नई दिल्ली: भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा हिमाचल प्रदेश के चंबा ज़िले में किए गए एक व्यवहार्यता अध्ययन में पता चला है, कि ड्रोन्स का इस्तेमाल किस तरह बलग़म के नमूनों को लाने-ले जाने में किया जा सकता है, जिससे दवा-प्रतिरोधी ट्यूबरकुलोसिस के निदान में लगने वाला समय कम हो सकता है.
पिछले सप्ताह ‘ट्रांज़ेक्शंस ऑफ दि रॉयल सोसाइटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन’ पत्रिका में छपे एक पेपर में, आईसीएमआर शोधकर्त्ताओं ने जानकारी दी कि किस तरह मानव रहित विमानों (यूएवीज़) के ज़रिए बलग़म का परिवहन, पारंपरिक साधनों की अपेक्षा संभावित रूप से ज़्यादा सहज, किफायती और प्रभावशाली विकल्प है.
आईसीएमआर शोधकर्त्ताओं ने अपने पेपर में बताया, ‘कुल 180 नियोजित ट्रांसफर्स में से, हमने यूएवी और मोटरबाइक से 151 ट्रांसफर पूरे कर लिए. दो निर्धारित लोकेशन्स के बीच एक बाइक और एक यूएवी ने, क्रमश: 12.09 और 2.89 किमी का फासला तय किया. मोटरबाइक और यूएवी द्वारा बलग़म ले जाने का औसत समय क्रमश: 21.9 और 6.9 मिनट्स था. मोटरबाइक और यूएवी के हर फेरे की आवर्त्ती लागत क्रमश: 85 रुपए (1.3 अमेरिकी डॉलर) और 20 रुपए (0.3 अमेरिकी डॉलर) थी’.
दवा-प्रतिरोधी टीबी तब होती है जब बेक्टीरिया में उन दवाओं का प्रतिरोध पैदा हो जाता है, जो आमतौर पर इस बीमारी के इलाज में इस्तेमाल की जाती हैं. इसका सबसे आम कारण तब पैदा होता है, जब मरीज़ इलाज का कोर्स पूरा नहीं करते, और बीच में ही रोक देते हैं, जिससे बेक्टीरिया दवा के संपर्क में तो आता है, लेकिन वो इतनी पर्याप्त नहीं होती कि बेक्टीरिया को मार सके.
दुनिया में ‘मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट’ टीबी (एमडीआर-टीबी) का सबसे अधिक बोझ भारत में है, जहां दुनिया भर के दवा-प्रतिरोधक ट्यूबरकुलोसिस संक्रमण के, एक चौथाई मामले सामने आते हैं.
2020 में नेचर पत्रिका में छपे एक लेख में कहा गया था, ‘दुनिया भर में एमडीआर-टीबी के तक़रीबन आधे मरीज़ तीन देशों- भारत (27 प्रतिशत), चीन (14 प्रतिशत), और रूस (9 प्रतिशत) में हैं. 2016 में टीबी दवा-प्रतिरोध पर किए गए एक भारतीय सर्वे में पता चला, कि वैश्विक डब्लूएचओ 2019 रिपोर्ट की तुलना में, इलाज किए गए (11.6 प्रतिशत बनाम 18 प्रतिशत), और नए मामलों (2.84 प्रतिशत बनाम 3.4 प्रतिशत) में एमडीआर की घटनाएं कम थीं’.
यह भी पढ़े: कोविड-19 पुरुषों की प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर सकता है, IIT मुंबई की रिसर्च में खुलासा
‘ड्रोन परिवहन से नमूने की गुणवत्ता प्रभावित नहीं होती’
शोधकर्त्ताओं ने ये भी लिखा कि यूएवी द्वारा लाने ले जाने से, नमूनों की गुणवत्ता और नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
पिछले वर्ष आईसीएमआर ने मणिपुर के दूर-दराज़ के इलाक़ों तक कोविड टीके भेजने के लिए ड्रोन्स का इस्तेमाल किया था.
चंबा परियोजना के लिए, हर यूएवी एक उड़ान में बलग़म के चार नमूने लेकर गया, जो यूएवी से जोड़े गए पॉलीथिलीन फोम से बने एक पैकेज में रखे हुए थे. हर यूएवी बैटरी-चालित था और उसे एक प्रशिक्षित जांचकर्त्ता संचालित कर रहा था.
शोधकर्त्ताओं की सिफारिश थी कि सरकार को अपनी नीति में उपयुक्त बदलाव करने चाहिएं, जिससे कि ड्रोन के ज़रिए जैविक नमूनों का परिवहन किया जा सके.
उन्होंने लिखा, ‘इनके फायदों के बावजूद, यूएवी की कुछ सीमाएं हैं, जैसे कि नमूने की संख्या के मामले में सीमित क्षमता, और विपरीत मौसमी हालात जो उनकी उड़ान को प्रभावित कर सकते हैं. हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यूएवी अच्छे से स्वीकार किए गए, उन्हें व्यवहारिक महसूस किया गया और बलग़म नमूनों के परिवहन के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली ने उन्हें अपना लिया’.
शोधकर्त्ताओं ने आगे लिखा: ‘हमारा सुझाव है कि सरकार यूएवी के नागरिक इस्तेमाल से जुड़ी अपनी नीतियों में बदलाव करे, जिससे स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में सेवा वितरण के अंतराल को भरा जा सकेगा. हम सिफारिश करते हैं कि भविष्य के शोध में अच्छी तरह से संरचित एक ऐसी स्टडी डिज़ाइन की जाए, जो परिचालन और स्वास्थ्य-संबंधी परिणामों के सुधार में, यूएवीज़ के प्रभावों को दर्ज कर सके’.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )
यह भी पढ़े: दिल्ली में बढ़ी कोरोनावायरस संक्रमण की दर, गाजियाबाद के दो स्कूलों में 3 बच्चे मिले कोविड पॉजिटिव