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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतदलित की दुर्दशा: प्रधानमंत्री के पांव पखारने से सवर्णों के पैर चटवाने तक

दलित की दुर्दशा: प्रधानमंत्री के पांव पखारने से सवर्णों के पैर चटवाने तक

यह बात तो आईने की तरह साफ है कि इस दौरान दलितों के मानवाधिकारों की रक्षा के समुचित प्रयास किये गये होते तो उन्हें अपमानित करना और अत्याचारों का शिकार बनाना इतना आसान कतई नहीं होता.

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नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से सात साल पहले यानी आज से पन्द्रह साल पहले की बात है. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने अपनी ‘कर्मयोग’ शीर्षक पुस्तक में मैला ढोने के अमानवीय पेशे को आध्यात्मिक अनुभव व संस्कार बताया और सिर्फ पेशा मानने से इनकार कर दिया था.

अक्तूबर, 2007 में गुजरात सरकार ने उनकी इस पुस्तक की लगभग 4,000 प्रतियां छापी थीं, जो राज्य में चुनाव आचार संहिता के कारण बांटी नहीं जा सकीं और चुनाव बाद अचानक वापस ले ली गई थीं. कारण यह कि एक अंग्रेजी अखबार ने उसमें जातिगत ढांचे और दलितों को लेकर कही गई कई बातों को आपत्तिजनक करार देते हुए एक स्टोरी छाप दी थी जिसके बाद उन्हें लेकर चैतरफा एतराज उठने लगे थे.

प्रसंगवश, मोदी ने उक्त पुस्तक के 48वें पृष्ठ पर लिखा था, ‘जो शौचालय में काम करता है उसकी आध्यात्मिकता क्या? कभी उस वाल्मीकि समाज के आदमी की, जो मैला साफ करता है, गंदगी दूर करता है, आध्यात्मिकता का अनुभव किया है? उसने सिर्फ पेट भरने के लिए यह काम स्वीकारा हो, मैं यह नहीं मानता, क्योंकि तब वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे नहीं कर पाता. एक जमाने में किसी को ये संस्कार हुए होंगे कि संपूर्ण समाज और देवता की साफ-सफाई की जिम्मेदारी मेरी है और उसी के लिए यह काम मुझे करना है. इस कारण सदियों से समाज को स्वच्छ रखना, उसके भीतर की आध्यात्मिकता होगी.’


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मोदी ने सफाई कर्मचारियों के पांव धोए 

प्रधानमंत्री बनने के बाद 15 अगस्त, 2014 को लाल किले से अपने पहले संबोधन में उन्होंने जोर-शोर से घर-घर शौचालय बनाने की बात की तो कई लोगों का अनुमान था कि बहुत संभव है कि अब उक्त ‘आध्यात्मिकता’ को लेकर उनके विचार बदल गये हों.

फरवरी, 2019 में उन्होंने प्रयागराज में कुंभ के दौरान वहां कार्यरत पांच सफाई कर्मचारियों के पांव पखारे और विशेष योगदान के लिए सम्मानित किया, तो उनके विचारों के बदलाव की धारणा और मजबूत हो गई थी. उन्होंने जिन कर्मियों से बातचीत की और उनके सामने हाथ जोड़े, वे भी अभिभूत हो उठे थे. उनका कहना था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि प्रधानमंत्री उन्हें ऐसे सम्मानित करेंगे.

दूसरे पहलू पर जायें तो तब प्रधानमंत्री के विरोधियों ने इसे उनकी राजनीतिक जमात के विचार व चुनावी लीला से जोड़ते हुए यह तक कह डाला था कि सफाई कर्मचारी तो प्रधानमंत्री कार्यालय व प्रधानमंत्री निवास में भी हैं. उनकी बात इस अर्थ में सच लग रही थी कि उन दिनों देश भर से अनेक सफाई कर्मचारी व सीवरमैन अपनी समस्याओं के समाधान व मानवाधिकारों की रक्षा की मांग को लेकर राजधानी दिल्ली के जन्तर-मंतर पर धरने बैठे हुए थे और सरकार उनकी सुन नहीं रही थी.

फिर भी चूंकि प्रधानमंत्री ने खुद भी यह कहकर अपने विचारों में परिवर्तन के संकेत दिये थे कि सफाईकर्मी भाइयों-बहनों के चरण धुलकर उनकी वंदना करने का उक्त पल जीवन भर उनके साथ रहेगा, कई हलकों में उम्मीदें बरकरार थीं कि वे सफाईकर्मियों व सीवरमैनों कहें अथवा दलितों के जानें कब से गुमे हुए मानवाधिकारों की बहाली के यथासंभव सारे जतन जरूर करेंगे. उन्होंने बाबासाहब अम्बेडकर को ‘अपनाकर’ अपने समर्थकों को उनकी जयंतियों और निर्वाण दिवसों को उत्साहपूर्वक मनवाना शुरू किया तो यह उम्मीद और घनी हो गई थी. अलबत्ता, काशी के डोमराज के देहांत पर उन्होंने उनको सनातन परम्परा का संवाहक बताकर अपने ‘इरादे’ फिर साफ कर दिये थे.

लेकिन, जिस उत्तर प्रदेश में अभी चन्द दिनों पहले ही बड़ी चुनावी लीला के बाद उनकी पार्टी की सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में वापस आई है और कहा जाता है कि भारी ऐंटीइन्कम्बैंसी के बावजूद ऐसा इसलिए सम्भव हुआ क्योंकि बहुजन समाज पार्टी से निराश दलितों का एक हिस्सा उसके समर्थन से उतर आया, उसके रायबरेली जिले में, जिसे देश को प्रधानमंत्री तक देने का श्रेय हासिल है, अपनी घरेलू मजदूर मां के काम की मजदूरी मांग रहे एक दलित किशोर से कई मनबढ़ सवर्ण युवकों द्वारा जैसा अमानवीय सलूक किया गया है, उसके बाद यह साबित करने के लिए किसी और तथ्य की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री या उनकी जमात के विचार परिवर्तन की सारी उम्मीदें थोथी और निराधार थीं.

यह बात तो आईने की तरह साफ है कि इस दौरान दलितों के मानवाधिकारों की रक्षा के समुचित प्रयास किये गये होते तो उन्हें अपमानित करना और अत्याचारों का शिकार बनाना इतना आसान कतई नहीं होता. प्रधानमंत्री ने कुम्भ में दलितों के पांव पखारने के संदेश को दूर तक ले जाने की इच्छाशक्ति प्रदर्शित की होती तो रायबरेली के उक्त सवर्ण युवकों की यह हिम्मत भला क्योंकर होती कि 10वीं कक्षा में पढ़ने वाला दलित किशोर अपनी मां की मजदूरी मांगने जाये तो उसके हाथ जोड़े खड़े होने के बावजूद वे उसे बेल्ट व केबिल से पीटें, कान पकड़वाकर जमीन पर बैठायें और वह डर के मारे कांपने लगे तो उसे पैर चाटने के लिए मजबूर करें.

यहां कल्पना भी त्रासद है कि उस किशोर ने कैसे अपने आत्मसम्मान को कुचले जाने की पीड़ा बर्दाश्त की. प्रधानमंत्री द्वारा सम्मानित सफाईकर्मियों की तरह उसने भी कहां किसी सपने में सोचा होगा कि एक दिन उसे ऐसे अपमान से गुजरना होगा. इसलिए पूछना ही होगा कि हिन्दू जाति व्यवस्था द्वारा उपकृत कुछ लोगों की ऊंच-नीच की दुर्गंध से बस्साती मानसिकता देश के सबसे बड़े राज्य में इक्कीसवीं सदी के बाईसवें साल में भी निर्लज्ज होती नहीं अघाती तो प्रधानमंत्री कुम्भ में पांच सफाईकर्मियों के पांव पखारकर इसकी जिम्मेदारी से कैसे मुक्त हो सकते हैं या उनकी इस जिम्मेदारी को दलितों के उत्थान की योजनाएं बनाने या बाबासाहब की मूर्ति पर मालाएं चढ़ा देने भर से पूरी हुई कैसे माना जा सकता है?
खासकर जब प्रधानमंत्री की ही पार्टी द्वारा शासित यह प्रदेश दलितों के खिलाफ अपराधों में लगातार नम्बर वन बना रहता हो और 2018 से 2020 के बीच के तीन वर्षों में ऐसे अपराधों के कुल दर्ज 1,39,045 मामलों में इस प्रदेश का हिस्सा ही सबसे बड़ा हो. हैरत होती है कि इसके बावजूद प्रधानमंत्री की पार्टी का सपना है कि वह 2024 के आम चुनावों में उस सारे दलित वोट बैंक को बहुजन समाज पार्टी से छीन लेगी, जो गत विधानसभा चुनाव से पहले तक उसका आधार हुआ करता था.

कभी दलित को मूंछ रखने पर, कभी घोड़ी पर बैठने की सजा दी गई

अगर वह समझती है कि यह सपना दलितों को भाजपा के स्थापना दिवस छः अप्रैल से बाबासाहब की जयंती 14 अप्रैल तक सामाजिक समरसता सप्ताह के कर्मकांडी आयोजनों से खुश करके, मुफ्त राशन आदि की बिना पर लाभार्थियों में तब्दील करके या उनमें नये सिरे से हिंदू होने की चाह जगाकर पूरा कर लेगी तो उसे समझना चाहिए कि कांशीराम द्वारा जगाये गये स्वाभिमान के बाद से दलितों व वंचितों की सबसे बड़ी लड़ाई स्वाभिमानपूर्वक सिर उठाकर जीने को समर्पित हो गई है. अब वे चुनावों के वक्त भाषणों में दलित उत्थान की बड़ी-बड़ी बातें व दलितों के घर जाकर भोजन करने वगैरह से प्रभावित नहीं होते.

ऐसे में यह समझ दिवास्वप्न भर है कि हिन्दू होने की चाह जगाने के प्रयत्नों के शिकार होकर दलित भूल जायेंगे कि वास्तव में यह हिन्दू जाति व वर्णव्यवस्था ही है जो इक्कीसवीं सदी में भी उनके जीवन को नारकीय बनाये हुए है.

यह और बात है कि कांशीराम की नेक कमाई बेच खाने पर उतारू दलितों के कुछ स्वयंभू पैरोकार आजकल हवा का रुख देखकर उनके लिए समानता व न्याय की लड़ाई को पटरी से उतारने में लगे हैं और सवर्ण मानसिकता वाले दलों के साथ जुड़कर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी तलाश रहे हैं. सो भी, जब कभी किसी दलित को मूंछ रखने के शौक के लिए मार दिया जाता है, कभी किसी दलित को घोड़ी पर बैठने की सजा दी जाती है. दलित बच्चों को मध्याह्न भोजन में भेदभाव का सामना करना पड़ता है और दलित स्त्रियों की अस्मिता के साथ खिलवाड़ सवर्ण दबंगों का शगल बना हुआ है.

दलितों के ये स्वयंभू पैरोकार दलितों की लड़ाई को कठिन और लम्बी बना सकते हैं, लेकिन न खत्म कर सकते हैं और न विफल. जैसे नदियों में बह चुके पानी को फिर से उसके उद्गम पर वापस नहीं लाया जा सकता, अत्याचार, अनाचार व अपमान के खिलाफ संघर्षों की राहों के कांटे बुहार रहे दलितों से मैला ढोने को आध्यात्मिक अनुभव से गुजरना और पैर चाटने को मोक्ष पाना स्वीकार नहीं कराया जा सकता.’

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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