, इसमें एक मुश्किल है. जो सरकार अपने को `राष्ट्रवादी` कहती है वह अपने को ऐसे तो नहीं दिखा सकती कि लोगों को लगे, रक्षा पर खर्चा के मामले में ये सरकार अठन्नी के खर्चे में चवन्नी बचा लेना चाहती है. ना ही, ऐसी सरकार ये मान सकती है कि वह सशस्त्र बलों की संख्या में कमी कर रही है.

तो ऐसे में क्या किया जाये? ऐसे में मोजिक के जादू को कुछ और ज्यादा तेज करने की जरुरत होगी.

इस तरह शुरुआत होती है एक बड़े झूठ की. झूठ के इस खेला में होता ये है कि आप असल समस्या से ध्यान भटकाकर उसे किसी मामूली सी समस्या पर टिका देते हैं, जिस समाधान को जादुई बताकर पेश किया गया है उसमें ऐसे उलझाव पैदा किये जाते हैं कि वह किसी को स्पष्ट ही ना हो पाये और इसके साथ ही आपको बड़े ताकतवर ढंग से कुछ ऐसा करना होता है कि लोगों की नजर मामले से हट जाये. पिछले 10 दिनों से हम यही होता देख रहे हैं.

दुष्प्रचार का जो घटाटोप अभी चारो चरफ रचा जा रहा है उसके पीछे मकसद तीन सीधी-सादी सच्चाइयों को छिपाने का है. पहली सच्चाई यह कि सेना में नियमित बहाली का चलन अब खत्म कर दिया गया है- अग्निपथ पहले से चली आ रही नियमित बहाली के चलन का पूरक नहीं बल्कि उसका स्थानापन्न है, वह नियमित बहाली को हटाकर खुद उसकी जगह ले लेगा. यह किसी भी लिहाज से एक दिल-दहलाऊ फैसला है लेकिन किसी भी प्रेस-विज्ञप्ति या मीडिया से संवाद साधने की अन्य कोशिशों में इस बात का जिक्र नहीं आया. दूसरी बात ये कि सेवा(सैन्य) के आकार में कटौती की जा रही है, अभी सेना के पास जो संख्याबल है उसे घटाकर शायद, आधा कर देने की बात है. अभी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में जो हालात बने हुए हैं, उन्हें देखते हुए, यह फैसला लोगों के जेहन में उतार पाना नामुमकिन है. इसलिए, संख्याओं के मामले में हेराफेरी का खेल चल रहा है. और इस सिलसिले की तीसरी बात ये कि जिन क्षेत्रों और समुदायों का सेना में योगदान ऐतिहासिक रूप से ज्यादा संख्या में रहा है उसे कम किया जायेगा, कुछ ऐसा किया जायेगा कि वह घटकर उन क्षेत्रों और समुदायों की जनसख्या के अनुपात में हो जाये. चूंकि ऐसे फैसले से ताकतवर इलाके और मुखर माने जाने वाले समुदायों में क्रोध उबाल मार सकता है इसलिए एक बड़जोर झूठ का सहारा लेते हुए कहा जा रहा है कि: रेजिमेंट में होने वाली भर्ती में कोई बदलाव नहीं किया गया है.

इन फैसलों से ध्यान भटकाने का सबसे अच्छा तरीका है कि ऐरे-गैरे या फिर बनावटी मुद्दों पर भावनाओं से ओत-प्रोत बहसें चलायी जायें. मीडिया अग्निवीरों की कार्य-स्थितियों और पे-पैकेज को लेकर यों बताने में जुटी हुई है मानो रोजगार का एक नया और अतिरिक्त जरिया खुला हो. चार सालों की नौकरी के लिए होने वाले प्रशिक्षण के फायदे हमें यों गिनाये जा रहे हैं मानो सेना असली जॉब-मार्केट के लिए कोई ट्रेनिंग-स्कूल हो.

हमें आश्वस्त करने की नीयत से हर दिन एक नयी घोषणा होती है कि हर अग्निवीर चार साल की सेवा के बाद कोई ना कोई आकर्षक नौकरी हासिल कर लेगा. लेकिन शायद ही कोई ये पूछने के जतन करता है कि भूतपूर्व सैनिकों के साथ जो ऐसे ही वायदे किये गये उन वायदों का क्या हुआ. इस हास्यास्पद सिद्धांत की घुट्टी पिलायी जा रही है इस योजना (अग्निपथ) से युवाओं में देशभक्ति का जज्बा जागेगा क्योंकि उनमें से ज्यादातर सेना में नौकरी कर चुके होंगे. शायद ही कोई ये गिनती करने की जहमत उठाता है कि युवाओं की तादाद का 1 प्रतिशत भी अग्निवीर नहीं बन सकता. हमें आश्वस्त किया जाता है कि अग्निवीर अपनी शूरता के लिए परमवीर चक्र के हकदार होंगे. और इसके साथ ही, हम सब राहत की सांस लेते हैं.


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असल मुद्दे पर बहस बंद है

एक बार समाधान को आकर्षक पैकेज के रुप में सजा लिया गया तो फिर समस्या की खोज होने लगती है. यहां असल बात क्या है? असल बात है कि सेना पर आने वाली लागत में कटौती की जा रही है और उस कटौती को लोगों की नजरों से छिपाया जा रहा. इस नाते हमें बताया जा रहा है कि सेना को प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में दक्ष और जवानी के जोश से भरे नौजवानों की जरूरत है. हां, ये दोनों ही मुद्दे वास्तविक हैं. ये बात भी ठीक है कि करगिल रिव्यू कमेटी रिपोर्ट तथा अन्य रिपोर्टों में लगातार ही इन दो मुद्दों पर ध्यान दिलाया जाता रहा है. लेकिन क्या जो योजना लायी गई वह इन दो मुद्दों से प्रेरित है? क्या करगिल रिव्यू कमिटी की रिपोर्ट में ये सिफारिश की गई है कि ठेके पर चार साल की नौकरी दी जाये? क्या सैन्य सेवाओं में औसत उम्र को कम करने का यही सबसे अच्छा या फिर एकमात्र तरीका है ? अगर आप मैट्रिक पास किये हुए व्यक्ति की सेना में भर्ती करेंगे और चार साल बाद रिटायर कर देंगे तो इससे सेना की प्रौद्योगिक दक्षता कैसे बढ़ जायेगी? एक बार आपने बहस का मुंह ऐसे बंद कर दिया कि अब बहस तो जारी रहे मगर उसमें समस्या पर कोई गंभीर चर्चा ना हो पाये, ये बात आ ही ना पाये कि दरअसल जो समाधान सुझाया गया है उसका समस्या से रिश्ता क्या है, तो फिर, आपके हिस्से में आगे का काम बस कुछ जुमले रचने और उछालने का रह जाता है, जैसे ये कि– क्या आपको सेना के जनरलों पर विश्वास नहीं है? यह तो स्वैच्छिक योजना है, अगर आपको पसंद नहीं तो मत आइए.

आगे एक और बड़ा झूठ इंतजार में खड़ा है. जल्दी ही हमें ये बताया जायेगा कि अग्निवीर बनने के लिए किस बड़ी तादाद में नौजवानों ने अर्जियां दी हैं, मानो नौकरी पाने की बेचैनी में भेजी गई अर्जियां इस बात का सबूत हों कि योजना(अग्निपथ) कितनी अच्छी है ! जल्दी ही हम ये सब भी भूल जायेंगे और हमारे जेहन में ये सवाल चक्कर काटने लगेगा कि देखें, किस मस्जिद के नीचे कौन सा मंदिर दबा है.

झूठ का यह साम्राज्य ही प्रधानमंत्री मोदी की सबसे पायदार विरासत बनने जा रहा है. जब कोई बच्चा देखता है जिन जनरलों के कंधे पर सितारे और सीने पर तमगे सजे हैं वे राष्ट्रीय टेलीविजन पर झूठ बोल रहे हैं तो बच्चे के दिलो-दिमाग पर इसका असर होता है. मोदी सरकार ने हमारा सबसे बड़ा नुकसान लोगों को हिन्दू-मुसलमान के खेमे में बांटकर नहीं किया. मोदी सरकार में हमारा सबसे बड़ा नुकसान ये नहीं कि नैतिक पतन को अब सामान्य दशा मान लिया गया है. मोदी सरकार में सबसे बड़ा नुकसान ये है कि इसके शासन में दैनंदिन तौर पर लोगों के बुद्धि-विवेक से जीने की क्षमता का ह्रास हो रहा है—एक राष्ट्र के रुप में अब हम सच को पहचानने और झूठ को खोज निकालने में नाकाम हो गये हैं.

झूठ का संस्थानीकरण हो जाये तो क्या नतीजे सामने आते हैं इसके बारे में राजनीति विज्ञानी हाना अरन्ट ने लिखा है: ‘अगर हर कोई आपसे रोजाना ही झूठ बोले तो इसका नतीजा ये नहीं कि आप झूठों पर यकीन करने लग जायेंगे, बल्कि कोई भी किसी बात पर विश्वास करने लायक ही नहीं बचेगा.. और जो कौम किसी चीज पर विश्वास नहीं करती वह कुछ तय ही नहीं कर सकती. वह सिर्फ कर्म करने की क्षमता से ही नहीं वंचित नहीं होती बल्कि सोचने और निर्णय लेने की क्षमता से भी वंचित हो जाती है. और, फिर ऐसी कौम के साथ आप जो चाहे सो कर सकते हैं.’

यह अग्निपथ नहीं अज्ञानपथ है.

(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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