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Wednesday, 20 November, 2024
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मोदी बिना महागठबंधन ‘महा’ नहीं

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आसान बहुमत हासिल करने के लिए प्रमुख दल की मजबूती की अहम भूमिका होती है जिसकी संभावना भी इस गठबंधन में नहीं है

रेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को हटाने की मांग करने वाले विभिन्न बलों ने विपक्षी एकता के महत्व को समझ लिया है। लेकिन जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के बीच अलगाव से पता चलता है कि गठबंधन बनाना अक्सर आसान होता है लेकिन उसे बनाए रखना मुश्किल।

पहला राष्ट्रीय गठबंधन 1971 में बना था, जब विभाजित कांग्रेस की इंदिरा गांधी के दल से लड़ने के लिए पाँच दल एक साथ आए थे। गाँधी ने कहा कि यह “महागठबंधन” उन्हें हटाने पर केंद्रित था, जबकि वह गरीबी को हटाने पर केंद्रित थीं। मतदाताओं ने उन पर विश्वास किया। गठबंधन भागीदारों की 24 प्रतिशत मतों की तुलना में उन्हें कुल वोटों के 44 प्रतिशत वोट मिले; उन्होंने लोकसभा में भी दो तिहाई सीटें जीतीं।

परंतु दूसरी बार मामला इसके विपरीत रहा। आपातकाल के कठोर अनुभव के बाद उत्तर भारत के अधिकांश मतदाता कांग्रेस के खिलाफ खड़े किसी भी उम्मीदवार को वोट देने के लिए तैयार थे। कांग्रेस के मतों की हिस्सेदारी घटकर 35 प्रतिशत आ गई, जबकि नई बनी जनता पार्टी (सन 1971 के गठबंधन के समान दलों से बनी) को 43 प्रतिशत वोट मिले और उसे कांग्रेस की (153 के मुकाबले 298 ) लगभग दोगुनी लोकसभा सीटें मिलीं। फिर भी यह सरकार अपना आधा कार्यकाल पूरा करने से पहले गिर गयी। हाल के वर्षों में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने दो बार गठबंधन सरकारों का कार्यकाल पूरा किया। लेकिन वे सरकारें नीतिगत पंगुता और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई थीं, क्योंकि गठबंधन में शमिल कुछ दलों ने मनमाने ढंग से काम किया।

अल्पमत सरकारों ने गठबंधन की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। सन 1969 के बाद इंदिरा गांधी की सरकार, नरसिंह राव की सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार, सभी सदन में अल्पमत थीं, लेकिन बची रहीं और यहां तक कि बहुत अच्छा काम करने में भी कामयाब रहीं।

इन उदाहरणों से पता चलता है कि 2019 के आम चुनाव में और उसके बाद विपक्षी गठबंधन की संभावनाएं स्पष्ट रूप से अनिश्चित हैं। सरकार की लोकप्रियता में कमी आई है लेकिन 1971 की तरह प्रधानमंत्री का कद अभी भी काफी ऊँचा है। यदि अगले वर्ष कोई विपक्षी गठबंधन बनाता है तो वह 1971 से बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद कर सकता है, लेकिन दोबारा वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाएगा। सन् 1977 के गठबंधन ने काम किया क्योंकि मतदाताओं को कांग्रेस को हटाने के लिए किसी अन्य वजह की आवश्यकता नहीं थी। इसके अलावा विपक्ष से अपेक्षा की गई थी कि वह अपने उम्मीदवारों को खड़ा करें। आज मतदाताओं के एक निश्चित उप-समूह के लिए ऐसी स्थिति हो सकती है लेकिन सन 1977 को दोहराया नहीं जा सकता है क्योंकि उस वक्त कांग्रेस को पूरे उत्तर भारत में सीट को छोड़कर प्रत्येक पर पराजय का सामना करना पड़ा था। इसका मतलब 2019 में 1977 का दोहराव नहीं होगा। अगर जीत मिलती भी है तो वह बहुत मुश्किल जीत होगी।

एक बार फिर से राजनीतिक जटिलताएं हैं, बचाव की भावना ही और कुछ नहीं जो इन अलग-अलग दलों को एक साथ लाई है (एकता दिखाओ या अकेले रहो)। इनके व्यक्तित्व आपस में मेल नहीं खाते, मतदाता आधार के मामले में भी इनमें काफी घालमेल है और

हर नेता अपने आपको प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानकर चल रहा है। भाजपा को इन सब बातों का फायदा मिल सकता है, उसी तरह जैसे कांग्रेस को सन 1979 में जनता पार्टी और 1990 में वीपी सिंह के जनता दल में फूट से मिला था।
राज्य-स्तरीय हकीकत भी दिलचस्प है। कांग्रेस दिल्ली में आम आदमी पार्टी से संबंध बनाना नहीं चाहती है और महाराष्ट्र में वह शिवसेना के साथ नहीं आ सकती। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस वाम दलों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोडना चाहती और इसी तरह आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम कांग्रेस को कोई जगह नहीं देना चाहती। संभावना यही है कि महागठबंधन राज्य स्तरीय नेताओं का जबरदस्त मोलभाव वाला संघ होगा जहाँ मतदान दिवस से पहले तक तनाव रहेगा।

हालांकि, सबसे अहम बात यह है कि सरकार में शामिल दल एक साथ बने रहते हैं, यदि उनको पता हो कि वे गठबंधन से निकलकर अपने दम पर सरकार नहीं बना सकते। इसमें स्वाभाविक तौर पर समूह के नेता और पार्टी को जोड़े रखने वाले के रूप में प्रमुख दल की मजबूती की अहम भूमिका होती है। जैसी स्थिति है, चुनाव परिणाम अनुकूल नहीं लगते। इनके अलावा आपको एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है जो जटिल हालात में भी परिस्थितियों पर काबू रख सके। चूंकि ऐसा नेता भी उपलब्ध नहीं है इसलिए इस बात पर कई लोग दांव लगेंगे कि मोदी विरोधी सरकार बनी भी तो भाजपा-पीडीपी सरकार से ज्यादा नहीं चलेगी। उसके बाद क्या सन 1980 में इंदिरा गांधी की तरह मोदी की भी दोबारा वापसी होगी?

बिज़नेस स्टैण्डर्ड के साथ विशेष व्यवस्था से

Read in English: The grand opposition alliance will not work because it doesn’t have a Modi

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