नई दिल्ली: चटक लाल लिपस्टिक, चेहरे पर आती झुर्रियां, आंखों में सूनापन लेकिन बातचीत के दौरान कभी गुस्सा तो डबडबाती आंखें. दिल्ली के जीबी रोड पर अधेड़ होती सेक्स वर्करों के हालात दिन-बा-दिन खराब हो रहे हैं. एक ओर उन्हें ग्राहक नहीं मिल रहे वहीं दूसरी तरफ पुलिस का अत्याचार बढ़ता जा रहा है. कभी भी पुलिस वाले कोठों पर आ जाते हैं. किसी भी बात पर जेल में डालने की धमकी देते हैं.
दिल्ली के जीबी रोड पर रहने वाली सविता के आंसूं थम नहीं रहे थे. बातचीत के दौरान कभी कभी सविता के चेहरे पर गुस्सा, दर्द साफ झलक रहा था. सविता बताती हैं, ‘आठ साल पहले मैं यहां लड़कियों के लिए ग्राहक लेकर आया करती थी. मुझे एक ग्राहक लाने के 100 रुपए मिला करते थे.’
‘एक दिन किसी ग्राहक ने मुझे नकली नोट दिया. मुझे मालूम नहीं था और इसी आरोप में पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया. मुझे ढाई महीने जेल में रखा गया. पुलिस वाले काफी परेशान किया करते थे, जेल में मुझे मारा पीटा जाता था. वो मुझ से जेल में बने टॉयलेट साफ कराया करते थे.’
सविता की उम्र 55 वर्ष है .
सविता ने दिप्रिंट से बातचीत के दौरान अपनी कई आपबीती याद करते हुए कहा, ‘पुलिस ने साजिश रच कर मुझे इस मामले में फंसाया है.’
वो कहती हैं, ‘उस वक्त जीबी रोड पर एक नया पुलिस वाला आया था जो मुझे धमकियां देता था और कहता था कि किसी ने तुझे जेल नहीं भेजा है ना, देखना मैं ही तुझे जेल भेजूंगा.’
वो कहती हैं, ‘मेरा यह केस दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में चल रहा है. वहां मैंने एक प्राइवेट वकील किया हुआ है जो मुझसे 300 से 500 रुपए लेता है. इतने सालों से केस चला ही रहा है. वकील मुझसे केस खत्म करने के लिए 5 हजार रुपए मांग रहा है. यहां मेरे पास खाना खाने के लिए पैसे नहीं है. मेरे पैरों में सूजन रहती है, मैं अपना इलाज नहीं करा पा रही हूं. ऐसे में मुझे कोर्ट के चक्कर काटने पड़ रहे हैं.’
सविता डायबिटिज की मरीज हैं जिसकी वजह से उनके पैरों में लगातार सूजन रहती है.
कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण देश की लाखों को सेक्स वर्कर्स का काम ठप हो गया. इसकी वजह से उन्हें भूखमरी तक का सामना करना पड़ा. यहां तक इससे वह कर्ज के बोझ तले भी दब गई हैं. जिससे वो अभी तक उभर नहीं पाई हैं.
बता दें कि, नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार, भारत में कुल 7.76 लाख सेक्स वर्कर्स हैं जिनमें से 1.3 लाख से ज्यादा दिल्ली, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल से हैं.
सविता दिप्रिंट से बात करते हुए कहती हैं कि जीबी रोड पर अक्सर पुलिस वाले पैसे लेने आ जाते हैं. वो पैसे लेने के लिए किसी भी समय आ जाते हैं. वो हमसे 200- 300 रुपए मांगते हैं. कई बार वो हमारे ग्राहकों को भड़का कर या डरा धमका कर भगा देते हैं.
वो बताती हैं कि जीबी रोड की कई महिलाएं जेल में बंद हैं जिनकी कोई सुनवाई करने वाला नहीं है. यह सभी बहुत ही लाचार मजबूर हैं. पुलिस वाले यहां बहुत परेशान करते हैं. सविता गुस्से में आकर कहती हैं, ‘यह सभी पुलिस वाले खाने (रिश्वत लेने) वाले हैं’
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान पुलिस को कड़े निर्देश दिए हैं. कोर्ट ने कहा है कि जब कोई सेक्स वर्कर आपराधिक, यौन या किसी और अपराध की शिकायत करती है, तो पुलिस को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और कानून के अनुसार काम करना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस से कहा कि यौनकर्मियों की सहमति के खिलाफ दखलअंदाजी या आपराधिक कार्रवाई न करें. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का देशभर की सेक्स वर्कर्स ने स्वागत करते हुए इसे ऐतिहासिक बताया है.
दरअसल, देश भर में सेक्स वर्कर्स पुलिस द्वारा अत्याचारों का आरोप लगाती रही हैं.
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पुलिस का अत्यचार
पुलिस का अत्यचारों पर सेक्स वर्कर्स संगठनों ने मिलकर साल 2014 में देश भर में तीन हजार सेक्स वर्कर्स पर सर्वे किया था जिसके मुताबिक 1431 यानी 50 फीसदी महिलाओं ने पुलिस द्वारा अपमानजनक भाषा का अनुभव किया है.
वहीं, 1011 महिलाओं यानी 35 प्रतिशत ने माना की इस दौरान उन्हें पुलिस ने पीटा, बाल खींचे और बेल्ट से मारा है.
1052 यानी 37 फीसदी सेक्स वर्कर्स ने स्वीकार किया है कि पुलिस ने उन्हें धमकाया है.
पुलिस ने 569 यानी 20 प्रतिशत सेक्स वर्कर्स को रिश्वत देने के लिए मजबूर किया है.
सेक्स वर्कर्स संगठनों द्वारा जारी की गई एक और रिपोर्ट में पुलिस पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं. उनका कहना है कि समस्या की असली जड़ अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 (ITPA) है जिसमें उन्हें पहले ही ‘अनैतिक’ और ‘तस्कर’ मान लिया गया है. उनका कहना है कि जिस तरह से पुलिस उनके खिलाफ हिंसा करती है उससे समाज के बाकी सदस्यों को भी ऐसा करने में शह मिलती है.
सेक्स वर्कर्स के खिलाफ कानून प्रवर्तन तंत्र का गलत इस्तेमाल किया जाता रहा है. पुलिस अक्सर हिंसा, जुर्माना और जबरन वसूली को सही साबित करने के लिए कानून का दुरुपयोग करती है जिसकी वजह से सेक्स वर्कर्स की कानून के प्रति उम्मीदें कम हो जाती है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि रेड के दौरान सेक्स वर्कर्स के साथ खराब व्यवहार किया जाता है.
छापेमारी के दौरान तिरस्कार, वर्बल और शारीरक प्रताड़ना आम बात है.
सेक्स वर्कर्स का आरोप है कि कुछ मामलों में पुलिस हिरासत में बंधुआ मजदूरी और उत्पीड़न करती है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि कोर्ट में पेशी के समय सेक्स वर्कर्स को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है. उनका मानना है कि उन्हें किसी भी कानूनी प्रक्रिया से पहले ही अपराधी मान लिया जाता है. यहां तक कि कोर्ट में उन्हें अपनी बात रखने तक का अधिकार नहीं है. इनका यह भी आरोप है कि इन्हें अपने ‘अपराध’ को स्वीकार करने के लिए भी मजबूर किया जाता है.
सेक्स वर्कर्स संगठनों का दावा है कि इस कार्य से बचाई गई महिलाओं को पुनर्वास घरों में यौन सेवाएं देने के लिए भी मजबूर किया जाता है. यहां तक कि जेल के दौरान आजीविका के नुकसान की वजह से उन्हें वहां से वापस आने के बाद कर्ज लेकर अपना गुजारा करना पड़ता है. रिहाई के बाद सेक्स वर्कर्स पर कोठे मालिकों के दबाव ज्यादा बढ़ जाता है क्योंकि आगे की छापेमारी को रोकने के लिए उन्होंने पुलिस को पैसे दिए होते हैं. इसकी वजह से सेक्स वर्कर्स के आने जाने और हेल्थ चेकअप में भी कटौती होने लगती है.
एससी द्वारा गठित कमिटी के पैनल में मौजूद अधिवक्ता तृप्ति टंडन ने दिप्रिंट से कहा, ‘सबसे पहले तो सरकारों को अदालत के उस फैसले को लागू करना चाहिए जिसमें उसने कहा कि नारी निकेतन या महिला गृह जैसी संस्थानों का सर्वे होना चाहिए और यहां जो एडल्ट है या जिन्हें जबरदस्ती रखा गया है उन्हें रिहा किया जाए.’
वो आगे कहती हैं कि कोर्ट ने कहा है कि पुलिस का सेंसिटाइजेशन होना चाहिए. अब यह किस को जिम्मेदारी दी जाएगी वो देखना होगा.
टंडन ने दिप्रिंट से कहा, ‘नेशनल और स्टेट लेवल पर लीगल सर्विस अथॉरिटी को अदालत ने जिम्मेदारी सौंपी है कि वो सेक्स वर्कर्स के कानूनी अधिकारों लेने में मदद करें क्योंकि ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि जब पुलिस इन महिलाओं को पकड़ती है तो बाकी सबको वकील मिल जाता हैं लेकिन इन सेक्स वर्कर्स को नहीं मिल पाते हैं.’
टंडन कहती हैं, ‘हमारी कानूनू प्रक्रिया में सेक्स वर्कर्स को ऑबजेक्ट की तरह देखा जाता है. एक एडल्ट जो अपनी बात रख सकता है. अपने अधिकारों की बात कर सकता है उसको सुना ही नहीं जाता है. इसीलिए कोर्ट का फैसला अहम हो जाता है कि पुलिस अपने दायरे में रह कर काम करे.’
वो आगे बताती हैं, ‘कानून में कुछ संरक्षण मिला हुआ है जिसमें इन महिलाओं को तीन हफ्तों से ज्यादा जेल में नहीं रखा जा सकता है और उस मामले जांच करनी होगी और फिर उसपर सुनवाई करनी होगी. पुलिस सेक्स वर्कर्स से पूछ कर उसे रिहेब्लिटेशन सेंटर भेज सकती थी लेकिन कानून का पालन नहीं किया जा रहा था. अब एससी ने स्पष्ट कर दिया है कि कानून का पालन करना होगा और साथ ही आर्टिकल 21 को ध्यान में रखना होगा.’
मीडिया को निर्देश
कोर्ट ने मीडिया को लेकर भी कड़े निर्देश जारी किए हैं. एससी ने कहा है कि छापेमारी की रिपोर्ट करते समय मीडिया को इन महिलाओं तस्वीरें नहीं प्रकाशित करनी चाहिए या उनकी पहचान का खुलासा नहीं करना चाहिए.
कोर्ट ने इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 354 सी के तहत अपराध को लागू किए जाने की बात कही है. अदालत ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने के लिए कहा है.
दरअसल, सेक्स वर्कर्स के संगठनों का आरोप है कि छापेमारी के दौरान पुलिस के साथ मीडिया भी मौजूद रहता है. उनका का कहना है कि इस दौरान मीडिया का गलत इस्तेमाल किया जाता है. पुलिस और मीडिया मिल कर सेक्सवर्कर्स को अपमानित करते हैं और छापेमारी को सनसनीखेज खबरें बनाते हैं. इससे हमारी गोपनीयता का उल्लंघन होता है.
कई स्टडी में पाया गया है कि भारतीय मीडिया ने सेक्स वेर्कर्स पर स्टीरियोटाइप रिपोर्टिंग की है.
इसने ज्यादातर रिपोर्टिंग करते समय हमेशा की तरह सेक्स वर्कर्स के लिए पक्षपाती रवैये को अपनाया है. साथ ही मीडिया ने सेक्स वर्कर्स जो ‘वास्तव में पीड़ित’ हैं उनके प्रति अपने रवैये को बदलने के लिए कोई कोशिश नहीं की है.
गुजरात के सूरत की 57 साल की सेक्स वर्कर और ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स की कार्यकर्ता, हमीदा (बदला हुआ नाम) ने दिप्रिंट से कहा, ‘कोर्ट के इस फैसले से हम बहुत खुश हैं. छापेमारी के दौरान मीडिया वाले हमारा फोटो ले लेते हैं और वो गलत गलत बातें हमारे बारे में लिखते हैं. मैं बहुत गरीब परिवार से हूं और अपने परिवार को पालने के लिए मुझे इस काम में आना पड़ा. मेरी एक ही बेटी है उसकी मैंने अच्छे और बड़े परिवार में शादी की है. मैं क्या काम करती हूं उसके ससूराल वालों को नहीं मालूम है. कोर्ट ने फैसला सुना कर अच्छा किया अगर मैं कभी छापेमारी के दौरान पकड़ी गई और मेरी मीडिया में फोटो आ गई तो आप ही सोचिए मेरी बेटी की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी. उसकी शादी टूट जाएगी.’
रेड लाइट एरिया में काम कर रही ऐसी हजारों महिलाएं हैं जो अपनी पहचान छुपाकर सेक्स वर्क कर रही हैं. ज्यादातर मामलों में देखा गया है इन महिलाओं की पहचान और काम सर्वजनिक होते ही इनको सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. साथ ही इनके बच्चों को भी शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक बेदखली को झेलना पड़ता है.
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सेक्स वर्कर्स की क्या है आगे की रणनीति
सेक्स वर्कर्स चाहती हैं कि उनके पेशे को अपराध से मुक्त किया जाए. वो अपने लिए श्रमिक अधिकार समेत सेक्स वर्क को नए असंगठित क्षेत्र के रूप में शामिल करने की मांग कर रही हैं. देशभर में सेक्स वर्कर्स के नेटवर्क और गैर सरकार संस्था दुरबार महिला समन्वय समिति की पूर्व सचिव और पैनल में मौजूद सदस्य भारती डे कहती हैं, ‘2011 में जो पैनल बना था उसमें तीन विषयों पर काम हुआ है. पहला एंटी ट्रैफिकिंग, दूसरा इज्जत और तीसरा रिहेब्लिटेशन. हमने इस पर पांच साल काम किया और सेल्फ रेगुलेटरी बॉर्ड के बारे में सुप्रीम कोर्ट के सामने सिफारिश रखी. हमने उसे बताया कि अगर हमारे एरिया में कोई लड़की ट्रैफिक हो कर आई है तो उसके बारे में बाहर के लोगों के मुकाबले हमारी कम्यूनिटी को पहले पता चल जाता है. इस के जरिए हम लड़कियों को ट्रैफिकिंग से बचा सकते हैं. इस पर अदालत ने भी अपनी सहमति जताई है और कहा है कि यह हर राज्य में इसे लागू किया जाना चाहिए.’
जानकारी के लिए बता दें कि सेल्फ रेगुलेटरी बोर्ड, एक समुदाय नेतृत्व वाली बॉडी है जो फिलहाल पूरे पश्चिम बंगाल में 30 सेक्स वर्क साइट्स में एंटी-ट्रैफिकिंग से निपटने का काम करती है. दुरबार का दावा है कि उसने साल 2019 तक कुल 1090 मामलों को सुलझाया है जिसमें अंडर एज-861, अनिच्छुक – 229 के मामले शामिल हैं. साथ ही संगठन ने इन महिलाओं को घर लौटने या दूसरी नौकरी खोजने में उनकी मदद की है.
भारती डे दिप्रिंट से आगे कहती हैं कि अभी तो हमारे काम को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ बात रखी है. बहुत से लोग हमें अदालत के फैसले के लिए बधाई दे रहे हैं लेकिन सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के बातें रखने से सेक्स वर्कर्स के प्रति लोगों के नजरिए में बदलाव नहीं आ सकता है बल्कि यह लागू होना चाहिए तभी कुछ तब्दीली देखने को मिलेगी. हम चाहते हैं कि जिस तरह से सेक्स वर्कर्स के लिए आईटीपीए और बाकी कानून लागू किए गए हैं उसी तरह से सुप्रीम कोर्ट की बातों को कानूनी रूप दिया जाए और वो लागू हों.
उन्होंने कहा, ‘हमें इस लड़ाई को कैसे आगे ले जाना है इस पर हम सेक्स वर्कर्स के संगठन मिलकर बहुत जल्द बैठक करेंगे और आगे की रणनीति तय करेंगे.’
भारती डे कहती हैं, ‘मैंने सेल्फ रेगुलेटरी बॉर्ड का काम करते हुए देखा है कि जो 97 प्रतिशत नाबालिग लड़कियां भी अपनी मर्जी से इस पेशे में आती हैं क्योंकि वो ज्यादातर गांव से आई होती है और गरीबी झेल रही होती हैं. यह तो सबसे पहले देखा जाना चाहिए कि वो इस पेशे में ना आए उसके लिए कुछ प्रबंध किए जाएं.’
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कोर्ट ने क्या कहा
संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 19 मई को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सेक्स वर्कर्स के पुनर्वास पर 2011 में अदालत द्वारा नियुक्त एक पैनल की कुछ सिफारिशों को ‘लागू’ और ‘कड़ाई से पालन’ करने के लिए कहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने सेक्स वर्क को ‘पेशे के रूप में मान्यता दी है. साथ अदालत ने कहा है कि इन महिलाओं को कानून के तहत सम्मान और समान सुरक्षा के हकदार है.
एससी ने फैसला में कहा है कि एक सेक्स वर्कर के बच्चे को सिर्फ इस आधार पर मां से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि वह सेक्स वर्क में शामिल है. साथ ही कोर्ट ने यौन उत्पीड़न की शिकार किसी भी सेक्स वर्कर को तत्काल मेडिकल सहायता देने का आदेश दिया है.
कोर्ट ने राज्यों को सभी रिहेब्लिटेशन सेंटर्स का सर्वे करने का निर्देश दिया है ताकि उनकी इच्छा के खिलाफ हिरासत में लिए गई वयस्क महिलाओं के मामलों की समीक्षा की जा सके और रिहा कराया जा सके.
अगर केंद्र सरकार एससी के निर्देशों को मान लेती है तो उससे सेक्सवर्कर्स को समान कानूनी सुरक्षा मिल जाएगी. साथ ही कोई सेक्स वर्कर्स किसी भी आपराधिक या यौन अपराध की शिकायत करेगी तो पुलिस को इस पर गंभीरता से कार्रवाई करनी होगी. पुलिस छापा मारी के दौरान इसमें शामिल सेक्स वर्कर्स को गिरफ्तार, दंडित या उन्हें प्रताड़ित नहीं कर पाएगी. पुलिस को इन महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार करना होगा.
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