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Monday, 25 November, 2024
होममत-विमतअच्छे इरादों वाली ‘अग्निपथ’ योजना  सेना के लिए कहीं सचमुच ‘अग्निपथ’ न बन जाए

अच्छे इरादों वाली ‘अग्निपथ’ योजना  सेना के लिए कहीं सचमुच ‘अग्निपथ’ न बन जाए

रूस की सेना में जबरन भर्ती के मॉडल की नकल में भारत की टीओडी यानी अग्निपथ स्कीम सेना के बढ़ते पेंशन बिल को कम करने के मामले में आकर्षक तो है मगर इसकी अपनी खामियां भी हैं.

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यूक्रेन में जारी युद्ध भारतीय राजकाज और खासकर रक्षा सुधारों के लिए कुछ बातों की फिर से याद दिला रहा है. उस युद्ध का संदर्भ बेशक अलग है, और इसलिए उसके आधार पर भारतीय संदर्भ के लिए कुछ कहना गलत होगा. लेकिन चूंकि हरेक युद्ध में राजनीतिक मकसद की खातिर हिंसा होती है इसलिए भारत के सैन्य सुधारों की दिशा के लिए कुछ सबक लेने की गुंजाइश बनती है. कालांतर में, यूक्रेन युद्ध पर दुनिया भर में और भारत में भी बेशक कई अध्ययन किए जाएंगे. हम भारतीय संदर्भ के लिए प्रासंगिक और यूक्रेन युद्ध के भविष्य के लिए अनावश्यक दो मसलों पर विचार करते हैं. एक मसला है असैनिक आबादी के विस्थापन का, और दूसरा मसला है फौज के प्रबंधन का. इन दोनों पहलुओं की जांच करने से भारत की सैन्य शक्ति को आकार देने और उसका प्रयोग करने के बारे में कुछ उपयोगी समझ हासिल हो सकती है.

असैनिक आबादी का विस्थापन

पश्चिमी मीडिया ने यूक्रेन की असैनिक आबादी के विस्थापन पर जितना ध्यान दिया है उससे रूसी हमले से पैदा हुई मानवीय त्रासदी के स्वरूप, विस्तार और पैमाने का पता चलता है. किसी क्षेत्र की भू-राजनीति बदल देने वाले हमलों और युद्ध के साथ ऐसी त्रासदियां जुड़ी होती हैं. विवादास्पद इलाकों की आबादी जितनी ज्यादा होती है, नागरिकों को उतनी ही ज्यादा त्रासदी झेलनी पड़ती है. इसका स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि लोग उन इलाकों में जाकर शरण लेते हैं, जहां सुरक्षा, खाना, आश्रय उपलब्ध होते हैं.

भारतीय संदर्भ में, पड़ोसी देशों में अगर गृह युद्ध छिड़ता है तो बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत असकते हैं. 1971 में पूर्वी पाकिस्तान, और 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में एलटीटीई के विद्रोह के कारण शरणार्थियों की बड़ी तादाद के चलते युद्ध छिड़ गया था. पाकिस्तान में आंतरिक संकट इसकी एकता के लिए निरंतर खतरा बन गया है और एक क्षीण संभावना यह है कि वहां गृहयुद्ध छिड़ा तो एक और शरणार्थी संकट खड़ा हो जाएगा. ऐसी स्थिति में पाकिस्तानियों के पास पूरब की ओर बढ़ने के सिवा कोई रास्ता न होगा. दक्षिण-पश्चिम में अरब सागर है, पश्चिम में अफगानिस्तान है, उत्तर में पहाड़ी क्षेत्र है, यानी छिपने की कोई जगह नहीं है.

जो भारतीय पाकिस्तान के टूटने की ख़्वाहिश रखते हैं उनकी उम्मीद अपने लिए ही महंगी साबित होगी. पाकिस्तान की आबादी 22.95 करोड़ है, इसके 1 प्रतिशत के बराबर लोग भी अगर भारत में शरण लेने पहुंच जाएंगे तब भारत का सांप्रदायिक माहौल कितना ज्वलनशील हो जाएगा इसकी कल्पना की जा सकती है. क्षेत्रीय और वैश्विक धार्मिक कट्टरपंथी तत्वों के कारण भारत की सामाजिक एकता को खतरा पैदा हो जाएगा और अंततः उसे अपूरणीय क्षति पहुंचेगी. यह खतरा दूर का लग सकता है मगर इसके घटक स्वरूप पर पर्दा नहीं डाला जाना चाहिए.


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फौजियों का प्रबंधन

भारत की विवादग्रस्त सीमाएं पहले ही इसके संसाधनों पर भारी बोझ डाल रही हैं. इनमें उच्च स्तरीय, पूर्णकालिक पेशेवर सेना को, जिसमें स्वैच्छिक भर्ती का मॉडल अपनाया गया है, बनाए रखने का खर्च शामिल है. यूक्रेन युद्ध में एक जाहिर मसला उभरा है रूसी सेना में जबरन भर्ती किए गए सैनिकों के खराब प्रदर्शन का. इन नए रंगरूटों की सेवा अवधि 2008 में 24 से घटाकर 12 महीने की गई थी. सक्रिय फौज में 25 फीसदी तो ये नए रंगरूट ही हैं. उनकी खराब पेशेवर योग्यता और मंदा जोश जाहिर है, यूक्रेन ने इन रंगरूटों को युद्ध बंदी बनाकर उन्हें अपने अभिभावकों से बात करने की छूट दे रहा है और उनकी इन वार्ताओं का इस्तेमाल सूचना युद्ध में कर रहा है.

इन रूसी रंगरूटों का प्रदर्शन भारतीय सेना में लागू किए जाने वाले ‘टूर ऑफ ड्यूटी‘ (टीओडी) या ‘अग्निपथ‘ स्कीम के लिए कुछ अर्थ रखता है. इस स्कीम के तहत सैनिकों की भर्ती की जाएगी, अधिकारियों की नहीं. तीन साल के सेवाकाल वाली इस नियुक्ति में पेंशन के बदले एकमुश्त भुगतान किया जाएगा और यह भर्ती सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्स (सीएपीएफ) और कुछ सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता के आधार पर की जाएगी. इस स्कीम के पीछे मुख्य मकसद पेंशन के मद में भारी भुगतान को कम करना है. दूसरी कीमतें समाज और सेना के संबंधों की मजबूती, युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना भरने, उम्र सीमा घटाने, सेना में काम करने की युवाओं की इच्छा को पूरा करने के रूप में देनी पड़ सकती हैं.

‘टीओडी’ स्कीम के पीछे अच्छे इरादे हो सकते हैं. लेकिन पेंशन बिल की समस्या के लिए तीनों सेनाओं को ऐसे कार्यों की पहचान करनी होगी जिनके लिए कम हुनर की दरकार है और यह भी सोचना होगा कि तीन साल का सेवाकाल सेना की प्रभावशीलता को कम तो नहीं करेगा. मशीन की जगह लोगों को काम पर लगाने पर ज़ोर देने से हुनरमंदी के लिए ज्यादा समय देना पड़ेगा. तमाम तरह के हथियारों और संचार उपकरणों का इस्तेमाल करने के लिए एक थल सैनिक को भी टेक्नोलॉजी में पारंगत होना पड़ेगा. असली बात यह है कि तीनों सेनाओं को यह पता लगाने में काफी मुश्किल होगी कि ‘टीओडी’ वालों के लिए कौन से काम तय किए जाएं. ऐसे सैनिकों की पर्याप्त संख्या के बिना पेंशन बिल को कम नहीं किया जा सकेगा.

अगर सेनाएं ऐसे कामों की पहचान कर लेती हैं तो ‘टीओडी’ के तीन साल के सेवाकाल के कारण बड़े टर्नओवर का सैन्य कौशल पर प्रभाव पड़ेगा. हुनरमंद सैनिकों की संख्या घटेगी, इसके अलावा जोश वाली भावना को लेकर भी समस्या पेश आएगी. ‘टीओडी’ स्कीम का चुनाव करने वाले लोग देश के बढ़ते बेरोजगारों के बीच से आएंगे. तीन साल वाली ‘टीओडी’ स्कीम उन्हीं लोगों को आकर्षित करेगी जो रोजगार के लिए उतावले हैं. दूसरी एजेंसियों में भर्ती कराने की बातें तो की जा रही हैं मगर तीन साल के बाद रोजगार की गारंटी न होने और असुरक्षा के कारण उत्साह पर असर पड़ सकता है. दूसरे सरकारी विभागों में प्राथमिकता से भर्ती का वादा कागजी ही होगा. ऐसी भर्तियों के प्रति सरकारी विभागों के प्रतिरोध के कारण वादों को अमल में लाना मुश्किल हो सकता है. सरकारी विभाग ऐसी भर्तियों को अपने खाली पदों में दखलंदाजी मान सकते हैं और फिर वरिष्ठता तथा प्रमोशन का पेंच भी फंसेगा.

मोदी सरकार ‘टीओडी’ स्कीम की जगह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था के लिए ‘ह्यूमन कैपिटल इनवेस्टमेंट मॉडल’ पर विचार कर सकती है जिसके बारे में ‘तक्षशिला डिस्कसन डॉक्यूमेंट’ में विस्तार से बताया गया है. इसमें सुझाव दिया गया है कि सेना के लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था में ‘इनवर्स लेटरल मूवमेंट’ के तहत शामिल किया जा सकता है. सीएपीएफ जैसे संगठन अपने यहां भर्ती करके उन्हें पांच-सात साल के लिए सेना में भेज देते हैं, जिसके बाद वे वापस इसमें लौट आते हैं. सेना को उनके पेंशन के बारे में चिंता नहीं करनी पड़ती और सैन्य मजबूती बनी रहती है. मूल संगठन को बेहतर हुनरमंद और अनुभवी कर्मचारी मिलते हैं. ज्यादा अहम बात यह है कि इस मॉडल का विस्तार किया जा सकता है सरकार के विभिन्न महकमों में स्थापित साझा हुनर से जोड़ा जा सकता है.

टीओडी स्कीम को सेना में स्वीकृत कराने से उसका पहले कई जगह प्रयोग करके परीक्षण किया जाना  चाहिए. इसे बिना परीक्षण किए लागू करने का राजनीतिक दबाव हो सकता है. लेकिन सेना की कार्रवाई संबंधी मजबूती पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर चिंता के चलते सेना के आलाकमान को अपना दबाव बनाना चाहिए.

लेखक एक कॉलम्निस्ट और एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो फिलहाल स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS) से चीन पर ध्यान केंद्रित करते हुए इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में एमएससी कर रहे हैं. विचार निजी हैं. 

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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