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Tuesday, 23 April, 2024
होममत-विमतप्रिय राहुल और प्रियंका, आपको मौका मिला, आपने गंवा दिया, अब दूसरों को करने दीजिए

प्रिय राहुल और प्रियंका, आपको मौका मिला, आपने गंवा दिया, अब दूसरों को करने दीजिए

सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद बार-बार ठुकरा कर सम्मान हासिल किया था, यह पीढ़ी बागडोर अपने हाथ में रखने की लालच में वह सम्मान और सहानुभूति गंवा बैठी.

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खानदान, कांग्रेस की कमजोरी है. 1991 में राजीव गांधी की हत्या के फौरन बाद पार्टी ने सोनिया गांधी से अध्यक्ष का कार्यभार संभालने को कहा. अपने पति के समूचे राजनैतिक करियर के दौरान राजनीति से बाहर रहीं सोनिया ने सिरे से इनकार कर दिया. लेकिन पार्टी संतुष्ट नहीं हुई. उनसे पूछा गया कि क्या वे कम से कम किसी एक वरिष्ठ नेता को कांग्रेस का जिम्मा संभालने के लिए नामजद कर देंगी? उन्होंने नरसिंह राव को नामजद किया जो पहले कांग्रेस अध्यक्ष बने और उनकी सलाह से फिर प्रधानमंत्री.

तो, क्यों किसी ने नरसिंह राव को ‘संयोग से प्रधानमंत्री’ नहीं कहा? हां, शायद इसलिए कि पद सुरक्षित होने के बाद उन्होंने तब तक अराजनैतिक सोनिया ने उस इकलोती मांग को भी ठुकरा दिया था कि राजीव हत्याकांड की गहराई से जांच कराई जाए. दोनों के बीच रिश्ते खट्टे हो गए और 1996 में जब राव चुनाव हार गए तो कांग्रेस के लोग फिर सोनिया के पास पहुंचे और उनसे पार्टी को दिशा-निर्देश देने की मांग की. फिर सोनिया ने इनकार कर दिया और कहा कि वे राजनीति में नहीं हैं.

तब कांग्रेस का बुरा हाल देखकर राव के उत्तराधिकारी कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कम से कम पार्टी के लिए प्रचार करने को कहा. आखिरकार वे तैयार हुईं, जब केसरी को पार्टी ने निकाल दिया तो वे अध्यक्ष बनीं.

उनके हाथ फौरन कामयाबी नहीं आई. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को गिराने के लिए जयललिता से गठजोड़ तो कामयाब रहा, मगर उसके बाद चुनाव में वाजपेयी कांग्रेस को हराकर सत्ता में लौट आए.

अधिकांश लोगों की तरह मैं भी राष्ट्रीय राजनीति में महारत हासिल करने में उनकी नाकामी से हैरान नहीं हुआ. लेकिन मुझे हैरानी इससे हुई कि कई बार ठुकरा कर भी उन्होंने आखिरकार यह जिम्मेदारी क्यों स्वीकार कर ली. मैंने यह सवाल उनसे एक इंटरव्यू में पूछा. उन्होंने कहा कि राजनीति में कांग्रेस को बिखरता देखकर उतरी (जो शर्तिया बिखर रही थी). उन्हें यह भी लगा कि वे अपनी स्टडी में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव की तस्वीरों को देख इस सोच से किनारा नहीं कर सकती थीं कि उन्होंने पार्टी को डूगने दिया. उन्होंने कहा कि उन्हें पता नहीं है कि अपनी अनुभवहीनता की वजह से वे पार्टी के लिए कितनी मददगार हो सकती हैं. लेकिन उन्होंने इसे अपनी ड्यूटी माना. बाद में ऑफ द रिकॉर्ड उन्होंने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने की कोई इच्छा नहीं है.

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हम अब जानते हैं कि वे कांग्रेस में जान फूंकने में कामयाब हुईं. उन्होंने प्रधानमंत्री न बनने का अपना वचन निभाया और कांग्रेस को दस साल सत्ता में बनाए रखा. आप कह सकते हैं कि पार्टी का प्रदर्शन यूपीए-2 के दौरान गिरा क्योंकि वे बीमार पड़ गईं और लंबे समय तक विदेश में इलाज चलने की वजह से गैर-मौजूद रहीं.

हाल के विधानसभा चुनावों में हार के बाद जब कांग्रेस में परिवार के दबदबे पर हो-हल्ला उठा तो मैंने गांधी परिवार की सक्रिय राजनीति में वापसी के शुरुआती दिनों को याद किया.

सोनिया एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों में बुरी हार के बाद बेटे राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया तो उन्होंने यह दायित्व संभाला. लेकिन यह साफ नहीं है कि वे कितनी सक्रिय भूमिका में हैं और कितना समय देना संभव है क्योंकि उनकी उम्र बढ़ रही है (वे 75 वर्ष की हैं) और उनकी सेहत भी ठीक नहीं है. मसलन, उन्होंने हाल के विधानसभा चुनावों में ज्यादा प्रचार नहीं किया. कई बार आप यह सोचते हैं कि वे जिस पद को छोड़कर राहत महसूस कर रही थीं, उसे उन्होंने फिर यह देखकर संभाला कि आज कांग्रेस उससे भी बुरे हाल में है, जब उन्होंने सक्रिय राजनीति में कदम रखा था और तब वह जिस उदार, सबको साथ लेकर चलने वाले भारत विचार के लिए लड़ाई का बीड़ा उठाया था, वह लड़ाई शायद हारी जा चुकी है.


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तो, यह कैसे इतना गलत हो गया?

जरूरी नहीं है कि राजनैतिक समझ जींस में परिवर्तित हो. सोनिया में अश्चर्यजनक रूप से अच्छी राजनैतिक समझ थी. वो अपने इर्द-गिर्द एक संस्थागत ढांचा तैयार करने में कामयाब हुई थीं और किचन कैबिनेट नहीं थी, न ही प्रभावी वफादारों की टोली थी.

अब यह साफ लगता है कि उनके बच्चों में वह समझ नहीं उतरी. अपनी मां की तरह राहुल ऐसे नेता नहीं हैं, जो वोटरों से असानी से संपर्क स्थापित कर लें. उनकी मां को अपनी सीमाओं का एहसास था, जबकि राहुल शायद सोचते हैं कि लोग उन्हें प्रचार अभियान में देखकर अपने आप वोट दे देंगे. चुनाव-दर-चुनाव, राज्य-दर-राज्य यह नजरिया बेमानी साबित हुआ है. अपनी मां के उलट प्रियंका लोगों से आसानी से जुड़ जाती हैं, गर्मजोशी और करिश्मा भी पैदा करती हैं. लेकिन अपनी मां के उलट, उनमें राजनैतिक चतुराई का कोई सबूत नहीं है.

युवा गांधी के पास वोटरों में आकर्षण पैदा करने वाला कोई बड़ा विचार, कोई जवाबी अफसाना है. सोनिया में यह गजब की समझ थी कि उदारीकरण का लाभ गरीबों की ओर नहीं रिस रहा है. इसलिए उन्होंने समाज में हाशिए के लोगों तक अपनी पहुंच बनाई, उन लोगों तक, जो गरीबी से और गरीबी में धंसते जा रहे थे, जबकि अमीर और अमीर होते जा रहे थे. उसी रवैए ने कांग्रेस को 2004 में जीत दिलाई. यूपीए सरकार ने सोनिया गांधी के वादे के अनुरूप मनरेगा जैसी योजना लागाकर सीधे रकम हस्तांतरण पर अमल किया.

पहले इन सभी योजनाओं की बीजेपी ने खिल्ली उड़ाई और बाद में नरेंद्र मोदी ने उसे हथिया लिया. जब लोग कहते हैं कि भाजपा कल्याणकारी योजनाओं की वजह से जीतती है तो वे भूल जाते हैं कि यह मूल रूप से कांग्रेस की पहल है.

इसके बदले राहुल गांधी का बड़ा विचार पिछला लोकसभा चुनाव ‘चौकीदार चोर है’ के नारे पर लड़ने का था. नतीजों ने दिखाया कि इसकी मतदाताओं में गूंज नहीं सुनाई दी. उन्होंने इसके लिए अपनी पार्टी के नेताओं पर दोष मढ़ा कि उन्होंने प्रधानमंत्री की नीयत पर हमले को तेज नहीं किया.

उनमें कोई राजनैतिक समझ भी नहीं दिखती. वे केरल में (जहां से अब वे लोकसभा में प्रतिनिध हैं) कांग्रेस की गुटबंदी पर भी काबू पाने में इस कदर नाकाम हुए कि केरल चुनावों के चक्रीय रुझान के मद्देनजर जीत तय मानी जा रही थी. उनके इर्दगिर्द कई तेजतर्रार युवा नेता भी अब पार्टी छोड़ गए हैं या छोड़ने की कोशिश में हैं. दुखद यह है कि कोई नेता जब आगे बढ़ने की हर उम्मीद गंवा बैठता है तो उसके साथ सिर्फ वही पिछलग्गू रह जाते हैं जिन्हें कहीं जाने की कोई राह नहीं दिखती. यही राहुल की फिलहाल मंडली है.

कोई राह नहीं सूझती कि सबसे गजब की मिसाल पार्टी का सोशल मीडिया तंत्र है. बीजेपी का आईटी सेल जहर फैलाता है मगर बड़े डरावने ढंग से कारगर भी है. कांग्रेस का ट्विटर ऑपरेशन बीजेपी आईटी सेल की नकल जैसा लगता है मगर कारगर कतई नहीं है. उसमें उस हर किसी को अशोभनीय गालियों का निशाना बनाया जाता है, जो नहीं मानते कि राहुल गांधी में मुश्किल हालात से उबारने की काबिलियत है. यह नहीं सोचा जाता कि जिन लोगों पर हमला बोला जाता है, उनमें ज्यादातर उदार विचार वाले हैं, जिनसे आम तौर पर कांग्रेस का समर्थन करने की उम्मीद की जाती है. इस तरह उससे उस व्यापक धारणा को बल मिलता है कि कांग्रेस कोई महान उदार विकल्प नहीं बची है, बल्कि वह राहुल गांधी और उनके परिवार की पूजा-अर्चना का मंच भर बन गई है.

इसमें कुछ भी कांग्रेस को कहीं नहीं ले जाएगा. बीजेपी का सोशल मीडिया तंत्र चुनावों का रुझान बदलता है. कांग्रेस का सोशल मीडिया तंत्र सिर्फ राहुल गांधी के दुश्मनों की तादाद बढ़ाता है. कांग्रेस के इस अवतार से मीडिया की असहजता की एक वजह यह भी है. फिर भी, कोई भी राहुल के बारे में कोई अच्छी बात नहीं कहता इसलिए वे इसे जारी रहने देते हैं.

मैं और भी लिख सकता हूं. पंजाब का गड़बड़झाला और नवजोत सिंह सिद्धू का परिवार के पसंदीदा के रूप में उभरना एक पूरी किताब का मसाला है. यूपी में राहुल गांधी ने 2005 में कहा था कि कांग्रेस को अपना संगठन खड़ा करने के लिए वक्त चाहिए. अब 17 साल बीत गए हैं. कुछ भी नहीं बनाया जा सका, सिर्फ दूसरी पार्टियों का वोट शेयर बढ़ाने के अलावा.

अगर कांग्रेस सिर्फ जिम जोन्स शैली का कल्ट (संप्रदाय) रही है-जैसा कि कई बार वह आभास देती है-तो इन सब बातों का उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन कांग्रेस कल्ट नहीं हो सकती. वह महान राष्ट्रीय पार्टी है, जो उदार मूल्यों के लिए हमेशा खड़ी रही है. करीब 150 से 200 संसदीय सीटों पर वह बीजेपी की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है. बीजेपी की लोकसभा चुनावों में जीत की एक वजह यह है कि उसने इन सीटों पर कांग्रेस को आसानी से हरा दिया. मोदी के विरोध के बदले कांग्रेस का यह नेतृत्व उन्हें सत्ता में बनाए हुए है.

मुझे गांधी परिवार के बच्चों की नीयत पर कतई संदेह नहीं है. न ही मुझे उनकी शालीनता पर कोई संदेह है. वे बिना किसी तोहफे के पार्टी के लिए कड़ी मेहनत करते हैं. राहुल आसानी से कुछ और कर सकते हैं. प्रियंका ने अपना जीवन अब यूपी में काम करने पर लगा दिया है. लेकिन उनके लिए यह कबूल करने का वक्त आ गया है कि वे समाधान नहीं हैं.
वे ही समस्या हैं

उनकी मां ने प्रधानमंत्री पद बार-बार त्यागकर प्रतिष्ठा हासिल की थी. इस पीढ़ी ने कांग्रेस की बागडोर अपने हाथ में रखने की लालच में वह साख नष्ट कर दी है. फिलहाल हालत तो और भी बदतर हो गई है. राहुल गांधी के पास कोई आधिकारिक पद नहीं है. लेकिन वे उसी तरह काम करते हैं, जैसे वे ही पार्टी चला रहे हैं. यह बिना जवाबदेही के सत्ता है, जो उनके वारिस का पारंपरिक विशेषाधिकार है.

कोई नहीं कहता कि गांधी परिवार के वारिस पार्टी में कोई योगदान नहीं करते हैं. वे करते हैं. कोई समझदार व्यक्ति यह भी नहीं कहेगा कि उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए. लोग तो यही कह रहे हैं कि अब किनारे हो जाने का वक्त है. अब वक्त है कि शाही खानदान के बच्चों जैसा बर्ताव करना वे छोड़ दें. आपको अपने मौके मिले हैं, आपने उसे गंवा दिया. अब किसी और को वह काम करने दीजिए, जो आप नहीं कर सके. मतदाताओं को एक बेदर्द तानाशाही वाली पार्टी और बुझते खानदान के बीच चुनने को मजबूर मत कीजिए. कांग्रेस में ज्यादा पाने की काबिलियत है. भारत बेहतर पाने के काबिल है.

यह संभव है कि गांधी परिवार के बाहर का कोई नेता कांग्रेस को एकजुट न रख पाए. लेकिन हमें यह खुद देखने की दरकार है. हां, यह संभव है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस बंट जाए और उसके टुकड़े हो जाएं.

लेकिन उसका सामना करिए, यह वैसे भी होने वाला है. बच्चे पार्टी को एकजुट नहीं रख रहे हैं. वह सोनिया के प्रति सम्मान है. और वह हमेशा नहीं बना रह सकता. कोई भी इस पीढ़ी के गांधियों से यह उम्मीद नहीं करता कि वे मोदी को हरा देंगे और कांग्रेस 2024 में लगातार तीसरी हार नहीं झेल सकती.

आपके बेहतर प्रदर्शन के लिए काफी कुछ कहा जा सकता है. लेकिन उससे ज्यादा यह कहा जा सकता है कि आप कबूल करें कि आप नाकाम रहे हैं. खासकर जब राष्ट्र का जीवन इस पर निर्भर है.

राहुल गांधी को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या वे अपनी मां की तरह अपने पूर्वजों की तस्वीरों के आगे से बिना सोच-विचार गुजर जाएंगे? और क्या वह सोच यह होगी कि मुझे माफ कर दें, लेकिन मैं नहीं जानता कि उसे कैसे बचाया जाए, जिसे आपने बनाया है?

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @virsanghvi .विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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