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Friday, 22 November, 2024
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कोलंबो, माले से लेकर इस्लामाबाद तक पड़ोस में मंडराते संकट, राजनीतिक अस्थिरता ने भारत की चिंता बढ़ाईं

पाकिस्तान में अस्थिरता, श्रीलंका में आर्थिक संकट, मालदीव में भारत विरोधी अभियान, अफगानिस्तान में तालिबान और चीन का बढ़ता प्रभाव, ये सब एक दीर्घकालिक खतरा उत्पन्न करते हैं

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नई दिल्ली: पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता, श्रीलंका में अभूतपूर्व आर्थिक संकट, मालदीव में जारी भारत-विरोधी अभियान, अफगानिस्तान में कठमुल्ला तालिबान और इन देशों के साथ-साथ नेपाल में भी चीन का बढ़ता दखल—भारत के पड़ोस में उपजी विस्फोटक स्थितियों ने ऐसे समय में नई दिल्ली के लिए सिरदर्दी बढ़ा दिया है और उसके सामने नई कूटनीतिक चुनौतियां उत्पन्न कर दी है जब रूस-यूक्रेन युद्ध पहले से ही एक बड़ी समस्या बना हुआ है.

राजनयिक और सुरक्षा सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि पड़ोसी देशों के हालात इसलिए चिंता बढ़ा रहे हैं क्योंकि श्रीलंका से शरणार्थियों के आने की आशंका है, वहीं इस द्वीप राष्ट्र में भारत समर्थित महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर अमल में देरी हो सकती है, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद बढ़ने के आसार हैं, और यही नहीं चीन इनमें से कुछ देशों में भारत विरोधी भावनाओं को हवा देने में जुटा है.

सूत्रों के मुताबिक, विदेश मंत्री एस. जयशंकर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह लगभग हर रोज ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पड़ोसी देशों के घटनाक्रम की जानकारी दे रहे हैं.

एक सूत्र ने कहा कि पड़ोस में उभरता संकट इस समय भारतीय ‘विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती’ बन गया है, अब जबकि पूरी दुनिया ही रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर परेशान है, भारत का पूरा ध्यान ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति पर केंद्रित है.

सूत्रों ने बताया कि मोदी सरकार इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि उसे संकट की इस स्थिति में सतर्क रुख अपनाते हुए ही मदद का हाथ बढ़ाना है, और वह ‘आतंरिक मामलों में दखल के आरोप लगने’ से बचने के लिए ‘किसी अन्य भूमिका’ की कोई योजना नहीं बना रही है, जैसा पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल की तरफ से अक्सर कहा जाता है.

शरणार्थी संकट बढ़ने के आसार

श्रीलंका में अभूतपूर्व आर्थिक संकट भारतीय समुद्री सुरक्षा तंत्र के लिहाज से कोई अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि यह द्वीप राष्ट्र रणनीतिक रूप से दुनिया के व्यस्त समुद्री मार्गों में से एक के बीच आता है.

सूत्रों ने कहा कि नई दिल्ली ने वहां की स्थिति पर ‘सावधानीपूर्वक नजर बना रखी है’, और संकट से निपटने में श्रीलंका की सहायता के हरसंभव प्रयासों के साथ वह उन संभावित मुद्दों से भी पूरी तरह अवगत है जो भारत के समुद्री सुरक्षा तंत्र को खतरे में डाल सकते हैं.

सूत्रों ने कहा कि इसके अलावा, नई दिल्ली को श्रीलंका में लंबे समय तक आर्थिक मंदी जारी रहने पर संभावित शरणार्थी संकट की आशंका भी सता रही है.

सूत्रों के मुताबिक, भारत इस बात से भी चिंतित है कि श्रीलंका में जारी संकट के कारण उस देश में चल रही परियोजनाओं पर अमल में देरी हो सकती है, जो उसके विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं. पूरे श्रीलंका में कई बुनियादी ढांचा परियोजनाएं या तो चल रही हैं या शुरू होने के क्रम में हैं.

विदेश मंत्रालय के मुताबिक, भारत अब तक श्रीलंका को 2.5 अरब डॉलर से अधिक की सहायता दे चुका है, और श्रीलंका के आम नागरिकों को चावल और ईंधन जैसी आवश्यक वस्तुएं मुहैया कराने के लिए और अधिक सहायता की योजना बनाई जा रही है.

पिछले महीने, भारतीय नौसेना के पांच जहाजों ने न केवल दोनों देशों के बीच घनिष्ठ रक्षा सहयोग को दर्शाने के लिए श्रीलंका का दौरा किया, बल्कि यह संकेत भी दिया कि भारतीय समुद्री क्षेत्र की सुरक्षा के लिए यह द्वीप राष्ट्र कितना महत्वपूर्ण है.

नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक नेशनल मैरीटाइम फाउंडेशन के सीनियर फेलो सरबजीत सिंह परमार ने कहा, ‘किसी भी पड़ोसी देश में अस्थिरता का भारत पर सीधा प्रभाव पड़ता है. गौरतलब है कि लिट्टे को कुचलने के बाद श्रीलंका को एक उभरता सितारा माना जाने लगा था. यह (भारत के साथ) प्रतिस्पर्धा कर रहा और अपने तरीके से भी प्रगति कर रहा था, जो कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वाली स्थिति थी.’

परमार ने आगे कहा, ‘मौजूदा संकट उनके आंतरिक राजनीतिक और शासन संबंधी मुद्दों के कारण है. हमें वहां एक मैत्रीपूर्ण शासन की जरूरत है और इस संकट में अगर कोई अन्य राजनीतिक दल (सत्ता में) आता है तो हमारे लिए और भी चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं. वहां किसी भी प्रकार की अस्थिरता का समुद्री मार्ग पर प्रतिकूल असर पड़ेगा; समुद्री अपराध और समुद्री प्रशासन से जुड़े मुद्दे सामने आएंगे. और अगर इस अस्थिरता पर काबू नहीं पाया गया तो पूरी तरह सुरक्षित समुद्री सीमा न होने की वजह से हमें एक शरणार्थी संकट का भी सामना करना पड़ सकता है.’

उन्होंने यह भी कहा कि श्रीलंका के मौजूदा हालात की वजह से भारत-मालदीव-श्रीलंका त्रिपक्षीय सुरक्षा वार्ता जैसे सुरक्षात्मक उपायों के पटरी से उतरने का खतरा है, और हिंद महासागर रिम एसोसिएशन और इंडो-पैसिफिक रणनीतिक ढांचे के तहत भारत की तरफ से की गई अन्य तमाम पहल भी ठप पड़ गई हैं.

राजपक्षे सरकार के खिलाफ देशभर में विरोध प्रदर्शन तेज होने और परिवार पर कुशासन के बढ़ते आरोपों के बीच कैबिनेट के सामूहिक इस्तीफे की स्थिति बन रही है, लेकिन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे पद पर बने हुए हैं. इससे तनाव और भी ज्यादा बढ़ गया है.

इस बीच, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने कहा है कि वह श्रीलंका की स्थिति पर ‘बारीकी से नजर’ रखे हुए है.

जाने-माने राजनयिक शरत सभरवाल ने दिप्रिंट को बताया, ‘हालांकि चीन सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है, लेकिन पड़ोस में अस्थिरता स्वाभाविक रूप से हमें चिंतित करने वाली है. श्रीलंका रणनीतिक रूप से एक बेहद अहम जगह पर स्थित है, वहां से तमाम समुद्री रास्ते गुजरते हैं, और वहां पर किसी भी तरह की अस्थिरता का (भारत पर) सीधा असर पड़ता है. शरणार्थी संकट का बड़ा खतरा मंडरा रहा है, जो सुरक्षा की दृष्टि से भारत के लिए अच्छा संकेत नहीं है.’

उन्होंने कहा, ‘यद्यपि हमें वहां की स्थिति पर गहन नजर रखने और उनकी मदद करते रहने की जरूरत है, हम स्पष्ट रूप से उस स्थिति में दखल नहीं दे सकते.’

कैलिफोर्निया स्थित थिंक टैंक रैंड कॉर्पोरेशन में वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक डेरेक जे. ग्रॉसमैन के मुताबिक, निश्चित तौर पर श्रीलंका और पाकिस्तान में जारी राजनीतिक अस्थिरता पर भारत ने ‘बारीकी से’ नजरें बना रखी हैं.

उन्होंने कहा, ‘श्रीलंका के मामले में मेरी समझ से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के जरिये भ्रष्ट राजपक्षे परिवार के साथ लंबे समय तक कायम रही चीन की नजदीकी के बाद भारत एक बार फिर ड्राइवर सीट पर है. बीआरआई सौदे ने अंतरराष्ट्रीय फैक्टर की वजह से निश्चित रूप से मौजूदा अशांति में अहम भूमिका निभाई है, और अब भारत के लिए मौका है कि इस स्थिति को ठीक करे और खुद को एक नायक की तरह पेश करे…. मुझे उम्मीद है कि नई दिल्ली अपने दीर्घकालिक मित्र के तौर पर कोलंबो को वित्तीय स्थिति सुधारने में मदद के लिए आगे आएगी, और जरूरत के मुताबिक अतिरिक्त सहायता मुहैया कराएगी.’

सीमा पार आतंकवाद में तेजी का जोखिम

राजपक्षे परिवार शासित श्रीलंका सरकार के दिन अब गिने-चुने ही नजर आ रहे है, इस बीच पश्चिमी छोर पर भारत के एक और पड़ोसी देश में लोकतंत्र पर खतरा मंडरा रहा है. पाकिस्तान एक बार फिर निर्वाचित सरकार और सेना के बीच सत्ता संघर्ष में घिर गया है.

सूत्रों के मुताबिक, भारत हालांकि पाकिस्तान से खुलकर बात नहीं कर रहा है और दोनों के बीच राजनयिक संबंध भी बहुत कम हो गए हैं, लेकिन उसने वहां के घटनाक्रम पर नजरें टिका रखी हैं. नई दिल्ली का यह भी मानना है कि अफगानिस्तान में तालिबान के सत्तासीन होने के बाद उस क्षेत्र में फिर पनप रहा आतंकवाद भारत के लिए एक गंभीर खतरा बना हुआ है, खासकर ऐसे समय में जब देश की पूर्वी सीमा पर उसे अप्रैल-मई 2020 से ही चीन के साथ सैन्य गतिरोध से जूझना पड़ रहा है.

साउथ ब्लॉक में इस पर भी चर्चा चल रही है कि क्या भारत को जूनियर स्तर के एक अधिकारी के साथ काबुल में अपना दूतावास फिर खोलना चाहिए, खासकर तब जबकि पाकिस्तान के साथ राजनयिक संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं.

हालांकि, सूत्रों ने यह भी कहा कि पाकिस्तानी सेना ऐसे समय में भारत के साथ कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं है, जब देश आंतरिक उथल-पुथल से जूझ रहा है.

पिछले हफ्ते ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग में कहा था कि भारत के साथ विवादों को शांति से सुलझाया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा था, ‘पाकिस्तान कश्मीर विवाद सहित सभी लंबित मुद्दों को सुलझाने के लिए बातचीत और कूटनीति का रास्ता अपनाने में भरोसा रखता है और अगर भारत इस पर सहमत हो तो वह इस मोर्चे पर आगे बढ़ने के लिए तैयार है.’

हालांकि, पाकिस्तानी सेना फिलहाल अफगानिस्तान में चरमपंथी समूहों पर कार्रवाई के साथ-साथ दोनों देशों के बीच की सीमा डूरंड रेखा पर बाड़ लगाने जैसे मुद्दों को लेकर तालिबान के साथ बढ़ते तनाव से जूझ रही है.

ग्रॉसमैन ने कहा, ‘नई दिल्ली के लिए यह निर्धारित करना बेहद अहम होगा कि क्या बाजवा की तरफ से हाल में अमेरिकी सेना का सहयोग फिर लेने में दिखाई गई रुचि वास्तविक है या फिर यह सिर्फ प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ घरेलू राजनीतिक हलचल का हिस्सा है. बाजवा के सहयोग से नया पीएम चुने जाने पर भारत के लिए इसका अंदाजा लगाना आसान होगा. जाहिर है कि नई दिल्ली को इमरान खान के हटने का कोई अफसोस नहीं होगा लेकिन इस्लामाबाद के साथ अमेरिका की नजदीकी बढ़ना भी उसे पसंद नहीं आएगा.’

उन्होंने कहा, ‘रिकॉर्ड के तौर पर, मुझे नहीं लगता कि बाइडेन प्रशासन इसके लिए तैयार होगा, लेकिन नेतृत्व परिवर्तन हमेशा नए अवसर उत्पन्न करता, इसलिए आपको पता नहीं होता कि कब क्या हो जाए. अगर खान सत्ता में बने रहते हैं, तो यह भी दिलचस्प होगा, क्योंकि उन्होंने हाल में भारत के बारे में कुछ सौहार्दपूर्ण बातें कही हैं और पाकिस्तानी हिस्से वाले कश्मीर ने अभी तक चुप्पी साध रखी है. क्या पता उनके सत्ता में बने रहने से राजनयिक रिश्तों की फिर शुरुआत हो जाए? वैसे तालिबान को खान का समर्थन इसमें आड़े आ सकता है, क्योंकि मेरा मानना है कि वैध सरकार के तौर पर उसे आधिकारिक मान्यता देने वाला पाकिस्तान पहला देश होगा, चाहे इमरान खान सत्ता में रहें या न रहें.

सभरवाल के अनुसार, पाकिस्तान राजनीतिक दलों और अपनी सेना के बीच टकराव के आंतरिक मुद्दों से जूझ रहा है.

उन्होंने कहा, ‘उनके बीच जारी यह पूरा नाटकीय घटनाक्रम एक संवैधानिक संकट को जन्म दे रहा है. जाहिर है कि हम भी वहां की अस्थिरता से अछूते नहीं रह सकते हैं. एक बड़े देश के तौर पर यथासंभव उनसे निपटना हमारी जिम्मेदारी है.’

सभरवाल ने हाल में सिक्योरिटी डायलॉग में पाकिस्तानी सेना प्रमुख की टिप्पणियों का जिक्र करते हुए कहा, ‘लेकिन निश्चित रूप से कुछ ऐसे हॉटस्पॉट हैं जिन पर नजर रखने की जरूरत हैं… हमें सतर्क रहना होगा…बाजवा एक रणनीतिक कदम के तौर पर तनाव घटाने की कोशिशों को युद्धविराम से आगे ले जाना चाहते हैं.’

सभरवाल ने कहा, ‘पाकिस्तानी सेना विवादों को शांत रखना चाहती है. लेकिन इमरान ऐसा कोई राजनीतिक स्पेस नहीं रखते, क्योंकि उन्होंने तो अनुच्छेद 370 निरस्त होने के बाद खुद को इसी बात तक सीमित रखा था. इसलिए मौजूदा समय में पाकिस्तानी व्यवस्था में कश्मीर पर किसी स्पष्ट दृष्टिकोण का अभाव है.

मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान, म्यांमार में जुंटा

इस बीच, मालदीव में अचानक पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन द्वारा प्रचारित ‘इंडिया आउट’ अभियान में तेजी दिखने लगी है क्योंकि वह राजनीति में वापसी की योजना बना रहे हैं.

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पिछले माह वहां की यात्रा के दौरान भारत की तरफ से वित्त पोषित कुछ परियोजनाओं को रेखांकित किया और उन्हें मंजूरी दी, इसका उद्देश्य यह संदेश देना भी था कि चीन के विपरीत भारत उस देश के विकास के लिए वहां है.

2021 में मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान ने उस समय गति पकड़ी थी जब उसी वर्ष फरवरी में दोनों देशों ने एक सैन्य करार पर हस्ताक्षर किए थे.

नेपाल और यूरोपीय संघ में भारतीय राजदूत रह चुके मंजीव सिंह पुरी कहते हैं, ‘श्रीलंका, नेपाल और यहां तक कि मालदीव में भी पहचान की राजनीति चलती है. और इस परिभाषा में एक तत्व है भारत का विरोध. हालांकि, हमें अपने डेवलपमेंट प्रोजेक्ट पर ध्यान केंद्रित करके संबंधों को आगे बढ़ाते रहना चाहिए, हम जो कर सकते हैं, वो काम करते रहना चाहिए, इस पर ध्यान दिए बिना कि उनकी आंतरिक राजनीति में क्या चल रहा है.’

सूत्रों ने बताया भारत पर यूक्रेन युद्ध मसले पर रूस के खिलाफ खड़े होने का दबाव डालने के अलावा अमेरिका म्यांमार में जुंटा के साथ नई दिल्ली के रिश्तों, और यहां तक कि बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (बिम्सटेक) शिखर सम्मेलन—जिसकी मेजबानी पिछले माह श्रीलंका ने की थी—में इसके संयुक्त रूप से हिस्सा लेने को लेकर भी नाराज था.

इस बीच, चीन के साथ गतिरोध ने पहले ही तनावग्रस्त ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति पर दबाव और बढ़ा रखा है. चीनी विदेश मंत्री वांग यी की हालिया भारत यात्रा से भी नई दिल्ली और बीजिंग के बीच रिश्ते सुधारने में कोई खास मदद नहीं मिली, भारत ने उनके साथ बातचीत में साफ कर दिया कि जब तक सीमा विवाद मुद्दों का समाधान नहीं होता, दोनों के बीच द्विपक्षीय संबंध सुधरने की गुंजाइश नहीं है.

ग्रॉसमैन के मुताबिक, भारत की सुरक्षा के लिहाज से चीन के साथ जारी सीमा गतिरोध ने भी नई दिल्ली पर दबाव बढ़ा दिया है. हालांकि, उन्होंने कहा, ‘भारत पहले ही दशकों से चीन के साथ सीमा विवाद का सामना करता रहा है, लेकिन मई 2020 से दबाव काफी बढ़ गया है. ऐसे में मुझे लगता है कि आम तौर पर नई दिल्ली की यही राय होती है कि स्थिति नियंत्रण में है. माना जा रहा है कि अब जबकि वसंत और गर्मियों का फाइटिंग सीजन शुरू हो गया, तब बढ़ते खतरे को लेकर धारणा तेजी से बदल सकती है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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