scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतअमेरिका को तेल चाहिए और ईरान को पाबंदियों से छूट, फिर भी दोनों के बीच परमाणु करार होना मुश्किल क्यों

अमेरिका को तेल चाहिए और ईरान को पाबंदियों से छूट, फिर भी दोनों के बीच परमाणु करार होना मुश्किल क्यों

सैद्धांतिक तौर पर यह सौदा आसान नहीं हो सकता. दुनिया को रूसी हाइड्रोकार्बन से मुक्ति दिलाने के लिए अमेरिका को ईरान के तेल और गैस की जरूरत है. वहीं ईरान के लिए जरूरी है कि वे पाबंदियां खत्म हो जाएं जिनकी वजह से उसकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा है.

Text Size:

दुबई के क्रीसेंट ड्राइव स्थित एक मदर-एंड-चाइल्ड स्टोर के ऊपर एक छोटे से दफ्तर से निकलते समय मोहम्मद एस्लामी ने कयामत ढाने की कीमतें बताने वाला हाथ से लिखा एक कागज थाम लिया. कुछ मिलियन डॉलर से लेकर कुछ सौ मिलियन डॉलर तक कीमतों में जर्मन इंजीनियर हेंज मेबस और श्रीलंकाई व्यवसायी मोहम्मद फारूक और बुहारी सैयद अली ताहिर यूरेनियम-इनरिचमेंट टेक्नोलॉजी, सैंपल गैस सेंट्रीफ्यूज और उन्हें बनाने वाले उपकरण मुहैया कराने के इच्छुक थे.

यहां तक कि उनके पास अपने बॉस और पाकिस्तान के परमाणु हथियार विशेषज्ञ अब्दुल कय्यूम खान की तरफ से दिया गया 15-पन्ने का एक तकनीकी दस्तावेज भी था, जिसमें बताया गया था कि परमाणु बम के बीच में यूरेनियम के गोले कैसे डाले जाएंगे.

पिछले एक साल से ज्यादा समय से ईरानी और अमेरिकी राजनयिक इस पर बातचीत कर रहे हैं कि उस परमाणु जिन्न को फिर बोतल में कैसे बंद किया जाए.

सैद्धांतिक तौर पर यह सौदा आसान नहीं हो सकता. दुनिया को रूसी हाइड्रोकार्बन से मुक्त कराने के लिए अमेरिका को ईरान के तेल और गैस की जरूरत है. वहीं ईरान के लिए जरूरी है कि वे पाबंदियां खत्म हो जाएं जिन्होंने उसकी अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार दिया. हालांकि, ईरान तब तक हस्ताक्षर नहीं करेगा जब तक कि उसकी एलीट फोर्स में शुमार इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स पर पाबंदी नहीं हटती. और राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन के पास ऐसी रियायत देने के लिए जरूरी राजनीतिक ताकत नहीं है.

इस हफ्ते के शुरू में, ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सईद खतीबजादेह ने कहा कि करार ‘इमरजेंसी रूम’ में है.

ईरानी परमाणु करार के पीछे की कहानी

जैसा मैंने पहले भी लिखा है, चार साल पूर्व तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के प्रशासन ने ईरान की तरफ से 2015 में तथाकथित पी-5 प्लस 1 ताकतों के साथ किए गए एक समझौते से एकतरफा ढंग से हाथ खींच लिए थे. पी-5 प्लस वन समूहमें संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थायी सदस्यों अमेरिका, चीन, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस के अलावा जर्मनी शामिल है. संक्षेप में कहें तो इस समझौते के तहत ईरान 2006 में लागू अमेरिकी प्रतिबंधों को हटाने के बदले में अपने अत्यधिक समृद्ध यूरेनियम भंडार—जो परमाणु हथियार बनाने में सबसे अहम होता है—पर प्रतिबंध के लिए सहमत हो गया था.


यह भी पढेंः इमरान खान का पतन पाकिस्तान के जनरलों की जीत है, लोकतंत्र की नहीं


यद्यपि यह समझौता इस बात की गारंटी तो नहीं था कि भविष्य में ईरान कभी परमाणु हथियार हासिल करने की कोशिश नहीं करेगा लेकिन बेहद अहम ढंग से इसमें ‘ब्रेकआउट टाइम’ बढ़ा दिया गया था जिस अवधि का मतलब था कि तेहरान के यह तय करने के बाद कि वह परमाणु हथियार चाहता है, उसे तैयार करने में कितना समय लगेगा. अधिकांश विशेषज्ञों का मानना था कि बिना किसी करार के अनिश्चितता में रहने से बेहतर तो वही समझौता था.

हालांकि, ट्रम्प जैसे आलोचकों के लिए परमाणु समझौते में एक बड़ी खामी थी. ईरान, विशेष तौर पर बैलिस्टिक मिसाइलों पर अपना अनुसंधान एवं विकास कार्यक्रम बंद करने के लिए बाध्य नहीं था. पी-5 प्लस वन समझौते के कुछ ही हफ्तों के भीतर ईरान ने मध्यम दूरी की गाइडेड मिसाइल एमाद का परीक्षण किया, जो 1,750 किलोग्राम पेलोड—जो किसी परमाणु हथियार के लिए पर्याप्त है—ले जा सकती थी और 2,500 किलोमीटर दूर तक लक्ष्य भेद सकती थी.

आलोचकों का दूसरा तर्क यह था कि ईरान परमाणु करार के तहत अंतरराष्ट्रीय निगरानी के प्रावधानों से बच सकता है. गौरतलब है कि इजरायल ने यही किया था, उसने पहले वादा किया कि डिमोना संयंत्र का इस्तेमाल कभी भी परमाणु हथियारों के निर्माण के लिए नहीं किया जाएगा और फिर उस केंद्र के कुछ हिस्सों को बंद करके और फर्जी रिएक्टर-ऑपरेशन डेटा उपलब्ध कराकर निरीक्षणों को धता बता दी.

सऊदी अरब के साथ इजरायल ने भी यह तर्क दिया कि पी-5 प्लस वन समझौता तीसरी समस्या का समाधान नहीं करता, ईरान क्षेत्र में अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए परदे के पीछे की रणनीति के साथ आतंकवादी समूहों का इस्तेमाल भी करता है. उन्होंने जोर देकर कहा कि प्रतिबंध हटाए जाने से तेहरान को वह आर्थिक ताकत मिल जाएगी जिसकी उसे अपनी क्षेत्रीय जंग को आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाने के लिए जरूरत है.

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के प्रशासन ने निश्चित तौर पर अपने पी-5 प्लस वन सहयोगियों और खासकर ईरान के आलोचकों की बात सुनी और 2018 में इस समझौते से पीछे हट गया.

यद्यपि इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) पर ट्रम्प के प्रतिबंध बहुत कम हैं—लेकिन खासकर परमाणु समझौते की स्थिति में भी इनके अलग से लागू रहने के राजनीतिक मायने दोनों ही पक्षों के लिए बहुत बड़े हैं. राष्ट्रपति बाइडेन घरेलू स्तर पर इस बात को लेकर इजरायल समर्थक लॉबी और शक्तिशाली राजनेताओं की तरफ से आलोचनाओं में घिर जाएंगे कि क्या उन्हें आईआरजीसी प्रतिबंधों को उठाना चाहिए. वहीं, ईरानी ऐसे समझौते की अनुमति नहीं देंगे जो इस पर प्रतिबंध जारी रखता हो.

अविश्वास की गहरी छाया

सबसे बड़ी समस्या परस्पर भरोसे की है. 1979 में अमेरिका और ईरान के बीच संबंध तब टूटे, जब क्रांतिकारी इस्लामवादियों ने तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास में राजनयिकों को बंधक बना लिया. अमेरिका ने इस क्रांति को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनाई गई उस व्यवस्था के प्रति एक खतरे के तौर पर देखा जो उसने फारस की खाड़ी में बनाई थी, और जो क्षेत्र के तेल तक सुरक्षित पहुंच पर केंद्रित थी. अमेरिका ने 1980 से ईरान के खिलाफ इराक के युद्ध को समर्थन दिया; बदले में ईरान हिज्बुल्लाह जैसी ताकतों के जरिये परोक्ष रूप से अमेरिकी ठिकानों पर हमले में शामिल रहा, जिसने खासकर 1983 में बेरूत में एक समुद्री बैरक पर बमबारी की.

9/11 के बाद तेहरान की तरफ से नई व्यावहारिकता के संकेत दिए गए, जैसा मैंने पहले लिखा. ईरान ने अमेरिका को तालिबान और अल-कायदा पर खुफिया जानकारी दी और 2003 में स्विस राजनयिकों के माध्यम से शांति वार्ता के लिए अपनी शर्तों से अवगत कराया. विशेषज्ञ बारबरा स्लाविन ने बतौर रिकॉर्ड लिखा है, ‘लेकिन तालिबान और सद्दाम के त्वरित तख्तापलट से घमंड में भरे बुश प्रशासन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.’

इसके बजाये, वाशिंगटन ने दूसरे विकल्पों पर जुआ खेलना ज्यादा बेहतर समझा और उसे भरोसा था कि अयातुल्ला को उखाड़ फेंका जा सकता है. 2002 में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने ईरान को ‘शैतान की धुरी’ करार दिया, जिसे उखाड़ फेंका जाना था. इस पर तेहरान को लगने लगा कि सद्दाम हुसैन के इराक की तरह यहां भी अमेरिका का इरादा सत्ता परिवर्तन का होगा.

ऐसे में खुद को बचाने के लिए इराक में ईरान-समर्थित शिया विद्रोहियों ने अमेरिकी सैनिकों को अजेय शहरी युद्ध में उलझा दिया और उन पर सैकड़ों हमले किए. इसके अलावा, ईरान ने अल-कायदा के जिहादियों को सीरिया जाने का रास्ता दिया और अफगानिस्तान में तालिबान को हथियार भेजने शुरू कर दिए.

2010 की तथाकथित अरब स्प्रिंग के दौरान ईरान ने अपने क्षेत्रीय प्रभाव का विस्तार किया. उसने सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन का समर्थन किया और यमन में दबदबा बढ़ाने के सऊदी अरब के प्रयासों को कमजोर कर दिया. वहीं, लेबनान में ठिकाना बनाए हिज्बुल्लाह को भी उसका और अधिक समर्थन मिलने लगा.

पी-5 प्लस वन परमाणु समझौते से ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को कम करने में तो मदद नहीं मिली, बल्कि क्षेत्रीय ताकतों के बीच अविश्वास की खाई जरूर बढ़ गई—और अंतत: उन्होंने उसे खत्म कर दिया.


यह भी पढ़ेंः असम, मणिपुर और नगालैंड से AFSPA का दायरा घटाने का फैसला साहसिक, अगला कदम कश्मीर में उठे


आगे का रास्ता कठिन

कुछ लोगों की राय है कि पी-5 प्लस वन समझौता टूटने से ये क्षेत्र अधिक सुरक्षित हो गया है. एक राय यह भी है कि ईरान का ब्रेकआउट टाइम घट गया है. समझौते से बाहर निकलने के ट्रम्प के फैसले के जवाब में ईरान ने 60 प्रतिशत शुद्धता के साथ यूरेनियम समृद्ध करना शुरू कर दिया, जो अनुसंधान गतिविधियों के लिए बिजली उत्पादन के आवश्यक ग्रेड से कहीं अधिक है. इजरायली विशेषज्ञों का दावा है कि ईरान परमाणु हथियारों का जखीरा तैयार करने में सक्षम होने से सिर्फ 24 महीने दूर है.

एक बड़ी समस्या यह है कि करार सिर्फ परमाणु हथियारों के बारे में नहीं है. तेहरान और वाशिंगटन को इस क्षेत्र में ईरान की भूमिका और प्रभाव पर सहमति बनानी होगी—और फिर इस पर इजरायल और सऊदी अरब जैसे राष्ट्रों के दस्तखत हासिल करने भी जरूरी होंगे.

हालांकि, दोनों पक्षों ने जो सबक हासिल किए हैं, वे इस समझौते का आधार बन सकते हैं. अगर ईरान को अपनी मृतप्राय अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूत करना है तो उसे पश्चिमी बाजारों तक पहुंच बनाने की जरूरत पड़ेगी. चीन के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों के बावजूद तेहरान यह समझ चुका है कि ऐसी कोई साझेदारी सही मायने में वैश्विक अर्थव्यवस्था में जगह बनाने का विकल्प नहीं है.

चाइना ग्लोबल इन्वेस्टमेंट ट्रैकर के मुताबिक, चीन ने 2010 से 2020 तक ईरान में 26.5 अरब डॉलर का निवेश किया. इसी अवधि में चीन ने सऊदी अरब में 43.7 अरब डॉलर और यूएई में 36.16 अरब डॉलर का निवेश किया. जैसा विशेषज्ञ विलियम फिगुएरा ने रेखांकित किया है, ईरान के लिए पूर्व की ओर देखना मजबूरी हो सकता है, लेकिन चीन ने कई दिशाओं में अपनी नजरें गड़ा रखी हैं.

वहीं, वाशिंगटन को भी अपने स्तर पर यह बात समझ आ गई होगी कि जबरदस्ती की भी कोई सीमा होती हैं. लंबे समय से जारी प्रतिबंधों ने उत्तर कोरिया को कमजोर भले कर दिया हो, लेकिन उसके शासक या परमाणु-हथियार और मिसाइल कार्यक्रमों पर कुछ खास असर नहीं पड़ा है. इसी तरह, सालों से जारी प्रतिबंधों के बावजूद ईरान का धार्मिक शासन बरकरार है. अमेरिका की नीतियां फारस की खाड़ी को अधिक सुरक्षित भी नहीं बना पाई हैं.

दशकों से दोनों ही पक्षों ने शायद ही अवसर गंवाने का कोई मौका छोड़ा हो. अब इनके एक बार विफल रहने पर दुनिया को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्य्क्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः श्रीलंका में चीन को मात देने की कोशिश करने के बजाए भारत को खेल का रुख बदलने की जरूरत है


share & View comments