नई दिल्ली: भाजपा नेताओं का दावा है कि वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद के इर्द-गिर्द खड़ा विवाद एक ‘स्वतः स्फूर्त प्रतिक्रिया’ है और ‘लोगों की भावनाओं’ से उपजा है. पार्टी ‘हालात की बड़ी बारीकी से निगरानी कर रही है’ और अपनी राजनीतिक रणनीति पर काम कर रही है.
हालांकि, जहां भाजपा अभी भी अपने रुख का पता लगा रही है, वहीं इसके नेता व्यक्तिगत तौर पर इस मामले पर अपनी राय सार्वजनिक कर रहे हैं.
सोमवार को, यह दावा किये जाने के तुरंत बाद कि ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में एक ‘शिवलिंग’ (हिंदू देवता शिव का प्रतीक) पाया गया है, उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता केशव प्रसाद मौर्य ने ट्विटर पर लिखा, ’आप ‘सत्य’ को कितना भी छुपा लें, एक दिन वह सामने आ ही जाएगा क्योंकि ‘सत्य ही शिव है’…बाबा की जय, हर हर महादेव.’
"सत्य" को आप कितना भी छुपा लीजिये लेकिन एक दिन सामने आ ही जाता है क्योंकि "सत्य ही शिव" है।
बाबा की जय,
हर हर महादेव।।#GyanvapiTruthNow#ज्ञानवापी_मंदिर— Keshav Prasad Maurya (@kpmaurya1) May 16, 2022
भाजपा सांसद हरनाथ सिंह यादव से लेकर मध्य प्रदेश के पार्टी प्रभारी पी. मुरलीधर राव तक और छत्तीसगढ़ के पूर्व गृह मंत्री बृजमोहन अग्रवाल से लेकर यूपी के पूर्व मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह तक- ये सभी नेता उपासना स्थल (विशेष) प्रावधान) अधिनियम, 1991- प्लेसेस ऑफ वरशिप (स्पेशल प्रोविशंस) एक्ट, 1991- के प्रावधानों पर फिर से विचार करने पर जोर दे रहे हैं जो ज्ञानवापी विवाद में और काशी (वाराणसी) और मथुरा में मंदिरों को ‘पुनःप्राप्त’ करने के लिए अभियान चलाने की राह में विवाद का मुख्य विषय है.
#Shivling found in #Gyanvapi premises is like a scorching mid day Sun in a peak summer. Now, in my opinion continuation of "Places of Worship Act, 1991" is highly difficult…It will have to be repealed in near future. Stopping this from happening highly impossible!
— P Muralidhar Rao (@PMuralidharRao) May 16, 2022
Why Congress Party brought 1991 worship act? Wasn’t it to please a section of minorities at peak of Babri dispute and why accept cut off date of 1947 determined by a colonial power ? Time for Congress to answer
— Sidharth Nath Singh (@SidharthNSingh) May 16, 2022
उपासना स्थल अधिनियम किसी भी पूजा अथवा उपासना स्थल के धार्मिक चरित्र को उसी स्वरूप में बनाए रखने का प्रावधान करता है जैसे कि यह 15 अगस्त 1947 को अस्तित्व में था. सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले पर अपने 2019 के फैसले में कहा था कि यह कानून ‘भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशिष्टताओं, जो हमारे संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है- की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी साधन है.’
अदालत ने कहा था, ‘यह कानून खुद को राज्य के प्रति भी उतना ही संबोधित करता है जितना राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक के प्रति. इसके मानदंड उन लोगों को बांधते हैं जो हर स्तर पर राष्ट्र के मसलों को नियंत्रित करते हैं.‘
इस फैसले में कहा गया था, ‘राज्य ने इस कानून को बनाकर एक संवैधानिक प्रतिबद्धता को लागू किया है और सभी धर्मों और धर्मनिरपेक्षता की समानता को बनाए रखने के लिए अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा किया है जो संविधान की बुनियादी विशेषताओं का एक हिस्सा है.’
इसके बावजूद, दिप्रिंट से बात करते हुए भाजपा और उसके वैचारिक प्रेरणास्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेताओं ने कहा कि ज्ञानवापी मुद्दे ने इस अधिनियम की वैधता पर चर्चा के लिए एक रास्ता खोल दिया है.
हालांकि, भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने दावा किया कि न तो पार्टी और न ही आरएसएस ज्ञानवापी मुद्दे से संबंधित कानूनी मामलों में सक्रिय रूप से शामिल है. उन्होंने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि यह आम जनता है जिसने उन्हें उठाया है.
पार्टी के एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया, ‘जिन लोगों ने इस मुद्दे को उठाया है, उनका संघ या भाजपा से जुड़ाव हो सकता है, लेकिन यह अलग बात है.’
उपासना स्थल अधिनियम को चुनौती देने वाली दो याचिकाएं वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं. इनमें से एक भाजपा प्रवक्ता और वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर की गयी थी, जबकि दूसरी को लखनऊ स्थित पुजारियों की एक संस्था, जिसे विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ कहा जाता है, द्वारा दायर किया गया था.
हालांकि सरकार ने अभी तक शीर्ष अदालत द्वारा की गई मांग के बावजूद इस मामले पर अपना जवाब तैयार नहीं किया है, मगर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि कोई भी ‘ताजा घटनाक्रम इस अधिनियम पर पुनर्विचार करने के बारे में जनता की राय बदल देगा’.
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‘शिवलिंग का मिलना है एक महत्वपूर्ण मोड़’
भाजपा सांसद हरनाथ यादव, जिन्होंने पिछले साल दिसंबर में संसद में कृष्णा जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद को उठाते हुए उपरोक्त अधिनियम को खत्म करने की मांग की थी, ने दिप्रिंट को बताया: ‘यह (अधिनियम) संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है क्योंकि यह न्यायिक समीक्षा को प्रतिबंधित करता है. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि यह (ज्ञानवापी मस्जिद) एक मंदिर था और वहां लंबे समय से पूजा चल रही थी.’
उनका कहना था, ‘यह कानून भगवान राम और कृष्ण के साथ भेदभाव करता है जबकि वे दोनों भगवन विष्णु के अवतार हैं. यह कानून हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के साथ भी भेदभाव करता है.’
एक अन्य भाजपा नेता ने उनका नाम न छापे जाने की शर्त पर कहा कि जिस तरह अयोध्या मामले को सुप्रीम कोर्ट में सुलझाया गया था, उसी तरह ‘हम इस (ज्ञानवापी) मुद्दे पर भी अदालत के फैसले का इंतजार करेंगे.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हालांकि, यदि इस अधिनियम को बदलने के बारे में जनता की भावनाएं बढ़ती हैं तो हमें इसे एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना होगा. पार्टी को अपना पक्ष चुनना ही होगा.’
एक अन्य भाजपा नेता ने उनका नाम न जाहिर करने की इच्छा के साथ कहा कि पार्टी को इस मुद्दे पर एक ‘सतर्क रवैया’ अपनाना चाहिए.
इस नेता ने कहा, ‘हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट हाल के निष्कर्षों के बारे में क्या कहेगा, फिर भी यह एक ‘भानुमती का पिटारा’ खोल सकता है. यह पार्टी के हित में है कि अयोध्या मुद्दे की तरह इस मुद्दे को भी अदालत ही सुलझाए.’
उन्होंने कहा, ‘इस बात से कोई इंकार नहीं है कि पार्टी को इससे फायदा होगा लेकिन सरकार को पूरे देश की बड़ी तस्वीर देखनी होगी. पार्टी को यह देखना होगा कि अदालत में चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं और काशी और मथुरा के लिए जनता की राय क्या आकर लेती है.‘
पार्टी के एक अन्य नेता, जिन्होंने गुपचुप तरीके से बात की, ने कहा कि बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला करता है, उस पर मुस्लिम समुदाय कैसे प्रतिक्रिया करता है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘यह एक डायनामिक (तेजी से बदलती हुई) स्थिति है और अदालत पर बहुत कुछ निर्भर करता है. लेकिन साथ ही, यह भी स्पष्ट हो गया है कि 1991 का अधिनियम अलंघ्य नहीं है और इसे कभी भी बदला जा सकता है. बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि मुस्लिम समुदाय इस पर कैसी प्रतिक्रिया देता है. वे धर्मनिरपेक्षता और औरंगजेब की एक साथ वकालत नहीं कर सकते.’
हालांकि, उन्हीं की पार्टी के एक सहयोगी ने मस्जिद परिसर में ‘शिवलिंग’ की कथित रूप से खोज को ‘एक महत्वपूर्ण मोड़’ बताया, जिसने इस सारे मामले की दिशा ही बदल दी है और जो उपसाना स्थल अधिनियम को त्म करने पर व्यापक चर्चा का मार्ग प्रशस्त करेगा’.
उन्होंने कहा, ‘एक बार जब यह साबित हो जाता है कि याचिकाकर्ता द्वारा बताया गया स्मारक एक ‘शिवलिंग’ है, तो पूजा कार्य की बहाली और अधिनियम के संशोधन पर जनता की राय को रोक पाना बहुत मुश्किल होगा.’
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‘यह कानून जल्दबाजी में पारित किया गया था’
इस सप्ताह की शुरुआत में, कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने कहा था कि उपसना स्थल अधिनियम ‘नरसिम्हा राव की सरकार में गहन विचार-विमर्श के बाद पारित किया गया था’.
उनकी इस दलील पर पलटवार करते हुए भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘नरसिम्हा राव सरकार जब यह कानून बना रही थी, तो इसे स्थायी समिति को भेजे बिना जल्दबाजी में पारित कर दिया गया था. अगस्त 1991 में तत्कालीन गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण द्वारा सदन में पेश किये जाने के वक्त भी भाजपा ने इसके प्रावधानों का विरोध किया था. लालकृष्ण आडवाणी के तहत तत्कालीन भाजपा नेतृत्व ने इसे तुष्टीकरण का एक और उदाहरण बताया था.‘
कुछ अन्य भाजपा नेताओं ने दावा किया कि चूंकि यह मस्जिद एक ‘ऐतिहासिक स्मारक’ है, इसलिए यह उपसना स्थल अधिनियम के दायरे में नहीं आती है.
पार्टी के एक नेता ने कहा, ‘हालांकि आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) ने इसे अपने दायरे में आने वाले किसी प्राचीन स्मारक के रूप में ‘अधिसूचित’ नहीं किया है लेकिन इन बदली हुई परिस्थितियों में यह किसी भी समय इसे एक प्राचीन स्मारक ‘घोषित’ कर सकता है.’
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संघ की रणनीति में बदलाव
2019 में, अयोध्या मामले पर आये फैसले के तुरंत बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि वे (संघ) उसके बाद किसी भी राजनीतिक आंदोलन में शामिल नहीं होंगे. वह उन अन्य स्थलों के बारे में किये गए एक सवाल का जवाब दे रहे थे जहां हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा मस्जिदों के अस्तित्व पर सवाल उठाया जाता है.
उनका यह बयान 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा उठाए गए नारों- अयोध्या-बाबरी सिर्फ झांकी है, काशी-मथुरा अब बाकी है- की पृष्ठभूमि में काफी महत्वपूर्ण था.
हालांकि, ज्ञानवापी वाले मुद्दे पर मिली ‘जनता की प्रतिक्रिया’ संघ परिवार की इस रणनीति में बदलाव का कारण बनती नजर आ रही है.
आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट को बताया कि अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के मामले में भी, ‘एक वह समय भी था जब यह लोगों और राजनेताओं के एक वर्ग को यह ‘स्वीकार्य’ नहीं था. लेकिन वर्षों के संघर्ष के बाद आज मंदिर हमारे सामने है.’
उन्होंने दावा किया, ‘लोग ज्ञानवापी मस्जिद में ‘शिवलिंग’ के होने के बारे में वर्षों से जानते हैं लेकिन इसके बारे में बहुत कुछ नहीं किया जा सकता था. ज्ञानवापी मस्जिद आज उसी मोड़ पर है जहां (कभी) अयोध्या में राम मंदिर खड़ा था. थोड़ा समय लगेगा लेकिन अंत में यह माना ही जाएगा कि यहां एक मंदिर था.’
विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने भी अयोध्या फैसले के समय यह दावा किया था कि वह पूरी तरह से राम मंदिर के निर्माण पर केंद्रित है. मगर, ‘बदली हुई परिस्थितियों’ के तहत, इसका रुख भी बदल गया है.
विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने दिप्रिंट से कहा, ‘(सर्वे के) निष्कर्षों ने यह साबित कर दिया कि 1947 से पहले भी मस्जिद परिसर में एक शिवलिंग था. हमने कहा था कि हम राम मंदिर बनने तक कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे. अब बदली हुई परिस्थितियों में हम इस मामले को 11-12 जून को हरिद्वार में निर्धारित केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल (धार्मिक मामलों पर निर्णय लेने वालेी इसकी सर्वोच्च संस्था) में संत समुदाय के समक्ष रखेंगे.‘
विहिप के कुछ नेताओं का कहना है कि ज्ञानवापी मस्जिद उपसना स्थल अधिनियम के तहत नहीं आती है ‘क्योंकि यह एक ऐसा मंदिर था जहां 1947 से पहले लगातार पूजा की जाती थी.‘
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