नवरात्रि के दिनों में अगर कोई गैर-हिंदू व्यक्ति मटन बिरयानी खाता है तो क्या इससे आपको परेशानी होती है? अगर कुछ चीजों पर ‘हलाल’ का लेबल लगा दिया जाता है तो इससे आपको क्या बहुत फर्क पड़ता है? या कोई स्कूली छात्रा अपने सिर को किसी कपड़े से ढकती है तो क्या आपको कोई दिक्कत होती है?
मैं तो यही उम्मीद करता हूं कि इन सवालों का जवाब यही मिलेगा— ‘नहीं, नहीं. वाकई कोई फर्क नहीं पड़ता’. कोई भी आपको मटन बिरयानी खाने या उसे खा रहे किसी आदमी को देखने के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं कर रहा है. आप तो यह भी नहीं जानते कि हलाल का लेबल वास्तव में क्यों लगाया जाता है. और कोई लड़की अगर अपने सिर पर हिजाब रखकर स्कूल जा रही है या कोई सिख छात्र पगड़ी बांध कर स्कूल जा रहा है तो इससे आपका जीवन कतई प्रभावित नहीं होता.
फिर भी, मेरे लिए दिलचस्पी का विषय यह है कि इन दिनों भारत में इस तरह के मुद्दे सार्वजनिक बहस में कैसे हावी हो रहे हैं. तरीका आम तौर पर एक जैसा ही है. जोकर किस्म का कोई शख्स जिसके बारे में आपने कभी कुछ सुना नहीं (आम तौर पर कोई राजनीति का कोई छुटभैया खिलाड़ी) कोई अपमानजनक टिप्पणी कर देता है कि हिंदू पर्व-त्योहार के दौरान मांस की दुकान खुली रहे यह कितनी बुरी बात है/ कि हिजाब जैसी चीज स्कूल यूनिफॉर्म को किस तरह चुनौती दे रही है/ कि हलाल जैसे लेबल से हमारी राष्ट्रीय पहचान किस तरह खतरे में पड़ गई है.
पहले तो आप इस तरह की बातों पर ध्यान नहीं देते क्योंकि आपको लगता है कि कोई फालतू आदमी आत्मप्रचार के लिए यह सब कह रहा है. लेकिन इस तरह की मांगों को बार-बार उठाया जाता है, सोशल मीडिया में उछाला जाता है. ट्वीटर और फेसबुक पर अच्छी-ख़ासी बहस आयोजित की जाती है. इसकी शुरुआत फर्जी पहचान वालों और कंट्रोल रूम के मेज़बानों के द्वारा की जाती है लेकिन आगे चलकर आम जनता भी इसमें भाग लेने लगती है. अपना-अपना पक्ष ले लिया जाता है और मोर्चेबाजी शुरू हो जाती है. ट्वीटर की अवैध संतान मानी गई समाचार टीवी इस मसले को उठा लेती है.
और तब, चूंकि यह सामाजिक सरोकार का चिंतनीय मुद्दा बन जाता है, गंभीर राजनेता भी इस बहस में कूद पड़ते हैं. स्कूलों में हिजाब पहनने पर रोक लगा दी जाती है. मांस की दुकानों को बंद करने पर मजबूर किया जाता है. हलाल वाले मसले की आधिकारिक जांच का फैसला किया जाता है, आदि-आदि.
यह सब जब शुरू हुआ था तब मैं सोचा करता था कि हम भी कितने मूर्ख हैं कि बेमानी मसलों पर बहस में अपना समय गंवाते रहते हैं. बेशक इनसे ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दे कई थे जिनकी हमें चिंता होनी चाहिए थी. हम हिजाब को सामाजिक परिधान का हिस्सा बनाने के पक्ष में हों या न हों, यह ऐसा सवाल नहीं है जिसको लेकर हम परेशान हो जाएं. हलाल वाला मसला भी ऐसा ही है. जानवरों को काटने के कई तरीकों के बीच के फर्क (व्यापक अर्थ में) की जानकारी मुझे है लेकिन हर बार सींक कबाब खाते हुए मैं यह नहीं सोचने लगता कि इसका मीट झटका है या हलाल.
मैं जिस तरह का मंदबुद्धि हूं उसके कारण इधर दो साल से मैं यह समझने लगा हूं कि ये सारी बहसें और विवाद पूरी तरह गढ़े हुए हैं. नेता लोग चाहते हैं कि हम इन मसलों में उलझे रहें. वे चाहते हैं कि हम इन मामलों को महंगाई, पेट्रोल-डीजल की रोज बढ़ती कीमतों जैसे मुद्दों से ज्यादा महत्वपूर्ण मानें.
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संदेश हिंदुओं के लिए
अंततः मैंने जब इसका भेद पता लगा लिया तब मुझे विश्वास हो गया कि इस सबके पीछे मंशा मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नीचा दिखाने की है. मुसलमानों को यह महसूस कराया जाए कि उनके रीति-रिवाज हिंदू समाज के लिए अभिशाप हैं और हम या तो उन्हें बिलकुल बर्दाश्त नहीं करेंगे या बर्दाश्त करेंगे भी तो क्षमाभाव से. संदेश यह है कि अब यह उनका देश नहीं है. उन्हें कुछ छूट दी जाएगी, लेकिन हिंदू बहुसंख्यकों की मर्जी और इजाजत से ही दी जाएगी. क्योंकि भारत अब एक हिंदू राष्ट्र बन चुका है.
मुझे पक्का यकीन है कि इस नजरिए में कुछ दम है. लेकिन इसके बारे मैं जितना सोचता हूं उतना ही यह असंतोषजनक लगता है. मुसलमानों को मालूम है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में समान नागरिक के तौर पर उनकी हैसियत खतरे में है. अपवाद, नैतिक रूप से शून्य और राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले को छोड़ दें तो अधिकतर मुस्लिम लोग भाजपा को वोट देना तो दूर, उसके साथ कोई ताल्लुक भी नहीं रखना चाहते. इसलिए, मुसलमानों और उनके रीति-रिवाजों को बार-बार निशाना बनाने से किसे लाभ होने वाला है?
हाल में जाकर ही मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उन विवादों और बहसों के लक्ष्य मुसलमान कतई नहीं बल्कि हिंदू हैं. जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूं, भाजपा का यह अवतार इसलिए सफल रहा है क्योंकि उसने हिंदूवाद को वोट जीतने का हथियार बना लिया है. अल्पसंख्यकों से केवल पहचान के आधार पर वोट दिलवाना मुश्किल नहीं है, लेकिन 80 फीसदी आबादी वाले और मुसलमानों की तुलना में अधिक संपन्न और शिक्षित हिंदुओं से ऐसा करवाना मुश्किल है. आप उन्हें बाकी सभी सरोकारों को गौड़ करके हिंदू के रूप में वोट देने के लिए कैसे राजी करेंगे? इसका संक्षिप्त जवाब यह है कि आप सांप्रदायिक तापमान को ऊंचा रखें. हर बात को हिन्दू-मुस्लिम विवाद में बदल दें.
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उत्पीड़ित हिंदू से हावी हिंदू तक
शुरू में कहा जाता रहा कि हिंदू उत्पीड़ित हैं. लालकृष्ण आडवाणी जब टोयोटा रथ पर रामायण के पात्रों के वेश में सजे बेरोजगार अभिनेताओं के साथ सवार हुए थे और हिंदुओं को यह समझाया था कि अपने ही देश में वे अल्पसंख्यकों जैसे हो गए हैं, तभी से भाजपा के मंच से हिंदुओं को दोयम दर्जे के नागरिक बताना एक अहम काम बन गया.
वह कहानी आज भी चल रही है, लेकिन सच कहें तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दौर में वह कुछ कमजोर पड़ रही है. कौन हिंदू आज यह मानने को तैयार होगा कि आज के भारत में उसके साथ भेदभाव हो रहा है? इसलिए, इसकी जगह एक नई कहानी पेश की जा रही है. कहा जा रहा है कि पुरानी ‘सेकुलर’ सरकारों ने मुसलमानों को कई विशेषाधिकार दे दिए. अब जबकि हिंदुओं ने कमान थाम ली है तो उन विशेषाधिकारों की जांच करने और वापस लेने का समय आ गया है. मुसलमानों को यह इजाजत क्यों दी जाए कि वे अपनी बेटियों को हिजाब पहनाकर स्कूल भेजें? क्या उन्हें पता नहीं है कि वे सऊदी अरब नहीं बल्कि हिंदू भारत में रह रहे हैं?
या, हिंदुओं की बहुसंख्या वाले देश को हलाल जैसी इस्लामी प्रथाओं को क्यों बर्दाश्त करना चाहिए? या, इन लोगों को यह बुरा नहीं लगता कि हम तो निरामिष भोजन का अनुशासन मानने वाला त्योहार मना रहे हैं और ये बिरयानी खा रहे हैं? यह नहीं चलेगा. यह हिंदू देश है. हमारी भावनाओं और रिवाजों का सम्मान होना ही चाहिए. या कल्पना विहीन नेताओं का आखिरी तीर—मुसलमानों को नमाज़ की अजान देने के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करने का अधिकार क्यों दिया जाए? क्या उन्हें मालूम नहीं है कि इससे हिंदुओं को परेशानी होती है? यह पाकिस्तान नहीं है. या, मुसलमान लोग शुक्रवार को खुले में नमाज पढ़ने के लिए ट्रैफिक जाम क्यों करें? क्या यह कोई इस्लामी मुल्क है? उन्हें इस तरह की असुविधा देने की
इजाजत क्यों दी जाए?
धीरे-धीरे मगर निश्चित रूप से, यह कहानी अब हटाई जा रही है कि हिंदू प्रताड़ित हैं. इसकी जगह हिंदू वर्चस्व की कहानी आ गई है. संदेश यह है कि हमने अपने देश को वापस हासिल कर लिया है और तथाकथित सेकुलर नेताओं ने तुम मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाने के लिए तुम्हें जो विशेष अधिकार दिए थे वे अब एक-एक करके खत्म किए जाएंगे.
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नफरत की आग जलाए रखो
सभी हिंदू इसे कबूल नहीं करते. हिंदू धर्म स्वभावतः सहिष्णु और शांति प्रेमी है. इसलिए हिंदुओं को बिना किसी असली कारण के मुसलमानों खिलाफ भड़काना आसान नहीं है. लेकिन ऐसा न भी हो, और हिंदू लोग हिजाब पहने लड़कियों या हलाल के खिलाफ खड़े नहीं होते तब भी इन मुद्दों को उठाने वालों की जीत होगी.
हम उनके बारे में बात कर रहे हैं, हर दो हफ्ते में कोई-न-कोई नया हिंदू-मुस्लिम विवाद भड़का दिया जाता है तो इसका अर्थ यही है कि सार्वजनिक विमर्श पर सांप्रदायिक मुद्दे हावी हैं. हर चीज में हिंदू-मुस्लिम विवाद खड़ा किया जाता है. मुद्दों को जिस तरह पेश किया जाता है उससे मुसलमानों को ही जलील किया जाता है, चाहे वह हलाल हो या हिजाब हो या अजान आदि का मामला हो. यह हिंदुओं के ऊपर है कि वे तय करेंगे कि इस सबको बर्दाश्त करेंगे या नहीं.
इसलिए हिंदू सांप्रदायिक तत्व वैसे विषय उठाते हैं जो वर्षों से चर्चा में रहे हैं (कि नवरात्रि में निरामिष रहने की कोई मजबूरी नहीं है या मीट प्रायः हलाल के तरीके से ही तैयार किया जाता है) और दिखावा ऐसे करते हैं मानो ये नए मुद्दे हैं. उदारवादी लोग इन विषयों पर मुसलमानों का बचाव करने के जाल में फंस जाते हैं. इस तरह, सांप्रदायिक तत्व एजेंडा तय करने में सफल हो जाते हैं.
माहौल में सांप्रदायिक बनाने का खतरा यह है कि मुद्दों को बहस के दायरे बाहर निकालकर सड़कों पर लाना आसान हो जाता है. आज का विवाद अक्सर कल दंगे में बदल जाता है. और भाजपा वह स्थिति नहीं चाहती कि दंगे भड़कें. उसका एक दावा यह भी है कि देश में जबसे उसकी सरकार आई है, दंगे काफी कम हुए हैं.
इसलिए—और यह शानदार चाल है—विवाद को कभी इतना गरम नहीं होने दिया जाता कि दंगा भड़के. बल्कि सांप्रदायिक तापमान को हमेशा ऊंचा रखा जाता है. इसे इतना गम रखा जाता है कि विमर्श पर हावी रहे और हिंदू-मुस्लिम विवाद पर ज़ोर बना रहे. लेकिन शायद ही यह कभी इतना गरम होता है कि हिंदुओं को कानून-व्यवस्था के लिए खतरा महसूस हो.
यह मुश्किल संतुलन है और मैं नहीं जानता कि यह हमेशा कायम रहेगा या नहीं. उत्तर प्रदेश में गोमांस के खिलाफ अभियान कत्ल और लिंचिंग तक पहुंच गया तो भाजपा ने कदम खींच लिये और प्रधानमंत्री मोदी ने खुद इसके खिलाफ आवाज उठाई. तब से इस अभियान पर लगाम लगा. फिर भी यह देखना होगा कि वे कब तक अहिंसक बने रहते हैं.
लेकिन अब हम इसी भारत में रह रहे हैं. आज़ादी और बंटवारे के बाद के सात दशकों तक हम अतीत के जख्मों को खोलने के डर से वर्तमान की चुनौतियों की अनदेखी करते रहे. जहां भारत की जीत होनी चाहिए थी वहां वर्गीय राजनीति जीत गई. और हम आगे बढ़ने की जगह उन वृतों में चक्कर लगाते रहे जो निरंतर छोटे होते गए हैं.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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