गूगल पर लोग खबरें खोजते हैं लेकिन इन दिनों गूगल खुद खबर बना हुआ है.
गूगल में जाति को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है और इस विवाद से अमेरिकी टेक कंपनियों में डायवर्सिटी यानी विविधता का सवाल फिर से सामने आ गया है. वैसे तो ताजा विवाद में गूगल के सिर्फ भारतीय और हिंदू कर्मचारी शामिल रहे लेकिन गूगल के स्टाफ में डायवर्सिटी की पड़ताल करने से कुछ अन्य पहलू भी सामने आ रहे हैं.
मिसाल के तौर पर, ये नजर आता है कि गूगल के स्टाफ में अमेरिका के दो सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय- अश्वेत और हिस्पैनिक्स यानी लैटिनो- की संख्या उनकी आबादी की तुलना में काफी कम है. वहीं गूगल में एशियाई, जिनमें बड़ी संख्या भारतीयों की है, इतने हैं कि वे कंपनी की डायवर्सिटी संबंधी पहल को न सिर्फ प्रभावित कर सकते हैं, बल्कि उसे रोक भी सकते हैं.
गूगल में विवाद इस साल के अप्रैल में हुआ. गूगल के कर्मचारियों को विविधता और समाज के बारे में जागरूक करने के लिए दलित एक्टिविस्ट और इक्वैलिटी लैब नाम की संस्था की संस्थापक तेनमोई सुंदरराजन को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया. ये आयोजन दलित हिस्ट्री मंथ के मौके पर रखा गया था. इस भाषण के होने की सूचना मिलते ही गूगल के कुछ कर्मचारी विरोध करने लगे और सात कर्मचारियों ने बाकायदा मेल लिखकर विरोध किया.
कार्यक्रम की आयोजक तनुजा गुप्ता ने इस बारे में दक्षिण एशियाई और मुख्य तौर पर भारतीय कर्मचारियों की राय जानने के लिए इस मामले को इनके मेल ग्रुप में डाला, जिसमें लगभग 8,000 दक्षिण एशियाई कर्मचारी हैं. उन्होंने पाया कि ज्यादातर प्रतिक्रियाएं आयोजन के खिलाफ में आ रही हैं. कर्मचारियों ने कहा कि ये ‘हमारे लिए नुकसानदेह’ होगा और ‘जाति के बारे में चर्चा करने से हमारी जिंदगी को खतरा हो सकता है!’
आखिरकार गूगल ने इस कार्यक्रम को रद्द कर दिया. गूगल की चीफ डायवर्सिटी अफसर मेलोनी पार्कर ने बताया कि कई कर्मचारियों ने कहा कि इस तरह उन्हें बदनाम किया जाएगा. उन्होंने ये भी कहा कि इस वजह से कर्मचारी चिंतित हैं और उनके बीच बहसबाजी हो रही है.
यह भी पढ़ें: मोदी के आठ साल में नया भारत उभरा है जो आत्मविश्वास को खिताब की तरह पहनता है
डायवर्सिटी और टेक कंपनियां
इस विवाद से ये बात साबित हो गई कि गूगल में जो लोग जाति पर चर्चा से बचना चाहते थे, उनकी संख्या इतनी है और वे इतने असरदार हैं कि जातिवाद पर चर्चा करने आ रही सामाजिक कार्यकर्ता के तय कार्यक्रम को रद्द करवा सकते हैं. वह भी ऐसा कार्यक्रम जिसमें कंपनी शामिल थी और जिसमें सीमित लोगों को ही हिस्सा लेना था. जाति और जातिवाद की चर्चा से बचना मुख्य रूप से ऊंची मानी गई जातियों की समस्या है. इसी आधार पर वे जाति जनगणना का भी अक्सर ये कहकर विरोध करते हैं कि जातियों के आंकड़े जुटाने से जातिवाद बढ़ जाएगा. ऐसे लोगों के लिए समस्या जाति या जातिवाद नहीं, जातिवाद का दिख जाना या उस पर चर्चा होना है.
हमें ये नहीं बताया गया है कि गूगल में भारतीय मूल के या हिंदू धर्म मानने वाले कितने लोग हैं और वे किस जाति समूह से हैं. अपने कर्मचारियों के बारे में ये वाली जानकारी गूगल सार्वजनिक नहीं करता. लेकिन अपनी डायवर्सिटी रिपोर्ट में गूगल ने ऐसा काफी कुछ बताया है, जिससे उसके वर्कफोर्स के बारे में दिलचस्प जानकारियां मिलती हैं.
गूगल की डायवर्सिटी रिपोर्ट 2022 बताती है कि अमेरिका में गूगल के 48.3 प्रतिशत कर्मचारी श्वेत यानी ह्वाइट हैं. कर्मचारियों का दूसरा सबसे बड़ा समूह एशियाई लोगों का है, जिनकी संख्या 43.2 प्रतिशत है. कर्मचारियों में 6.9 प्रतिशत ब्लैक, 5.3 प्रतिशत लैटिनो यानी हिस्पैनिक और 0.8 प्रतिशत मूलनिवासी अमेरिकी हैं.
देखें गूगल डायवर्सिटी रिपोर्ट अपने कर्मचारियों और नई नौकरियों पर रखे गए लोगों की पृष्ठभूमि के बारे में क्या बताती है.
ये आंकड़ा दिखा रहा है कि गूगल के कर्मचारियों में ब्लैक और लैटिनो लोग अपनी आबादी से काफी कम संख्या में हैं. अमेरिका की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक वहां 18.7 प्रतिशत लैटिनो और 12.1 प्रतिशत ब्लैक हैं. अमेरिका में एशियाई आबादी सिर्फ 6 फीसदी है. छह फीसदी आबादी वाले समुदाय का गूगल के 43 फीसदी से ज्यादा पदों पर होना यानी सात गुना ज्यादा हिस्सेदारी होना बता रहा है कि गूगल में डायवर्सिटी की स्थिति ठीक नहीं है.
लेकिन क्या ऐसा सिर्फ गूगल में है? दूसरी बड़ी टेक कंपनी फेसबुक, जिसका नया नाम मेटा है, की डायवर्सिटी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में कंपनी के 39.1 प्रतिशत कर्मचारी श्वेत हैं. यहां भी एशियाई कर्मचारी बहुत ज्यादा 45.7 प्रतिशत हैं जबकि ब्लैक कर्मचारी सिर्फ 4.4 प्रतिशत हैं और उनमें भी ज्यादातर नॉन टेक्निकल पदों पर हैं. फेसबुक में लैटिनो कर्मचारियों की संख्या केवल 6.5 प्रतिशत है.
माइक्रोसॉफ्ट की डायवर्सिटी रिपोर्ट बताती है कि इसके अमेरिकी ऑफिसों में सिर्फ 5.7 प्रतिशत कर्मचारी ब्लैक हैं जबकि 7 प्रतिशत कर्मचारी लैटिनो हैं. माइक्रोसॉफ्ट में 35.4 प्रतिशत कर्मचारी एशियाई हैं जो गूगल और फेसबुक की तुलना में तो कम हैं, पर अपनी आबादी से फिर भी 6 गुना ज्यादा हैं. इंटेल कंपनी में भी ब्लैक और लैटिनो कर्मचारी काफी कम हैं. एप्पल कंपनी की डायवर्सिटी रिपोर्ट अपेक्षाकृत संतुलित है, जहां 9.4 प्रतिशत ब्लैक और 14.8 प्रतिशत लैटिनो हैं.
यह भी पढ़ें: रेस्तरां जाना कम, कपड़े भी कम खरीदे लेकिन नॉन-वेज खूब खाया: कोविड ने भारतीयों के खर्च करने की आदतों को कैसे बदला
डायवर्सिटी के नाम पर अमेरिका में चल क्या रहा है?
टेक कंपनियों में एशियाई लोगों की बहुलता और ब्लैक तथा लैटिनो लोगों का कम होना काफी समय से अमेरिका में चर्चा में है. इस असंतुलन को वहां के अल्पसंख्यक संगठन काफी समय से देख रहे हैं और विरोध में आवाज उठा रहे हैं. ब्लैक राइट्स एक्टिविस्ट रेवरेंड जेसी जैक्सन ने 1999 में ही इस मुद्दे को उठाया था और उनके इस हस्तक्षेप की काफी चर्चा भी हुई थी. उन्होंने कहा था कि टेक कंपनियां दूसरे देशों से सस्ते कर्मचारी लाकर अमेरिकी अल्पसंख्यकों का हक मार रही है.
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि टेक कंपनियां अपनी डायवर्सिटी रिपोर्ट जारी करे. इस आंदोलन के दबाव में 2014 में जाकर गूगल ने अपनी पहली डायवर्सिटी रिपोर्ट जारी की. लंबे समय तक टालने के बाद फेसबुक भी अब डायवर्सिटी रिपोर्ट छापता है. डायवर्सिटी का दबाव इतना है कि माइक्रोसॉफ्ट ने बकायदा ये वादा किया है कि वह 2025 तक अपनी कंपनी के सीनियर पदों पर ब्लैक्स और लैटिनों लोगों की संख्या दोगुनी कर लेगा.
सवाल उठता है कि जिस अमेरिका में साठ के दशक से डायवर्सिटी की इतनी बड़ी चर्चा है, वहां टेक कंपनियों में अमेरिकी अल्पसंख्यकों को लेकर इतना असंतुलन कैसे और एशियाई लोगों की वहां इतनी बड़ी संख्या कैसे आई? इसके पीछे एक तर्क ये दिया जा रहा है कि अमेरिका में नस्लवाद को श्वेत और अश्वेत के फ्रेम में देखा जाता है. श्वेत लोगों की संख्या अगर बहुत ज्यादा नहीं है, तो किसी कंपनी या संस्था को विविधतापूर्ण मान लिया जाता है. श्वेत-अश्वेत के सीधे हिसाब से देखें तो इन टेक कंपनियों में डायवर्सिटी है.
लेकिन जाति व्यवस्था की ही जगह नस्लवाद में भी क्रमिक ऊंच नीच की व्यवस्था होती है. इस लिहाज से एशियाई भूरे लोग वहां मिड-कास्ट या मिडिल कास्ट हैं. ऐसा संभव है कि कंपनियों ने डायवर्सिटी का लक्ष्य पूरा करने के लिए ब्लैक या लैटिनो लोगों की जगह एशियाई लोगों को ले लिया क्योंकि खासकर ब्लैक लोगों का वहां संघर्ष का इतिहास रहा है और उनके संघर्ष के कारण ही डायवर्सिटी का विचार आया. संघर्षशील लोगों को कंपनी में रखने में मैनेजर्स असहज महसूस करते होंगे. वहीं एशियाई लोग उन्हें भाते होंगे क्योंकि वे चुपचाप अच्छे लोगों की तरह नौकरी करते होंगे.
इस बात को मशहूर लेखिका इजाबेल विलकर्सन ने अपनी किताब ‘कास्ट, द ऑरिजिन्स ऑफ आवर डिसकंटेंट ‘ में लिखा है. उनका आकलन है कि ब्राउन लोगों को श्वेत लोग साथी बना लेंगे और अफर्मेटिव एक्शन के जो पद ब्लैक्स को मिलने थे, वे ब्राउन लोगों के पास चले जाएंगे.
अमेरिकी टेक कंपनियों में यही हो रहा है. भारतीय और चीनी लोग इसके लाभार्थी हैं. बुरी बात ये है कि भारतीय लोग इसे ढंग से पचा नहीं रहे हैं और खुद को जातीय भेदभाव का समर्थक बताकर अपने लिए गड्ढा खोद रहे हैं.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: RBI की ब्याज दरों में तेज वृद्धि से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए क्या संकेत है