सन 1977 में संयुक्त राष्ट्र महासभा का 32वां सत्र था. यहां इतिहास रचा जाने वाला था. मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार सत्ता में थी और वाजपेयी विदेश मंत्री. संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनका पहला संबोधन था और उन्होंने अपनी बात हिंदी में कहने का फैसला किया. पहली बार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी गूंजी.
संयुक्त राष्ट्र में बोलते हुए उन्होंने माना था कि ‘संयुक्त राष्ट्र के लिए वे नए थे’ और ‘उन्हें विशेष हर्ष की अनुभूति हो रही है कि वे पहली बार राष्ट्रों के इस सम्मेलन में भाग ले रहे हैं.’
वह ज़माना था जब दुनिया दो धुरी में बंटी थी और भारत की भूमिका नगण्य थी. भारत में कांग्रेस सरकार को हटाकर जनता पार्टी की सरकार आई थी पर विदेश नीति में अब भी निरंतरता थी.
वे भारत के पहले ग़ैर कांग्रेसी विदेशमंत्री थे पर उनका भाषण उस समय के मुख्य मुद्दों पर केंद्रित था. उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में नस्लभेद, ज़िंबाब्वे में जारी उपनिवेशवाद, साइप्रस में लड़ाई, नामीबिया की अस्थिर स्थिति और एक व्यापक टेस्ट बैन समझौता न हो पाने पर चिंता जताई.
यह भी पढ़ें: ‘गलत पार्टी में सही आदमी’ नहीं, स्वयं एक पार्टी थे अटल बिहारी वाजपेयी
अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि वे संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की दृढ़ आस्था को फिर व्यक्त करना चाहते हैं.
उन्होंने भारत में लगे आपातकाल और लोकतंत्र के हनन पर कहा, ‘जनता सरकार को शासन की बागडोर संभाले केवल 6 महीने हुए हैं फिर भी इतने अल्प समय में हमारी उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं. भारत में मूलभूत मानवाधिकार पुन: प्रतिष्ठित हो गए हैं. जिस भय और आतंक के वातावरण ने हमारे लोगों को घेर लिया था वह अब दूर हो गया है. ऐसे संवैधानिक कदम उठाए जा रहे हैं जिनसे ये सुनिश्चित हो जाए कि लोकतंत्र और बुनियादी आज़ादी का अब फिर कभी हनन नहीं होगा.’
उन्होंने कहा कि ‘भारत की जनता शांतिपूर्ण और वैध तरीके एक सामाजिक आर्थिक क्रांति लाना चाहती है जो लोकतांत्रिक तरीके से रोशन हो, समाजवादी आदर्शों पर आधारित हो और पूरी तरह से नैतिक और आध्यात्मिक विचारों पर आधारित हो.’
गुटनिरपेक्ष सोच
गुट निरपेक्ष आंदोलन के साथ भारत तब गहराई से जुड़ा था. शीत युद्ध का माहौल था. और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत अपारथाइड की मार झेल रहे थे. वाजपेयी का कहना था, ‘क्या हम पूरे मानव समाज वस्तुत: हर नर-नारी और बालक के लिए न्याय और गरिमा की आश्वस्ति देने में प्रयत्नशील हैं. अफ्रीका में चुनौती स्पष्ट है. प्रश्न ये है कि किसी जनता को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ रहने का अधिकार है या रंग भेद में विश्वास रखने वाला अल्पमत किसी विशाल बहुमत पर हमेशा अन्याय और दमन करता रहेगा.’
फिलिस्तीन का सवाल
वहीं भारत ने सीधे-सीधे इज़राइल द्वारा अरब भूमि पर कब्ज़े का विरोध किया और कहा कि फिलिस्तीन के अरब लोगों को, जिन्हें ज़ोर ज़बरदस्ती से अपने घर-बार से बेदखल किया गया है, उनको अपने घर लौटने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता.
वाजपेयी ने साथ ही कहा, ‘हाल में इज़राइल ने वेस्ट बैंक और गाज़ा में नई बस्तियां बसाकर अधिकृत क्षेत्रों में जनसंख्या परिवर्तन करने का जो प्रयत्न किया है, संयुक्त राष्ट्र को उसे पूरी तरह अस्वीकार और रद्द कर देना चाहिए. यदि इन समस्याओं का संतोषजनक और शीघ्र ही समाधान नहीं होता तो इसके दुष्परिणाम इस क्षेत्र के बाहर भी फैल सकते हैं.’
वसुधैव कुटुम्बकम
वाजपेयी ने भारत की सदियों पुरानी सोच की ओर ध्यान आकृष्ट किया और कहा, ‘वसुधैव कुटुंबकम की परिकल्पना बहुत पुरानी है. भारत में सदा से हमारा इस धारणा में विश्वास रहा है कि सारा संसार एक परिवार है. अनेकानेक प्रयत्नों और कष्टों के बाद संयुक्त राष्ट्र के रूप में इस स्वप्न के साकार होने की संभावना है, जिसके सदस्य लगभग पूरी दुनिया से आते हैं.’
वाजपेयी ने कहा कि भारत सब देशों से मैत्री चाहता है और किसी पर प्रभुत्व स्थापित करना नहीं चाहता. भारत ना तो परमाणु शक्ति है और न बनना ही चाहता है.
अपने भाषण को वाजपेयी ने इन शब्दों में समाप्त किया, ‘मैं भारत की ओर से इस महासभा को आश्वासन देना चाहता हूं कि हम एक विश्व के आदर्शों की प्राप्ति और मानव कल्याण तथा उसके गौरव के लिए त्याग और बलिदान की बेला में कभी पीछे नहीं रहेंगे. जय जगत! धन्यवाद.’
लगभग 41 साल पहले एक अंतरराष्ट्रीय पटल पर हिंदी में भाषण देकर वाजपेयी ने भारत के आत्मविश्वास को नई ऊंचाई दी. इसका महत्व इस बात से भी बढ़ जाता है कि भारत कुछ ही समय पहले आपातकाल का दंश झेल चुका था और लोकतंत्र के हनन ने इस युवा देश को हिला कर रख दिया था.
आज जब आप संयुक्त राष्ट्र के भाषणों को सुनते हैं तो पाकिस्तान पर भाषण का बड़ा हिस्सा केंद्रित होता है, पर उस भाषण में पाकिस्तान का ज़िक्र अन्य पड़ोसी देशों के साथ आया- उसको कोई खास तवज्जो नहीं दी गई.
(यह लेख दिप्रिंट पर 4 अक्टूबर, 2018 को छप चुका है. इसे आज पुन: प्रकाशित किया जा रहा है.)