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Wednesday, 20 November, 2024
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अरविन्द केजरीवाल ‘यूज़ एंड थ्रो’ नीति से मार रहे हैं खुद के पैर पर कुल्हाड़ी

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पार्टी के सूत्रों के अनुसार कई प्रतिभावान नेताओं को किनारे करना चुनाव के इस साल में आप सरकार पर भारी पड़ सकता है

नई दिल्ली: आम आदमी पार्टी से वरिष्ठ नेताओं का पलायन फ़िलहाल जारी रहने की सम्भावना है, सूत्रों के हवाले से दिप्रिंट को पता चला है।  ऐसे कई अन्य लोग भी हैं जिनका मानना है कि पार्टी आलाकमान ने उनका इस्तेमाल करके अब उन्हें दरकिनार कर दिया है।

वरिष्ठ नेता आशुतोष और आशीष खेतान ने पिछले महीने ही एक दूसरे के एक सप्ताह के भीतर ‘आप’ से इस्तीफ़ा दे दिया था जिससे इस पार्टी के स्वास्थ्य पर संदेह उठ रहे हैं और यह लाजिमी भी है क्योंकि राजनैतिक मंच पर ‘आप’ का पदार्पण आतंरिक पार्टी लोकतंत्र के मसीहा के रूप में हुआ था।

ये दोनों कम से कम एक दर्जन वरिष्ठ नेताओं और रणनीति निर्माताओं में से हैं जिन्होंने तीन साल पहले दिल्ली में पार्टी की शानदार वापसी के बाद या तो इस्तीफा दे दिया है उन्हें निष्कासित कर दिया गया है ।


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कई अन्य लोग स्वीकार करते हैं कि वे आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल द्वारा अपने काम को पहचाने जाने का इंतज़ार करते करते अब धैर्य खो चुके हैं।

पंजाब के एक विधायक ने कहा, “आप देख सकते हैं पार्टी ने दिल्ली के पूर्व विधायक जर्नैल सिंह से कैसा व्यवहार किया था।”

वे आगे बताते हैं , “उन्हें दिल्ली में अपनी सीट से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था और पांच बार के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल (2017 के विधानसभा चुनाव में) के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए पंजाब ले जाया गया था।”

विधायक कहते हैं , “उन्हें पार्टी के पंजाब सेल का सह-संयोजक नियुक्त किया गया था, लेकिन वे आजकल कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं यह कोई नहीं जानता ।”

‘ये कहाँ आ गए हम?’

पश्चिमी दिल्ली से आप के टिकट पर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ने वाले जरनैल सिंह भाजपा के परवेश साहिब सिंह वर्मा से हार गए थे।

जरनैल सिंह तब चर्चा में आए जब उन्होंने 2009 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी चिदंबरम पर चप्पल फेंकी थी। बताया जाता है कि वे दंगों के आरोपी रहे जगदीश टाइटलर एवं सज्जन कुमार को लोकसभा चुनाव में उतारने के कांग्रेस पार्टी के फैसले से नाखुश थे। बाद में दोनों की उम्मीदवारी वापस ले ली गयी थी।

इन दावों पर उनकी राय जानने के लिए जब दिप्रिंट ने उनसे संपर्क किया तो जरनैल सिंह ने टिप्पणी करने से इंकार कर दिया।

उसी सूत्र ने कहा ,”2014 के लोकसभा चुनावों में हमने चार सीटें जीतीं थीं लेकिन देखिये कि अब हम कहाँ हैं। ”
उनकी मानें तो “पार्टी आत्म-विनाश के रास्ते पर है और इसका श्रेय दिल्ली स्थित नेतृत्व को जाता है।”


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“क्या पंजाब में अपनी बढ़त को को बरक़रार रखने की हमारी कोई रणनीति है … मुझे ऐसा नहीं लगता,” उन्होंने कहा।

पंजाब दिल्ली के अलावा एकमात्र राज्य रहा है जहाँ ‘आप’ स्वयं को एक गंभीर खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने में सक्षम रही है । 2017 के विधानसभा चुनाव में यह पार्टी राज्य की कुल 117 में से 20 सीटें जीतकर दूसरे सबसे बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरी ।

हालांकि यह संख्या कांग्रेस की 77 सीटों के आंकड़े के सामने कहीं नहीं ठहरती पर इस लगभग छह साल पुरानी पार्टी ने उसके बावजूद राज्य के दूसरे महत्वपूर्ण खिलाड़ी शिरोमणि अकाली दल (बादल ) पर बढ़त बनाने में सफलता पायी। अकाली दल को 15 सीटों से ही संतोष करना पड़ा।

यह एकमात्र ऐसा राज्य भी था जिसने 2014 में ‘आप’ उम्मीदवारों को लोकसभा पहुँचाया और पार्टी को राज्य की तरह में से चार सीटों पर विजयी बनाया।

‘असंतोष की महामारी’

सूत्र ने उदाहरण के तौर आदर्श शास्त्री का हवाला दिया, जिन्होंने 2015 के दिल्ली चुनाव लड़ने के लिए ऐप्पल के मार्केटिंग एग्जिक्यूटिव की नौकरी से इस्तीफा दे दिया था लेकिन अब पार्टी बीच राह में उनसे किनारा कर चुकी है।

सूत्र की मानें तो शास्त्री को पार्टी में एक बड़ा रोल देने का वायदा किया गया था लेकिन अंततः उन्हें मंत्रिपद नहीं ही मिल पाया।

उन्होंने आगे कहा कि आशुतोष और खेतान जैसे नेताओं का पार्टी से पलायन समान पैटर्न में फिट होता है क्योंकि पार्टी नेतृत्व “अपने सदस्यों को संतुष्ट करने में असफल रहा है “।

2014 में पूर्वी दिल्ली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से पार्टी के उम्मीदवार और महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी का नाम भी इसी सिलसिले में आता है।

अमरीका में रहनेवाले अकादमिक राजमोहन काफी ताम झाम के बाद फरवरी 2014 में पार्टी में शामिल हुए थे लेकिन भाजपा के महेश गिरी से हारने के बाद से वे राजनीति से अनुपस्थित रहे हैं।

सूत्र ने दिप्रिंट को बताया ,”नेतृत्व ने कभी भी पार्टी के लाभ के लिए उनकी प्रतिभा और विशेषज्ञता का उपयोग करने का कोई प्रयास नहीं किया और वह अकेले नहीं है, उनके जैसे कई और भी हैं।”


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पार्टी की पंजाब इकाई में एक स्रोत ने अनुभवी बैंकर मीरा सान्याल का उदहारण देते हुए सदस्यों की पूरी क्षमता का फायदा उठा पाने में पार्टी की विफलता को दोहराया।

सूत्र बताते हैं कि कि बैंकिंग क्षेत्र में 30 से अधिक वर्षों के अनुभव के बावजूद 2014 के चुनाव के बाद से पार्टी के आर्थिक मामलों पर उनसे मुश्किल से ही परामर्श लिया गया है।

2014 में दक्षिणी मुंबई लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से ‘आप’ उम्मीदवार सान्याल को शिवसेना के ए जी सावंत ने हराया था।

संकट में पंजाब की बढ़त

पार्टी की अलग-थलग पड़ चुकी पंजाब इकाई में भी गहरा असंतोष है जिसका कारण प्रतिद्वंदियों के खिलाफ पार्टी नेतृत्व के वैचारिक रुख में आ रही नरमी को बताया जा रहा है।

पंजाब में पार्टी के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि उन्हें कांग्रेस के खिलाफ “नर्म रुख अपनाने” के निर्देश प्राप्त हुए हैं जो 2011 के अन्ना हज़ारे की अगुवाई वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान ‘आप’ का निशाना रही थी। ऐसा गठबंधन की उम्मीदों को जीवित रखने के लिए किया गया है।

1984 के सिख दंगों में कांग्रेस के नेताओं पर भी शामिल होने का आरोप है। ऐसी स्थिति में गठबंधन का विचार पार्टी के कुछ हिस्सों को और भी ज़्यादा अरुचिकर लग सकता है।

इसके अलावा, एसएडी के पूर्व राज्य राजस्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया से केजरीवाल का माफ़ी माँगना बहुतों को हज़म नहीं हुआ है। ड्रग तस्करी में मजीठिया की कथित मिलीभगत पर ‘आप’ के पंजाब कैम्पेन का मुख्य फोकस रहा था।

केजरीवाल ने ‘आप’ के खिलाफ दायर मुकदमे के मुकदमे को वापस लेने के लिए मजीठिया से माफ़ी मांगी थी।

पंजाब के सूत्र ने कहा, “पार्टी का पूरा अभियान नशीली दवाओं और 1984 के सिख विरोधी दंगों पर केंद्रित था।”

सूत्र ने कहा, “पार्टी के दिल्ली नेतृत्व ने मजीठिया से माफ़ी मांगने से पहले पंजाब नेतृत्व से परामर्श लेने की ज़हमत नहीं उठाई और अब गठबंधन की बात चल रही है। स्थानीय नेतृत्व से लेकर कार्यकर्ताओं तक, यहां हर कोई भ्रम की स्थिति में है। ”

“हम धीरे-धीरे पंजाब में अपनी बढ़त खो रहे हैं। अगर दिल्ली में नेतृत्व को इसका एहसास नहीं होता है, तो हम अगले चुनावों से पहले ही विलुप्त हो जाएंगे, “असंतुष्ट पार्टी नेता सुखपाल सिंह खैरा को शांत करने के प्रयासों में कमी पर भी सवाल उठाते हुए सूत्र ने कहा।

केजरीवाल की पिछले महीने की पंजाब यात्रा का जिक्र करते हुए सूत्र ने पूछा, ” अरविंद केजरीवाल पंजाब आये और उन्होंने सुखपाल सिंह खैरा को शांत करने का कोई प्रयास भी नहीं किया, यह समझ से बाहर है ।”

पंजाब में विपक्ष के भूतपूर्व नेता खैरा को राज्य मामलों में दिल्ली इकाई के “हस्तक्षेप” का विरोध करने की वजह से हटा दिया गया था।

खालिस्तान को लेकर उनके विचारों को लेकर भी पार्टी हाईकमान से उनकी अनबन की खबरें हैं। वे खालिस्तान को लेकर प्रस्तावित जनसंग्रह की अगुआई विदेशों में रहनेवाले भारतीयों द्वारा किये जाने के पक्ष में थे। तब से उन्होंने एक खुले विद्रोह का बिगुल फूँका है जिसमें सात पार्टी विधायक उनके साथ हैं।

Read in English : Arvind Kejriwal’s ‘use and throw’ policy could end up hurting him the most

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