आप इसे मुहावरा कह लीजिए, एक उपमा या ‘सियासी जुमला’ कह लीजिए, या कोई पारस पत्थर कह लीजिए जिसका स्पर्श मात्र व्यक्ति को बढ़त दिला देता हो, ‘विकास’ दरअसल एक ऐसा शब्द है जो भारतीय लोकतंत्र में आज सत्ता की होड़ में जुटे नेताओं की जबान से शहद की तरह टपकता रहता है. तमाम राजनीतिक समूह, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, अपने दावों, जवाबी दावों, प्रशंसा और आलोचना के लिए इसे बराबर एक टेक की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. और अब यह गुजरात के राजनीतिक शब्दकोश में दाखिल हो गया है, जहां आगामी जाड़े में विधानसभा चुनाव होने वाला है.
आम आदमी पार्टी (आप) के नेता, ‘स्टार’ प्रचारक अरविंद केजरीवाल ने हाल में गुजरात के जनजातीय जिले भडूच में हुई एक रैली में राज्य के विकास का मसला उठाया. उन्होंने ‘विकास के गुजरात मॉडल’ की आलोचना की, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अहम पत्तों में से एक है. राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने ‘विकास पुरुष’ का जो उपनाम हासिल किया था वह 2014 के लोकसभा चुनाव में उनके लिए ‘पूंजी’ साबित हुई. लेकिन केजरीवाल ने इसे कबूल न करते हुए राज्य के स्कूलों और अस्पतालों की समस्याओं को उजागर करते हुए ‘गुजरात मॉडल’ का पर्दाफाश करने की कोशिश की. उन्होंने परोक्ष रूप से एक वैकल्पिक ‘दिल्ली मॉडल’ भी प्रस्तावित किया, जिसमें उच्च स्तर की समता मूलक स्कूली व्यवस्था और सक्षम स्वास्थ्य व्यवस्था बनाने का दावा किया गया है.
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गुजरात में भाजपा की सफलता
गौर करने वाली बात यह है कि केजरीवाल की रैली से कुछ ही दिन पहले मोदी ने राज्य के अविकसित जनजातीय इलाकों, दाहोद और पंचमहल में करीब 22,000 करोड़ रुपये की जल आपूर्ति और शहरी सुविधाओं की परियोजनाओं का उदघाटन और शिलान्यास किया. इससे पहले मोदी की परियोजनाओं के तहत चार, छह और आठ लेन वाले हाइवे का जाल बनाने की कोशिश की गई. उनके विकास मॉडल के तहत पानी जैसी बुनियादी जरूरत को पूरा करना महत्वपूर्ण माना गया है इसलिए सिविल सोसाइटी समूहों के विरोध के बावजूद उन्होंने नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध बनवाया. पीछे मुड़कर देखें तो लोगों ने माना कि इस परियोजना के कारण गुजरात के कई गांवों और शहरों को अब पर्याप्त पानी उपलब्ध है.
भाजपा ने इस राज्य पर 27 साल के अपने शासन के दौरान बुनियादी ढांचे की नींव डाली जिसके कारण राज्य में विकास तेज हुआ. मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने राज्य में पर्यटन को बढ़ावा देने की जो कोशिश की उससे रोजगार के अवसर बढ़े. यह भी गौर करने वाली बात है कि भाजपा शासन ने किस तरह पुराने धर्मस्थलों और स्मारकों के पुनरुद्धार करवाए और केवड़िया जनजातीय क्षेत्र में ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ जैसे नए स्मारकों का निर्माण किया. इन स्थलों ने राज्य में तमाम तरह के कारोबार, व्यापार को बढ़ावा दिया है. राज्य में स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोनों को मजबूत करके भाजपा ने एक ऐसा आर्थिक माहौल बनाने में मदद की है जिसमें टाइल, हस्तशिल्प आदि के निर्माण और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिल सकता है.
गुजरात ने सरकार द्वारा प्रायोजित पीएम आवास योजना, पीएम कृषि सिंचाई योजना, मनरेगा, और वृद्धावस्था तथा विधवा पेंशन जैसी विभिन्न राष्ट्रीय सहायता कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू किया है. सामाजिक सहायता की इन योजनाओं के जरिए भाजपा ने गुजरात के ग्रामीण अंचल में लाभार्थियों का बड़ा समूह तैयार कर लिया है, जो उसका सक्रिय समर्थन करता है.
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कांग्रेस और आप के लिए गुंजाइश
कामयाबी की इन कहानियों के कारण गुजरात में शायद ही कोई है जो ‘विकास’ का सपना दिखाकर लोगों को रिझा सके और राज्य की चुनावी राजनीति में कोई बदलाव ला सके. लेकिन, भाजपा के तमाम प्रयासों के बावजूद इन कार्यक्रमों के लाभ भडूच, दाहोद, छोटाउदेपुर, और डांग जैसे जनजातीय इलाकों तक अभी नहीं पहुंच पाए हैं. इन अविकसित क्षेत्रों में ही कांग्रेस और आप अपनी राजनीतिक जगह बनाकर असंतुष्ट आदिवासियों को, जिनकी आबादी कुल आबादी की करीब 16 फीसदी है, अपने पक्ष में कर सकती हैं.
लेकिन गुजरात के आदिवासियों का मन जीतना दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए आसान नहीं होगा. उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हो पाई हैं और इस वजह से महेशभाई वसावा के नेतृत्व वाली भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के रूप में राज्य में एक अलग आदिवासी राजनीति शुरू हो चुकी है. इस पार्टी का विभिन्न आदिवासी समुदायों का अच्छा आधार है. आप को इसका पता है इसलिए उसने आगामी चुनाव के लिए बीटीपी से फटाफट गठबंधन कर लिया है. लेकिन भाजपा ने भी कोशिश छोड़ नहीं दी है. वह इस क्षेत्र के लिए विस्तृत विकास योजना पर ज़ोर दे रही है. अब समय ही बताएगा कि जीत किसकी होती है.
फिलहाल हम यही जानते हैं कि दिल्ली और गुजरात एक जैसे नहीं हैं, और केजरीवाल अगर यह नहीं मानते तो वे बड़ी भूल करेंगे. भूगोल से लेकर विकास का इतिहास तक यही संकेत दे रहा है कि दोनों राज्यों के लोगों की जरूरतें भी अलग-अलग हैं. अगले चुनाव में गुजरात के लोगों से दिल्ली की तरह अच्छे स्कूल और अस्पताल के वादे करने से वैसा समर्थन शायद ही मिलेगा क्योंकि उनकी आकांक्षाएं भिन्न हैं. खुद को विकास के प्रतीक के रूप में पेश करने वाले नेताओं को न केवल मोदी की जोरदार छवि का मुक़ाबला करना पड़ेगा बल्कि प्रधानमंत्री जिन विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ा रहे हैं उनसे बेहतर योजनाएं भी पेश करनी होंगी. इसमें शक नहीं कि ये दावे और जवाबी दावे ही अगले विधानसभा चुनाव के चुनावी विमर्श के केंद्रीय ‘प्लॉट’ होंगे, और आप तथा कांग्रेस के लिए बदकिस्मती की बात यह है कि उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विशाल कद का सामना करना पड़ेगा.
(लेखक जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद के प्रोफेसर और डायरेक्टर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @poetbadri. व्यक्त विचार निजी हैं)
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